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अरुंधति राय युग प्रवर्तक लेखिका है जबकि परेश रावल मसखरे

मैं पिछले कई बरस से अरुंधती राय के नए उपन्यास के इन्तजार में हूँ. ‘द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ उनका नया उपन्यास है जो 6 जून को रिलीज हो रहा है. अपने किंडल पर उसकी एडवांस बुकिंग करवाकर उस दिन का इंतजार कर रहा हूँ. संयोग से 6 जून के दिन से ही मेरी गर्मी की छुट्टियाँ आरम्भ हो जाएँगी. मेरे लिए गर्मी की छुट्टियों का इससे अच्छा तोहफा नहीं हो सकता. ‘गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ उनके उन उपन्यासों में जिसके प्रभाव में आकर मैंने लेखन आरम्भ किया. न जाने कितनों ने किया. भारतीय अंग्रेजी साहित्य की संभवतः आखिरी बेहद चर्चित किताब है ‘गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’.

अरुंधती राय अपने लेखन में अद्वितीय हैं तो वह अपने सार्वजनिक जीवन में भी अद्वितीय हैं. वह अंग्रेजी की वैसे दुर्लभ लेखकों में हैं जिनको सिर्फ इसलिए याद नहीं किया जाता है कि उनको एडवांस का कितना बड़ा चेक मिला. बल्कि अंग्रेजी जैसी एलिट भाषा में लिखने वाला शायद ही कोई दूसरा लेखक होगा जिसको अपने सामाजिक सरोकारों के लिए याद किया जाए. बल्कि मेरी भाषा हिंदी में भी कोई सामाजिक सरोकार की बातें लिखने वाले लेखक तो बहुत मिल जायेंगे लेकिन सच में समाज के वंचित, शोषित तबकों के हित में आगे बढ़कर काम करने वाला लेखक चिराग लेकर ढूंढने पर नहीं मिलेगा.

मैं कल से यही सोच रहा हूँ कि परेश रावल ने उनके बारे में ही क्यों ऐसा बयान दिया कि उनको जीप से बांधकर घुमाया जाना चाहिए था. फिल्मों में वे मसखरे की भूमिका निभाते रहे हैं और अच्छी तरह से निभाए रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं. आप जो अभिनय करते हैं उसका असर आपके जीवन पर भी पड़ने लगता है. दिलीप कुमार ट्रेजेडी किंग की भूमिका निभाते निभाते इतने अवसादग्रस्त हो गए थे कि उनको लन्दन में जाकर अपना इलाज करवाना पड़ा था. परेश रावल ने अपने जानते बहुत गंभीरता से बात कही होगी लेकिन मुझे ऐसा लग रहा है जैसे किसी फिल्म में मसखरे की भूमिका में वे ऐसा कह रहे हों. देश में लेखन की धारा बदल कर रख देने वाली एक लेखिका के बारे में एक मसखरा अभिनेता इस तरह का वक्तव्य दे तो उसको क्या कहा जाए. मेरे ख़याल से बहुत दिनों से परेश रावल ने किसी फिल्म में कॉमेडियन की भूमिका नहीं निभाई है. हो सकता है इसी का असर हो.

बात सिर्फ परेश रावल की नहीं है. देश की वर्तमान सत्ता से जुड़े लोगों में ऐसा क्या है कि वे हर वैसे आदमी के ऊपर, एक्टिविस्ट के ऊपर हमला करते हैं जो किसी तरह का सामाजिक सरोकार दिखाते हैं. सामाजिक होना वर्तमान सरकार से जुड़े लोगों की नजर में अवांछित होना है.

-प्रभात रंजन 

 
      

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10 comments

  1. बहुत ज़ल्दी आपने बात ख़त्म कर दी। मैं थोड़ा-सा और का इंतज़ार कर रहा था।

  2. अच्छा, सच्चा और जरूरी आलेख।

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