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सुश्री श्री(पूनम अरोड़ा) की कुछ नई कविताएँ

हाल के दिनों में जिस कवयित्री की कविताएँ पढ़कर यह आश्वस्ति मिलती है कि हिंदी में मेटाफिजिकल कविताएँ लिखना अभी भी संभव है वह श्री श्री(पूनम अरोड़ा) हैं. बेतरतीब वर्णनों वाली कविताओं की अंधाधुंध बारिश के बीच उनकी कविताएँ सुकून देती हैं. हालाँकि यह मेरा अपना मत है. इस रविवार को ‘मुक्तांगन’ में युवा कविता के आयोजन में एक कवयित्री वह भी हैं. उनकी कविताओं को आप यहाँ पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर

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1.

लड़कियों ने तालीम ली संकेत समझने की

सबसे पहले उन्होंने पिता की लाल धागों भरी आँखों के संकेत सीखे

उफ़
कितने कसैले थे यह
जैसे कच्ची हल्दी का रंग जबान पर देर तक रह जाता है
और एक मनहूसियत काली बिल्ली की शक्ल में
संतान की जचगी के समय दाई का सबसे बड़ा डर होती है

यहाँ धर्म अभी बना नहीं लड़कियों की छातियों में
न यौनांगों की कसावट ने काव्य लिखा मधुर निशाओं का
चमगादड़ लड़कियों के किलों पर ऐसे कब्ज़ा कर लेने के कांटे बनाते
जैसे पोखर में सिंघाड़े का जाल निगल जाता है उसका अस्तित्व

ईश्वर अपने घनत्व में निर्भीक पलता रहता है लड़कियों के निर्दोष हृदय में.
लोरियाँ दूषित हो कर माँओं के रूखे-सूखे गलों में
बुझती आग की ठंडी लौ समान एक पतली लकीर बन जाती हैं.
चातक पक्षी की तरह आसमान की ओर निहारती
स्वाति बूँद की प्यास धारण किये

संकेत
अपने शैशवकाल से निकल
पूर्णिमा के चंद्रमा में आधे खिले नर्गिस के फूल बन जाते हैं
भीतर से बन्द दरवाज़े ठोकर मार कर खुलवाये जाते हैं

देह के सातों आसमान में छेद कर
ईश्वर कस्तूरी की स्थापना में खो जाता है

धीमे चक्रव्यूह में
अनाज पीसने की क्रिया का आंनद लेते हैं सफेद लिबास पहने कुटुंब के मुखिया

यह तब का समय होता है
जब पिता के संकेतों से सहमी लडकियां
खिड़की पर बैठ कर
किसी चेहरे से उलझ जाती हैं
और अपने गर्भ में सर्वप्रथम अदृश्य संतान की आहट सुनती हैं

धूप की नमी देह में आग भरने लगती है
और रक्त में उबाल के तस्सवुर
भवंर की मानिंद
मध्यरात्रि में प्रथम स्पर्श के दोष का एक स्वप्न बन
सर्प की केंचुली उतार अपने नये रूप में
उजली और नग्न नज़र आने लगती है

दोपहर के उनींदे आलस में समंदर का मौन अपनी जीभ के अग्र भाग पर रख
लड़कियां जल की क्रीड़ा में
अपनी सखियों की देह में अलसाने लगती हैं

संकेत
धुंआ बन रिसने लगते हैं
प्रतिबिम्बों से
नैतिकता की आरामगाह से
सिद्धांतो के गणित से

तब अपनी विरासतें त्याग देती हैं लड़कियाँ
वे लड़कियां कभी नहीं कहलाती उच्च कुल की
उच्च आदर्शों की.
लेकिन उनकी मुस्कुराहट बहुत हसीन होती है वो नृत्य की किसी भी मुद्रा में
किसी भी भंगिमा में रह सकती हैं अदब से

समझ सकती हैं अपने संकेतों की भाषा

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2.

पिछली रात वही कम उम्र ऊँट मार दिया गया
जिसके जीवित रहते
कोई उसकी घुंघरू जैसी कोमल आवाज़ कभी नहीं सुन पाया

वह बख्शा गया था
उन नारों की दहकती अग्नि से
जिसकी रेतीली सराहना रोशनीहीन थी

जो ज़बानें उसके कंद समान मांस को
अपनी एन्द्रिक तन्द्रा में
चख पाने का रिवाज़ खोज रही थीं
वह एक सहज आनंद तो कभी नहीं था

वहाँ औरतों के झुंड में
अपनी पीढ़ियों पुरानी चक्की के पास
सबसे पीछे खड़ी मैं रो रही थी

इसलिए नहीं कि अब एक उत्सव होगा आनंद का.
इसलिए भी नहीं
कि जब खुरदरी लकड़ियाँ स्वाहा होकर
अपना अस्तित्व त्याग रही होंगी
तो लोग उसके चारों तरफ मादक नृत्य कर रहे होंगे
मेजों पर नए काढ़े गये मेजपोश बिछेंगें
और जौ की शराब व्यंजनों के साथ परोसी जायेगी

बल्कि इसलिए क्योंकि बढ़ते प्रकाश में
किसी ने नहीं देखा था उस रोज़ उस मादा ऊंट को संसर्गरत होते

न किसी ने यह देखा
कि उसकी उष्ण देह के गर्भ में एक सितारा बिखर गया है

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3.

मेरा बचपन गले तक भरा है
रक्तिम विभाजन के जख्मों से
मैंने इतनी कहानियां सुनी हैं नानी से सात बरस की उम्र से
कि अब वो गदराए मृत लोग चुपचाप बैठे रहते हैं मेरी पीठ से पीठ टिकाकर

वो कहते हैं फुसफुसा कर
कि रक्त का हर थक्का जम गया था कच्ची सड़कों, चौराहों और सीमेंट की फूलदार झालरों के फर्श पर
जिसकी जात का फंदा टूटा था

हमारे ऊंट जिन पर लदा था
मुल्तान के डेरा गाजी खां की हॉट को ले जाने वाला सामान
बढ़िया खजूर, मुन्नका और अखरोट
वे सब भी रक्त के मातम में भीड़ के पैरों तले कुचले जा रहे थे

एक नई दुल्हन थी ‘अर्शी’
जिसके खातिर अरब से पश्मीना मंगवाया था उसके दूल्हे ने
मेरे व्यापारी पुरखों से
कहता था इसे पहन कर
वो सर्दी में बिरयानी और गोश्त पकाएगी
सिंध नदी के पास के क़स्बे से आये उसके व्यापारी मित्रों के लिए
सुबह माँ को सावी चाय देने जाते हुए
इसी शहतूती रंग के पश्मीना से सर को ढकेगी
और रात में इसी का पर्दा हटाएगी अपनी भरी छातियों पर से

इन कहानियों को बरसों बीत गए
और मैं कविताएं लिखते हुए
कभी-कभी हल्का दबाव महसूस करती हूँ अपनी पीठ पर
सूरज रोज़ एक तंज करता है
कि मैंने कितनी कहानियां और अपने पुरखों की पीली आँखे भुला दी

मैं सोचती हूँ
क्या सच में ऐसा हुआ है

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4.

स्मृतियों का एक पूरा जंगल उग आया है मुझमे

एकदम ताज़ा

और उतनी ही हलचल भरा
जितना कोई निराश प्रेमी हो सकता है
अपने एकांत के क्षणों में

जितने मूर्त हो सकते हैं परजीवी मृत त्वचा पर
और जितने अमूर्त हो सकते हैं वैलेंटाइन्स डे के हमारे प्रगाढ़ चुम्बन

एक आदमकद आईने में एक बार खुद को देखा था बहुत ग़ौर से
देखते-देखते मालूम हुआ कि मुझमें सीढियां हैं बहुत से दुखों की
जिनके दैत्य मुझे न कोई सांत्वना देते हैं
न चांदनी की शीतल चाशनी

इसलिए मैं डूबती जाती हूँ
अपनी उत्तेजना के कवच में

ठंडी होती जाती हूं
बर्फ का फूल की तरह

मेरे जिस्म पर उगी आँख भी
स्वप्न में खून बहाती है
और वो जम जाता है मेरी गर्म मुट्ठियों में

मेरा स्वप्ननायक मार्क्स की विचारधारा में औंधे मुँह गिर कर लहूलुहान है
किसी प्राचीन लड़ाई का अंत वह टुकड़ों में करना चाहता है
बुद्धम शरणम गच्छामि के खंडरों में भटकते हुए

एक पल रुक कर मैं देखती हूँ
उसी आदमकद आईने में
जब लॉन्ग वॉक हॉक स्ट्रीट पर पहली बार
अचानक और बेपरवाह हुए
मेरी सहमी पीठ पर
तुम्हारे हाथों की कंपन ने मेरी आत्मा को बेतरतीब किया था

उस कंपन की आँखें अभी तक नहीं झपकी हैं

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5.

हम पेशेवर हो जाना चाहते हैं
औलादों को चुन कर कोख में रखने के

मगर भूल जाना चाहते हैं
गर्भ की पराकाष्ठा को
लिथड़ देना चाहते हैं
अपने किसी पूर्वज की आत्मा को
बहा कर उसका गर्म नया खून

हमारी प्रजाति सक्षम है
हथियारों को धार देने में,लहू की छींटे साफ़ करने में
हमारी प्रजाति का आतंक एक विद्रूप बन
कुँवारी लड़कियों की छाती पर
पत्थर बन बैठा है

वो भागती हैं
नदियां,सागर और हवा के रास्ते
भूल जाना चाहती हैं
अपने शहर और प्रेमियों को

भूल जाना चाहती हैं
अपनी किताबें,बालकनी और प्रिय कॉफ़ी मग को

वो धाराशायी हैं
अपने ही प्रेम के हलफनामों से
वो रोटी सेंकना चाहती हैं
पुराने अनुबंधों की आग पर

सोंख लेना चाहती हैं सारी सिसकियाँ

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6.

हाँ,होता है एक सलीका भी भूलने-भुलाने का
कि कोई चश्मदीद गवाह न पढ़ ले
मन की उलझी गुत्थियाँ।

कोई पशु न सूंघ ले
गलती हुई ग्लानि।

कोई पंछी न चुरा ले मन के गीत।

याद रहे,उन रास्तों पर से
फिर गुज़रना होगा तुम्हें।
उस आखिरी मुलाक़ात में आई करुणा को
किसी पौधे के साथ गाड़ कर
उससे वही झूठ कहना
जिससे प्रेम की तरावट मिलती रहे उसे।

और वो फलता-फूलता रहे।
तब तुम भूलने के मौसम की प्रतीक्षा करना
प्रतीक्षा करना उस इंद्रधनुष की
जिसका ज़िस्म बना हो उस तपिश का
जिससे बच्चे जन्में जाते हैं।

फिर तुम अचानक ऐलान भर देना माहौल में
कि तुम्हें चीटियां काटती हैं
पैरों की उंगलियों की दरारों के बीच।
दीवारें गिरने के भरम में तुम सो नहीं पाते
एक कामयाब रति-क्रीड़ा के बाद भी।
और कहना
कि मृत मवेशी की दुर्घन्ध
तुम्हें माँ की छातियों की गंध देती है।

और जैसे ही तुम ये कह कर
चौखट पार करोगे अपनी।
‘आर वी एन एक्सीडेंट ऑन द अर्थ’ की थ्योरी
तुम पर लागू हो जायेगी।

क्या अब तुम तैयार हो
दुनिया के सबसे बड़े व्यंग्य के लिए?

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8.

मैत्रेय

तुम अपनी स्फुट परिस्थितयों के साथ आना
मेरी सभ्यता का अंश प्रकाशित हो चुका है
तुम्हारे वास्तविक एकाकीपन में
मैंने रोशनी की एक लकीर देखी है

तुम्हारे पाँव
मेरी बोली समझते हैं

 
      

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3 comments

  1. प्रभात रंजन जी
    पूनम अरोरा से परिचय कराने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद्। इनकी कवितायेँ अच्छी या बुरी होने से ऊपर हैं। दिल और दिमाग को झटका लगता है।
    फिर से धन्यवाद्।

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