जगरनॉट बुक्स से हुसैन हक्कानी की किताब का हिंदी अनुवाद आया है- ‘भारत vs. पाकिस्तान: हम क्यों दोस्त नहीं हो सकते?’ पाकिस्तान के चार प्रधानमंत्रियों के सलाहकार रह चुके हुसैन हक्कानी भारत-पाकिस्तान के रिश्तों का बहुत बारीक विश्लेषण करते हैं. सहमत-असहमत होना अपनी जगह है लेकिन उनको पढना दिलचस्प होता है. प्रस्तुत है उसी किताब से एक अंश- मॉडरेटर
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भारत और पाकिस्तान के बीच वैमनस्यता पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र की तरक्की का रोड़ा बनी हुई है। इस क्षेत्र में करीब एक अरब सत्तर करोड़ लोग रहते है और इसमें आठ देश हैं- अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका। इन सभी देशों की कुल जीडीपी (बेहद सामान्य दरों पर) 2.9 ट्रिलियन डालर है और यह क्षेत्र दुनिया का सबसे विघटित है। इन दक्षिण एशियाई देशों के व्यापार में अंतरक्षेत्रीय व्यापार का हिस्सा महज 5 फीसदी का ही है। क्षेत्र के देशों की राजधानियों के बीच बहुत कम हवाई सेवाएं हैं और सड़क और रेल मार्ग या तो हैं ही नहीं या फिर बहुत ही बुरी स्थिति में है।
तुलनात्मक अध्ययन में यह स्थिति आसियान देशों (असोसिएशन आफ साउथईस्ट नेशन्स) से ठीक उलट है जहां पर दस देश हैं और कुल आबादी 65 करोड़ है इन देशों की कुल जीडीपी 2.6 ट्रिलियन डालर है पर यहां पर उनके व्यापार का एक चौथाई यानी कुल 25 फीसदी इसी क्षेत्र से ही आता है। नाफ्टा यानी नॉर्थ अमेरिकन फ्री ट्रेड एग्रीमेंट जिसके तहत कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका और मेक्सिको आते हैं उनका कुल व्यापार का आधा हिस्सा इसी क्षेत्र से आता है। वही कुछ ऐसा ही हाल यूरोपियन यूनियन का भी है।
व्यापार को खोलने और उससे होने वाले आर्थिक लाभ शायद भारतीयों और पाकिस्तानियों को अमेरिका और कनाडा की तरह एक साथ रहने, जैसा कि जिन्ना चाहते थे, के लाभ का अहसास करा सकें। हिमालय के लगातार तेज़ी से पिघलते ग्लेशियर, पूरे उपमहाद्वीप में विकराल होता जलसंकट और सिंध राजस्थान के रेगिस्तान का एक साथ प्रबंध करना कुछ संयुक्त सहयोग और उपक्रम के क्षेत्र हो सकते हैं। भारत और पाकिस्तान के छात्र एक दूसरे के देश के विश्वविद्यालयों में पढ़कर सीमा के दोनों तरफ के विभिन्न अध्ययन क्षेत्रों की अर्जित की गयी ताकत का फायदा उठा सकते हैं। यही सिद्धांत स्वास्थ्य सेवाओं पर भी लागू होता है जहां दोनों देश के अस्पताल अपने अपने दरवाज़े दोनों देशों के नागरिकों के लिए खोल दें। एक बार भारतीय और पाकिस्तानी एक दूसरे के साथ समय बिताना शुरू करें तो उनके बीच की समानताएं वैमनस्यता को पार कर उन्हें एक दूसरे के करीब ला सकती है। इसी तरह दुश्मनी के माहौल को खत्म किया जा सकता है।
ऐसा होने के अवसर फिलहाल तो बहुत ही कम दिखते हैं। भारत और पाकिस्तान इस समय एक दूसरे के लिए अपनी सीमाएं नहीं खोल सकते जब उन्हें संदेह है कि दोनों देश एक दूसरे को बर्बाद करना चाहते हैं। छात्र, व्यापारी, उद्योगपति, डॉक्टर, कलाकार, संगीतकार और यहां तक मरीज़ों तक को इस समय दोनों देशों में एक सक्रिय जासूस और यहां तक कि आतंकी की शक भरी निगाहों से देखा जाता है। भारत-पाकिस्तान के नए संबंधों के लिए जहां पाकिस्तानियों को अपने जेहादी मंसूबे छोड़ने होंगे वहीं भारतीयों को सांप्रदायिक जुनून के दलदल से बचना होगा।
पाकिस्तान के पहले सैन्य तानाशाह शासक जनरल अयूब खान ने अपने संस्मरण में लिखा था कि भारत का हमेशा से तर्क रहता है कि ‘चलिए अपने झगड़े भुलाते हैं, हम युद्ध न करने की संधि करते हैं, ज़्यादा व्यापार करते हैं, दोनों देशों की सीमाओं में ज़्यादा घूमने की स्वतंत्रता देते हैं, सांस्कृतिक संवाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ाते हैं। इससे दोनों पक्षों की भावनाओं में सकारात्मक बदलाव आएंगे और ऐसा करते-करते जब सद्भावना का माहौल बनेगा तो समझ भी बढ़ेगी और सारे विवाद सुलझाए जा सकेंगे।’ जनरल अयूब ने पाकिस्तान की तरफ से स्थिति स्पष्ट करते हुए पूछा कि ‘मूलभूत मतभेदों और विवादों को बिना सुलझाए सद्भावना और एक दूसरे की समझ किस तरह से विकसित हो सकती है?’
दरअसल भारत जहां हर तरफ से अपनी राष्ट्रीय शक्ति का इजाफा कर रहा है वहीं पाकिस्तान उससे सिर्फ परमाणु हथियार बनाने और उसके प्रक्षेपण में बराबरी की टक्कर दे पाया है। पाकिस्तानियों को अक्सर दोनों देशों को लगातार बढ़ रही शिक्षा, वैज्ञानिक आविष्कारों और नई ईजादों के फासले के बारे में बताया ही नहीं जाता। पाकिस्तान पूरी शिद्दत और ताकत से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता और न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में उसकी सदस्यता का विरोध करता है। पाकिस्तान वास्तविकता में अपने लिए इन दोनों में कुछ भी हासिल नहीं कर सकता पर उसका सारा ज़ोर यह रहता है कि भारत को भी यह दोनों मुकाम हासिल न हों।
भारत से लगातार प्रतिद्वंद्विता करने की राष्ट्रीय सनक को हवा देने के बजाए पाकिस्तान को अपना ध्यान अपने लोकतंत्र की मज़बूती, आतंकवाद के निवारण, अपनी आधारभूत संरचना सुधारने और अपनी अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण पर केंद्रित करना चाहिए। लेकिन भारत से प्रतिद्वंद्विता को पाकिस्तान में लगातार खाद पानी दिया जाता है, कभी-कभी तो सनक की हद तक। एडिलेड में क्रिकेटविश्वकप 2015 में हुए भारत पाकिस्तान मैच की पूर्व संध्या पर पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता ले. जनरल असिम बाजवा ने ट्वीट किया, ‘पूरा देश हमारी टीम के शानदार प्रदर्शन के पीछे खड़ा है। टीम और देश दोनों का आत्मविश्वास और भावनाएं आसमान छू रही हैं।’ जनरल ने क्रिक्रेट के प्रशंसक या फिर क्रिकेट देखने वालों के सामान्य लोगों की तरह ट्वीट नहीं किया था क्योंकि विश्वकप के किसी भी अन्य मैच के लिए उन्होंने कुछ भी नहीं कहा था पर पाकिस्तान के भारत से मुकाबले में खुद को रोक न सके।
भारतीय भी इस तरह के किसी भी मुकाबले को चरम तक ले जाते हैं जबकि यह सच्चाई है कि वहां तो भारतीय सेना भी इस तरह की भावनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए बिलकुल भी केंद्रीय भूमिका नहीं निभाती जैसा कि पाकिस्तान में होता है।
2014 में क्रिकेट मैच के दौरान पाकिस्तानी टीम का पक्ष लेने के लिए दो भारतीयों को मेरठ और अलीगढ़ में गिरफ्तार कर लिया गया था। अक्टूबर में दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादियों ने एक भारतीय चिंतक के मुंह पर स्याही फेंक दी थी जब उन्होंने पाकिस्तानी विदेश मंत्री की किताब के विमोचन के लिए मुंबई में एक आयोजन करने की हिमाकत की थी। उसी महीने पाकिस्तानी गज़ल गायक गुलाम अली के कई कार्यक्रमों को रद्द करना पड़ा क्योंकि इसी अतिवादी समूह ने धमकी दी कि यह गायक उसी ‘देश का है जो भारतीयों पर गोलियां चलाता है।’[i]भारत के फायरब्रांड मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी को आजकल भारतीय मीडिया ‘नया जिन्ना’ कह रहा है क्योंकि वह हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को लेकर आग उगल रहे हैं। पाकिस्तान की तरह ही भारतीय भी अपने नेताओं की वजह से त्रस्त हैं जो यह बताते हैं कि 60 करोड़ मुस्लिम जो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहते हैं वो सभी दुश्मन हैं। दरअसल यह कभी न खत्म होने वाली एक अवास्तविक प्रतिद्वंद्विता को जन्म देता है।
भारत-पाकिस्तान संबंध दरअसल दो समानांतर और प्रतिस्पर्धी राष्ट्रवाद के शिकार रहे हैं। सैन्य शासन के प्रभाव में पाकिस्तानी राष्ट्रवाद का विकास भारत विरोधी विचारधारा के तौर पर ही हुआ है। पाकिस्तान के नामी विचारक खालिद अहमद के मुताबिक, ‘पाकिस्तानी राष्ट्रवाद, 95 फीसदी भारत से नफरत से बना है। वे इसे इस्लाम कहते हैं। क्योंकि यही एक तरीका है जिससे हमने अपने आप को भारत से अलग वजूद के तौर पर पहचाना है।’ वहीं भारतीय राष्ट्रवाद पाकिस्तान के वजूद को घोर सांप्रदायिक बताने पर आमादा है और लगातार द्विराष्ट्र सिद्धांत पर विवाद खड़ा करने की फिराक में शिद्दत से लगा दिखता है। इस परिभाषा से पाकिस्तान खुद को आत्मविश्वास से लबरेज़ और गरिमामयी बनाने की जगह रक्षात्मक और शर्मसार देश के तौर पर स्थापित कर रहा है।
जब पाकिस्तानी अपने झंडे के नीचे खड़े होते हैं तो उन्हें द्विराष्ट्र सिद्धांत की रक्षा करनी होती है चाहे वह भारतीयों के निशाने पर हो या फिर जब वह विचारधारा से इतर व्यावहारिक राष्ट्रवाद को अपनाने की कोशिश में हो। भारतीय पाकिस्तानी राष्ट्रवाद में भारत विरोधी विचारधारा को कमज़ोर करने में ज्यादा सक्षम दिखते हैं क्योंकि उनके पास वाजपेयी द्वारा एक आवाज में पाकिस्तानी वजूद को स्वीकारने की मिसाल है जो उन्होंने लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान पर पेश की थी। इक्कीसवीं सदी में द्विराष्ट्र सिद्धांत की प्रासंगिकता पर बहस उन पाकिस्तानियों के लिए छोड़ देनी चाहिए जो इस कटु सत्य को कभी नहीं भुला सकते।
(हुसैन हक्कानी की किताब भारत vs पाकिस्तान: हम क्यों दोस्त नहीं हो सकते?का एक अंश इसके प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)
[i]आलोक देशपांडे, ‘गुलाम अली कन्सर्ट काल्ड ऑफ आफ्टर शिवसेना थ्रेट्स’,दि हिंदू, 8 अक्टूबर 2015।