नश्तर ख़ानक़ाही एक बेचैन रूह का नाम है। जिसने अपनी शायरी से न सिर्फ़ उर्दू अदब की ख़िदमत की, बल्कि कई आवाज़ों को रोशनी भी बख़्शी। उसकी ग़ज़ल हम आज भी सुनते हैं, गुनगुनाते हैं। आज अचानक एक ग़ज़ल सुनी तो सोचा क्यूँ न कुछ और ग़ज़लें पढ़ी जाए और जानकीपुल के पाठकों के लिए पेश भी की जाए। आइए पढ़ते हैं नश्तर ख़ानक़ाही की कुछ चुनिंदा ग़ज़लेंं- त्रिपुरारि
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ग़ज़ल-1
सौ बार लौह-ए-दिल से मिटाया गया मुझे
मैं था वो हर्फ़-ए-हक़ कि भुलाया गया मुझे
इक ज़र्रा-ए-हक़ीर तेरी रहगुज़र का था
लाल-ए-यमन न था कि गँवाया गया मुझे
लिख्खे हुए कफ़न से मेरा तन ढका गया
बे-कत्बा मक़बरों में दबाया गया मुझे
महरूम करके साँवली मिट्टी के लम्स से
ख़ुश रंग पत्थरों मे उगाया गया मुझे
पिन्हा थी मेरे तन में कई सूरजों की आँच
लाखों समन्दरों में बुझाया गया मुझे
किस-किसके घर का नूर थी मेरे लहू की आग
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे
मैं भी तो इक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में उड़ाया गया मुझे
ग़ज़ल-2
धड़का था दिल कि प्यार का मौसम गुज़र गया
हम डूबने चले थे कि दरिया उतर गया
ख़्वाबों की वो मता-ए-गिराँ किस ने छीन ली
किया जानिए वो नींद का आलम किधर गया
तुम से भी जब नशात का इक पल न मिल सका
मैं कासा-ए-सवाल लिए दर-ब-दर गया
भूले से कल जो आईना देखा तो ज़ेहन में
इक मुंहदिम मकान का नक़्शा उतर गया
तेज़ आँधियों में पाँव ज़मीं पर न टिक सके
आख़िर को मैं ग़ुबार की सूरत बिखर गया
गहरा सुकूत रात की तन्हाइयाँ खंडर
ऐसे में अपने आप को देखा तो डर गया
कहता किसी से क्या कि कहाँ घूमता फिरा
सब लोग सो गए तो मैं चुपके से घर गया
ग़ज़ल-3
हर बार नया ले के जो फ़ित्ना नहीं आया
इस उम्र में ऐसा कोई लम्हा नहीं आया
हूँ घर में कि अहबाब में मातूब रहे हम
कुछ हम से न आया तो दिखावा नहीं आया
आलूदा कभी गर्द-ए-तलब से न हुए हम
होंटों पे कभी हर्फ़-ए-तमन्ना नहीं आया
ये भी है कि मौज़ूँ न थी दुनिया की रविश भी
कुछ हम से भी जीने का सलीक़ा नहीं आया
छोड़ा तो न था हम ने सवालों का कोई हल
थी जिस की तवक़्क़ो वो नतीजा नहीं आया
नीलाम न कर दी हो कहीं प्यास की ग़ैरत
इस बार कोई कूफ़े से प्यासा नहीं आया
इक शख़्स पहेली की तरह साथ था मेरे
मैं शहर से निकला तो अकेला नहीं आया
ग़ज़ल-4
ख़ुश-फ़हमियों को दर्द का रिश्ता अज़ीज़ था
काग़ज़ की नाव थी जिसे दरिया अज़ीज़ था
ऐ तंगी-ए-दयार-ए-तमन्ना बता मुझे
वो पाँव क्या हुए जिन्हें सहरा अज़ीज़ था
पूछो न कुछ कि शहर में तुम हो नए नए
इक दिन मुझे भी सैर ओ तमाशा अज़ीज़ था
बे-आस इंतिज़ार ओ तवक़्क़ो बग़ैर शक
अब तुम से क्या कहें हमें क्या क्या अज़ीज़ था
वादा-ख़िलाफ़ियों पे था शिकवों का इंहिसार
झूटा सही मगर मुझे वादा अज़ीज़ था
इक रस्म-ए-बेवफ़ाई थी वो भी हुई तमाम
वो यार-ए-बेवफ़ा मुझे कितना अज़ीज़ था
यादें मुझे न जुर्म-ए-तअल्लुक़ की दें सज़ा
मेरा कोई न मैं ही किसी का अज़ीज़ था
ग़ज़ल-5
न मिल सका कहीं ढूँडे से भी निशान मिरा
तमाम रात भटकता रहा किसान मिरा
मैं घर बसा के समुंदर के बीच सोया था
उठा तो आग की लपटों में था मकान मिरा
जुनूँ न कहिए इसे ख़ुद-अज़िय्यती कहिए
बदन तमाम हुआ है लहू-लुहान मिरा
हवाएँ गर्द की सूरत उड़ा रही हैं मुझे
न अब ज़मीं ही मिरी है न आसमान मिरा
धमक कहीं हो लरज़ती हैं खिड़कियाँ मेरी
घटा कहीं हो टपकता है साएबान मिरा
मुसीबतों के भँवर में पुकारते हैं मुझे
अजीब दोस्त हैं लेते हैं इम्तिहान मिरा
किसे ख़ुतूत लिखूँ हाल-ए-दिल सुनाऊँ किसे
न कोई हर्फ़-ए-शनासा न हम-ज़बान मिरा
ग़ज़ल-6
तामीर हम ने की थी हमीं ने गिरा दिए
शब को महल बनाए सवेरे गिरा दिए
कमज़ोर जो हुए हों वो रिश्ते किसे अज़ीज़
पीले पड़े तो शाख़ ने पत्ते गिरा दिए
अब तक हमारी उम्र का बचपन नहीं गया
घर से चले थे जेब के पैसे गिरा दिए
पत्थर से दिल की आग संभाली नहीं गई
पहुँची ज़रा सी चोट पतिंगे गिरा दिए
बरसों हुए थे जिन की तहें खोलते हुए
अपनी नज़र से हम ने वो चेहरे गिरा दिए
शहर-ए-तरब में रात हवा तेज़ थी बहुत
काँधों से मह-वशों के दुपट्टे गिरा दिए
ताब-ए-नज़र को हौसला मिलना ही था कभी
क्यूँ तुम ने एहतियात में पर्दे गिरा दिए
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