महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी अमन आकाश का यह लेख बहुत बढ़िया है. किन्नर सम्माज पर पूरी संवेदना के साथ- मॉडरेटर
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किन्नर : किम् नर?
हमारी बिरादरी में अगर किसी ने गुरु से बदतमीजी की तो उसके सर पर सिक्का दागकर उसे समाज से बाहर कर दिया जाता है..”
बातचीत के दौरान अपनी ज़िन्दगी के कुछ अनछुए पहलुओं को उजागर कर रहे थे “सत्यम किन्नर”.. पटना रंगमंच में मच्छिन्द्र मोरे रचित किन्नरों की ज़िन्दगी पर आधारित नाटक “जानेमन” करते हुए मुझे इस उपेक्षित समुदाय के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला. रस्मी उद्घाटन के लिए निर्देशक महोदय ने पटना के ही “ललन किन्नर” को बुलाया. नाटक के कई दृश्यों पर आपत्ति जताते हुए ललन किन्नर अंत में बुरी तरह नाराज़ हो गयी. उसका कहना था कि इसमें कई चीजें गलत दिखाई गयी हैं और इन “रस्मों” का रिवाज उनकी बिरादरी में नहीं है. एक जगह एक स्त्रैण स्वभाव वाले लड़के का “लिंगविशेष” काटकर उसे किन्नर समुदाय में शामिल करने वाला दृश्य ही ललन किन्नर के गुस्से का कारण था.
बात आयी-गयी हो गई लेकिन मेरे मन में अभी भी इस समुदाय को लेकर काफी प्रश्न थे, काफी शंकाएं थीं और इसका निदान अत्यंत आवश्यक था..
हमारी खुशियों में “आए-हाए” की चिरपरिचित आवाज़ और अपनी शैलीविशेष में बजाए गए बुलंद करतल ध्वनि के साथ शामिल होने वाले इन “किन्नरों” की ज़िन्दगी किस कदर अंधेरों में घिरी है, मुझे उस नाटक के दौरान ही अहसास हुआ. दिल्ली आने के बाद भी कई तरह के सवाल मेरे मन में चलते रहे और जवाब की तलाश ने मुझे यमुनापार “शास्त्री पार्क” पहुंचाया. विभिन्न सूत्रों से पता चला कि इधर कुछ किन्नरों का स्थायी घर है. मैं पहुँचा शास्त्री पार्क. गन्दगी से भरा इलाका, सीवर के पानी की बदबू, कूड़े का ढेर और लगे हाथ एक धारदार हथियार लिए मांस काटता कसाई. भिनभिनाती हुई मक्खियों की झुण्ड ने मन विचलित कर दिया. उसके हाथ में वो धारदार हथियार देखकर मेरा दिल बिलकुल भी गवाही नहीं दे रहा था कि उससे जाके पूछूं “भईया, इधर हिजड़े रहते हैं क्या?”
ख़ैर, पूछते-टोकते मैं किसी तरह वहाँ की गुरु “सावित्री मौसी” के घर पहुँचने में सफल हो गया. वहां तक पहुंचाने वाले को धन्यवाद देने के लिए ज्यों मैं पीछे घूमा तो उसे गायब पाया. किन्नरों के प्रति समाज के नजरिए की एक झलक मुझे यहीं मिल गयी. अब तो सावित्री मौसी से मिलने की मेरी इच्छा और बलवती हो गयी. बेल बजाकर मैं फ्लैट में गया, हालांकि मेरे अन्दर एक अजीब तरह का डर समाया हुआ था, लेकिन सावित्री मौसी ने अपने व्यवहार से मेरे सारे डर को निर्मूल साबित कर दिया. दीपावली का समय था, वो काफी व्यस्त थी. घर वाकई असबाबों से भरा था. तरह-तरह की क्राकरी, वाल पेंटिंग्स, कई तरह की दीवाल-घड़ी, एसी-फ़्रिज यानी भौतिक सुख-सुविधा के सारे साधन वहां मौजूद थे.
बातचीत के दौरान सावित्री मौसी ने बताया कि वो उत्तर-प्रदेश की रहने वाली हैं. बचपन से ही उनका स्वभाव स्त्रैण था, घरवाले इसको बिलकुल पसंद नहीं करते. लोग-बाग़ भी बात-बेबात “अबे छक्के” कहकर संबोधित कर देते. कोई उन्हें अपने साथ खेलने नहीं देता. उनको बहुत बुरा लगता. आगे उन्हीं की जुबानी….
“एक दिन दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ी में बैठ गयी और भाग के दिल्ली आ गयी. यहाँ आके दरियागंज की पन्ना नायक का छाँव मिला और वहीं रहकर नाचना-गाना और पैसे माँगने के कई गुर सीखे. बहुत बुरा लगता जब सड़क पर चलते लोग फब्तियां कसते और अश्लील इशारे करते. तुम लोग अपने को मरद कहते हो?”
उसका आरोप सम्पूर्ण मर्दजाति पर ऊंगली खड़ी कर रही थी. सच पूछिए तो मुझे बड़ी ग्लानि हुई. ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने शीशा पिघलाकर मेरे कानों में उड़ेल दिया हो!
आगे रोजी-रोटी के बारे में पूछने पर उसने बताया कि “हमारा असली धंधा तो बधाई गाकर पैसे कमाना है लेकिन अब हमें बुलाता कौन है! लोग अब डीजे बुलाने लगे हैं. मजबूरन कई किन्नरों ने माँगने और वेश्यावृत्ति को अपना धंधा बना लिया है.”
सरकार द्वारा रोजगार देने की बात पूछी तो फिर उसने अपने ख़ास अंदाज में तालियाँ बजाते हुए कहा “अरे पहले तुम जईसे बेरोजगार बइठे मरद को तो सरकार नौकरी दे. हमकू नै मांगता सरकार की नौकरी, हम अपनी ज़िन्दगी से खुश है.”
सिस्टम के प्रति उसका गुस्सा जाएज था. तमाम आरक्षण देने के बाद भी सरकार इस बिरादरी को मुख्यधारा में जोड़ने में असफल रही है.
आगे ये पूछने पर कि लोगों का “लिंगविशेष” काटकर भी हिजड़ा बनाया जा सकता है, उसने थोड़ा गुस्सा दिखाकर कहा,” कईसी बात करता तू लौंडे, सब अपनी मरजी से बनते. हम किसी को जबरदस्ती नहीं बनाते.”शादी के बारे में जब उससे पूछा तो उसके चेहरे पर घोर निराशा के भाव उमड़ आए, बड़ी चतुराई से इसे छिपाते हुए उसने कहा “कौन करेगा हमसे शादी! बोल तू करेगा चिकने?” अब तो मैं वाकई डर गया..
बातचीत के दौरान पता चला कि उसने एक बेटी भी गोद ले रखी है और वो बगल के ही किसी स्कूल में पढ़ती है.
“भ्रूण हत्या”, “ऑनर किलिंग” जैसी कुप्रथावादी मरदों वाले इस समाज से बेहतर तो हिजड़ों का समाज है. शारीरिक रूप से अक्षम होने के बाद भी उनके पहलू में दिल है. सम्पूर्ण नारी ना होने के बाद भी बेटियों के प्रति उनमें ममता है.इसी दरम्यान उसने अपने कई रस्मों और अपनी कुलदेवी “मुरगे वाली माता” के बारे में भी बताया. हालांकि घरेलू व्यस्तता के कारण वो ज्यादा जानकारी नहीं दे पायी और कुछ जानकारियाँ समेटे मैं घर लौट आया. इस पर मैंने एक रिपोर्ट भी बनायी.
25 सितम्बर 2015 की शाम एन.एस.डी. के सम्मुख सभागार में कला-मंच, दिल्ली की प्रस्तुति “खुशियाँ और अफ़साने” के दौरान एक बार फिर किन्नरों की ज़िन्दगी के दर्द का सामना हुआ और सावित्री मौसी से मुलाक़ात की यादें ताजा हो गयी.. प्रस्तुति की समाप्ति
के बाद कलाकार “सत्यम सक्सेना” से मिलने गया. सत्यम ने भी कई बातें बतायी. नाटक के एक दृश्य में किन्नर लोग मज़ार पर चादर चढ़ा रहे थे. इस बाबत पूछने पर सत्यम ने बताया कि “हमलोग अल्लाह-ईश्वर सब को मानते लेकिन हिन्दू धर्म में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों ने हमारा मन खिन्न कर दिया है. इसलिए हम मलंग बाबा से मनौतियाँ माँगते और उनको चादर चढ़ाते.”
सत्यम के इस आरोप को भी नकारा नहीं जा सकता.
एक सवाल जो मेरे मन में हमेशा से उमड़-घुमड़ रहा था कि “मरने के बाद किन्नरों का किस विधि से संस्कार किया जाता है?” इस पर सत्यम ने बताया कि “हिन्दू धर्म वाले को जलाया जाता और इस्लाम वालों को दफनाया जाता. चूंकि यह काम रात के गहन अँधेरे में बड़े गोपनीय तरीके से होता है इसलिए किसी को पता नहीं चलता.”
“क्या सचमुच किन्नरों को मरने के बाद चप्पलों से मारा जाता है?” ये पूछने पर सत्यम निराश हो गया. फिर उसने बताया “हाँ, ये हमारी बड़ी पुरानी परम्परा है. किन्नरों को मरने के बाद उसकी गुरु उसे चप्पलों से ये कहते हुए मारती है कि इस जनम में तो तू हिजड़ा बनी लेकिन अगले जनम में मत बनना. लेकिन वक्त के साथ इस परंपरा में भी काफी बदलाव आया है. अब सिर्फ चप्पल से उसके सर और पाँव को छुआ दिया जाता है.”
इसके बाद सत्यम अपना मेकअप उतारने चला गया. बातचीत के दौरान पता चला कि वो महात्मा गांधी विश्वविद्यालय से स्नातक अंतिम वर्ष का छात्र है और साथ-साथ कला मंडली से जुड़कर कथकली नृत्य का प्रशिक्षण ले रहा है..
गौरतलब है कि ट्रांसजेंडर्स यानी किन्नरों को सरकार ने वोटिंग से लेकर सारे अधिकार दिए हैं लेकिन हमारे समाज की मानसिकता के कारण ही वो उपेक्षित हैं तथा हम उनके प्रति हीनभावना से ग्रसित हैं..
बताते चलें कि भोपाल के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी पुलिस सुपरिटेंडेंट की बेटी “शबनम मौसी” संसद में बतौर सांसद अपनी तालियों की गूँज फैला चुकी हैं.. इस बिरादरी को अब भी अपने उद्धारक की तलाश है..
– अमन आकाश
एम.ए. (मास कम्युनिकेशन)
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)
शबनम मौसी सांसद नहीं बल्कि मध्यप्रदेश विधान सभा में विधायक थीं .