युवा शायर सीरीज में आज पेश है प्रखर मालवीय ‘कान्हा’ की ग़ज़लें – त्रिपुरारि
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ग़ज़ल-1
आग है ख़ूब थोड़ा पानी है
ये यहाँ रोज़ की कहानी है
ख़ुद से करना है क़त्ल ख़ुद को ही
और ख़ुद लाश भी उठानी है
पी गए रेत तिश्नगी में लोग
शोर उट्ठा था यां पे पानी है
ये ही कहने में कट गए दो दिन
चार ही दिन की ज़िंदगानी है
मेरे ख़ाबों में यूँ तिरा आना
मेरी नींदों से छेड़खानी है
सारे किरदार मर गए लेकिन
रौ में अब भी मिरी कहानी है
ग़ज़ल-2
बहुत उकता गया जब शायरी से
लिपट कर रो पड़ा मैं ज़िन्दगी से
अभी कुछ दूर है शमशान लेकिन
बदन से राख झड़ती है अभी से
इसे भी ज़ब्त कहना ठीक होगा
बहुत चीख़ा हूँ मैं पर ख़ामुशी से
बस इसके बाद ही मीठी नदी है
कहा आवारगी ने तिश्नगी से
लगा है सोचने थोड़ा तो मुंसिफ
मेरे हक़ में तुम्हारी पैरवी से
मयस्सर हो गयीं शक़्लें हज़ारों
हुआ ये फ़ायदा बेचेहरगी से
सुनो वो दौर भी आएगा ‘कान्हा’
तकेगा हुस्न जब बेचारगी से
ग़ज़ल-3
एक डर सा लगा हुआ है मुझे
वो बिना शर्त चाहता है मुझे
खुल के रोने के दिन तमाम हुए
अब मिरा ज़ब्त देखना है मुझे
मर रहा हूँ इसी सुकून के साथ
साँस लेने का तजरुबा है मुझे
एक जां एक तन हैं हिज्र और मैं
तेरा आना भी अब सज़ा है मुझे
अब मैं ख़ामोश होने वाला हूँ
क्या कोई है जो सुन रहा है मुझे?
चुप रहा मैं इसी लिये ‘कान्हा’
मुझसे बेहतर वो जानता है मुझे
waah kaanha bhai
kamaal ki ghazalein
mubaaraq ho
nazir nazar