युवा शायर सीरीज में आज पेश है अब्बास क़मर की ग़ज़लें – त्रिपुरारि
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ग़ज़ल-1
मेरी परछाइयां गुम हैं मेरी पहचान बाक़ी है
सफ़र दम तोड़ने को है मगर सामान बाक़ी है
अभी तो ख़्वाहिशों के दरमियां घमसान बाक़ी है
अभी इस जिस्मे-फ़ानी में ज़रा सी जान बाक़ी है
इसे तारीकियों ने क़ैद कर रक्खा है बरसों से
मेरे कमरे में बस कहने को रौशनदान बाक़ी है
तुम्हारा झूट चेहरे से आयां हो जाएगा इक दिन
तुम्हारे दिल के अंदर था जो वो शैतान बाक़ी है
गुज़ारी उम्र जिसकी बंदगी में वो है ला-हासिल
अजब सरमायाकारी है नफ़ा-नुक़सान बाक़ी है
अभी ज़िंदा है बूढ़ा बाप घर की ज़िंदगी बनकर
फ़क़त कमरे जुदा हैं बीच में दालान बाक़ी है
ग़ज़ल ज़िंदा है उर्दू के अदब-बरदार जिंदा हैं
हमारी तरबीयत में अब भी हिंदोस्तान बाक़ी है
ग़ज़ल-2
क्यों ढूँढ़ रहे हो कोई मुझसा मेरे अंदर
कुछ भी न मिलेगा तुम्हें मेरा मेरे अंदर
गहवार-ए-उम्मीद सजाए हुए हर रोज़
सो जाता है मासूम सा बच्चा मेरे अंदर
बाहर से तबस्सुम की क़बा ओढ़े हुए हूँ;
दरअस्ल हैं महशर कई बरपा मेरे अंदर
ज़ेबाइशे-माज़ी में सियह-मस्त सा इक दिल
देता है बग़ावत को बढ़ावा मेरे अंदर
सपनों के तअाक़ुब में है आज़ुरदः हक़ीक़त
होता है यही रोज़ तमाशा मेरे अंदर
मैं कितना अकेला हूँ तुम्हें कैसे बताऊँ
तन्हाई भी हो जाती है तन्हा मेरे अंदर
अंदोह की मौजों को इन आँखों में पढ़ो तो
शायद ये समझ पाओ है क्या क्या मेरे अंदर
ग़ज़ल-3
लम्हा दर लम्हा तेरी राह तका करती है
एक खिड़की तेरी आमद की दुआ करती है
एक सोफ़ा है जिसे तेरी ज़रूरत है बहोत
एक कुर्सी है जो मायूस रहा करती है
सलवटें चीखती रहती हैं मिरे बिस्तर पर
करवटों में ही मेरी रात कटा करती है
वक़्त थम जाता है अब रात गुज़रती ही नहीं
जाने दीवार घड़ी रात में क्या करती है
चाँद खिड़की में जो आता था नहीं आता अब
तीरगी चारो तरफ़ रक़्स किया करती है
मेरे कमरे में उदासी है क़यामत की मगर
एक तस्वीर पुरानी सी हँसा करती है
ग़ज़ल-4
उसकी पेशानी पे जो बल आए
दो-जहां में उथल-पुथल आए॥
ख़्वाब का बोझ इतना भारी था
नींद पलकों पे हम कुचल आए॥
इस क़दर जज़्ब हो गए दोनों
दर्द खेंचूँ तो दिल निकल आए॥
रूह का नंगापन छिपाने को;
जिस्म कपड़े बदल बदल आए॥
जिसपे हर चीज़ टाल रक्खी है
जाने किस रोज़ मेरा कल आए॥
गुलमोहर की तलाश थी मुझको
मेरे हिस्से मगर कंवल आए॥
ग़ज़ल-5
तेरी आगोश में सर रखा सिसक कर रोए
मेरे सपने मेरी आँखों से छलक कर रोए
सारी खुशियों को सरे आम झटक कर रोये
हम भी बच्चों की तरह पाँव पटक कर रोए
रास्ता साफ़ था मंज़िल भी बहुत दूर न थी;
बीच रस्ते में मगर पाँव अटक कर रोए!
जिस घड़ी क़त्ल हवाओं ने चराग़ों का किया;
मेरे हमराह जो जुगनू थे फफक कर रोए!
क़ीमती ज़िद थी, गरीबी भी भला क्या करती
माँ के जज़बात दुलारों को थपक कर रोए!
अपने हालात बयां करके जो रोई धरती;
चाँद तारे किसी कोने में दुबक कर रोए;
बामशक्कत भी मुकम्मल न हुई अपनी ग़ज़ल,
चंद नुक्ते मेरे काग़ज़ से सरक कर रोए!