मैत्रेयी पुष्पा की किताब आई है ‘वह सफ़र था कि मुकाम था’. किताब का विषय राजेंद्र यादव जी के साथ उनकी मैत्री है. इस पुस्तक पर यह टिप्पणी लिखी है साधना अग्रवाल ने- मॉडरेटर
=================================
कभी हिंदी के लेखक आत्मकथा लिखने में संकोच करते थे लेकिन आज आत्मकथा लिखना फैशन हो गया है। जो लेखक अपने जीवन में कोई सार्थक लेखन तक नहीं कर पाते, वे भी अपनी आत्मकथा लिखकर अपने होने की सार्थकता प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं। यह बात अलग है वैसी आत्मकथा पाठकों की दृष्टि में हास्यास्पद बनकर रह जाती है। इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि एक तरफ वैसी आत्मकथा आत्ममुग्धता की ओर झुकी होती है, दूसरी तरफ प्रेम संबंधी अफवाहों के खंडन का प्रयास झूठा लगता है। हम भूल गए कि प्रेमचंद ने 1932 ई0 में अपने द्वारा संपादित ‘हंस’ का आत्मकथा अंक निकाला था तो उसमें बहुत संक्षेप में प्रसाद जी ने कविता में अपनी आत्मकथा लिखी थी। आ0 रामचंद्र शुक्ल ने ‘प्रेमघन की छाया स्मृति’ और आ0 शिवपूजन सहाय ने ‘मतवाला कैसे निकला ?’ लिखा। पत्रिका के बिल्कुल अंत में बहुत संक्षेप में प्रेमचंद ने अपनी आत्मकथा ‘जीवन सार’ शीर्षक से लिखी। वैसे तो बाद में भी हिंदी में आत्मकथा/जीवनी लिखी गईं जैसे पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ द्वारा लिखित ‘अपनी खबर’ और अमृत राय द्वारा लिखित ‘प्रेमचंद: कलम का सिपाही’ और डा0 रामविलास शर्मा द्वारा लिखित निराला की साहित्य साधना (प्रथम खंड जीवनी) हैं। बाद में बच्चन ने चार खंडों में अपनी आत्मकथा लिखी जो न केवल अपने अच्छे गद्य के लिए बल्कि अपने प्रति निर्ममता के लिए भी पर्याप्त चर्चित रहीं।
आत्मकथा और संस्मरण में ज्यादा फर्क नहीं है। कभी आत्मकथा संस्मरणात्मक हो जाती है तो कभी संस्मरण आत्मकथात्मक। यह सहज स्वाभाविक है क्योंकि दोनों के बीच में खुद लेखक होता है। इधर प्रकाशित आत्मकथाओं की बाढ़ आ गई है लगता है लेखकों के बीच प्रतिस्पर्धा चल रही हो। बिना सेक्स की छौंक के उनकी दृष्टि में आत्मकथा बेजान हो जाती है। इसका उदाहरण राजेन्द्र यादव की आत्मकथा ‘मुड़ मुड़के देखता हूं’ और लेखिकाओं में कृष्णा अग्निहोत्री, मैत्रेयी पुष्पा, रमणिका गुप्त आदि की आत्मकथाएं देखी जा सकती हैं। आत्मकथा लिखने से राजेन्द्र यादव का मन ठीक से नहीं भरा तो उन्होंने बहुत बाद में कहना चाहिए अपनी जिन्दगी के बिल्कुल उत्तरार्द्ध में क्षेपक के तौर पर ज्योति कुमारी को बताए ‘स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार’। ठीक उन्हीं के चरण चिह्नों पर चलते हुए मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा की दो पुस्तकें— ‘कस्तूरी कुडल बसै’ और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ आईं और अब आत्मकथा का पुनश्च: जैसी पुस्तक ‘मेरी नजर में राजेन्द्र यादव:वह सफर था कि मुकाम था’ आई है जिसके केन्द्र में यदि एक ओर प्रेम संबंधी अफवाहों के खंडन करने का प्रयास है तो दूसरी तरफ अपने दुश्मनों को ठिकाने लगाने की कोशिश है।
इस पुस्तक के 7 अध्यायों में पहला है ‘सेव/डिलीट/ राजेन्द्र यादव’ जो वस्तुत: संस्मरणात्मक है। बात हंसी—मजाक की ही नहीं चुहलबाजी की भी है। मैत्रेयी पुष्पा गीत की एक पंक्ति ”कैद में है बुलबुल सैयाद मुस्कराए” सुनाती हैं तो राजेन्द्र यादव पलटकर कहते हैं—’अरे! यह बुलबुल कहां से आ मरी, साहित्य की फूलन देवी के पास?’ इसमें ‘हंस’ में मैत्रेयी पुष्पा के छपने का भी प्रसंग है और उनके कहानी—संग्रह ‘गोमा हंसती है’ पर राजेन्द्र यादव की प्रशस्ति भी। अगले अध्याय में राजेन्द्र यादव के साथ दतिया की राष्ट्रीय संगोष्ठी में जाने के लिए ट्रेन यात्रा का प्रसंग है। इस रेल यात्रा में डा0 निर्मला जैन भी साथ थीं। इस गोष्ठी में मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘इदन्नमम’की चर्चा ही नहीं हुई बल्कि वक्ताओं ने मैत्रेयी पुष्पा के लेखन की तारीफ करते हुए रेणु से उनकी तुलना तक कर दी। फिर राजेन्द्र जी कहते हैं, ‘मिटृी—पत्थर के ढोकों या उलझी हुई डालियों और खुरदरी छाल के आसपास की सावधान छंटाई करके सजीव आकृतियां उकेर लेने की अद्भभुत निगाह है मैत्रेयी के पास—लगभग ‘रेणु’ की याद दिलाती हुई। गहरी संवेदना और भावात्मक लगाव से लिखी गई यह कहानी बदलते उभरते ‘अंचल’ की यातनाओं, हार—जीतों की एक निर्व्याज गवाही है पठनीय और रोचक।’इसी अध्याय में बिहार की कटिहार यात्रा और संगोष्ठी का भी प्रसंग है।
‘सफर था, आवारगी नहीं’ पुस्तक के अगले अध्याय में जम्मू की यात्रा का प्रसंग है राजेन्द्र यादव के साथ। जहां जम्मू प्रवास के दौरान भारत भारद्वाज के प्रयास से एक गोष्ठी आयोजित की गई थी जिसमें राजेन्द्र यादव और मैत्रेयी पुष्पा आमंत्रित थे। लिखती हैं—’मुझे नहीं पता कि राजेन्द्र जी के साथ रहते हुए औरों के अनुभव क्या रहे लेकिन अपने बारे में तो यह दावे के साथ कह सकती हूं कि वैचारिक मतों पर घनघोर असहमति होने पर भी इस परिवार विरोधी, पत्नी को सताने वाले और बेटी का ख्याल न रखने वाले (एक कहानी यह भी) इस शख्स को मैंने अपना राजदार नि:संकोच बनाया। बेझिझक अपनी पारिवारिक बातें बताईं। सुना यह भी कि वे पति—पत्नी में दरार डलवा देते हैं लेकिन जब—जब वे मेरे और डा0 साहब (पति) के बीच आए, पुल बनकर उपस्थित हुए। डा0 साहब के विरुद्ध भूल से भी कभी एक शब्द नहीं कहा। डा0 साहब भी मेरे लेखन से नाराज होकर राजेन्द्र जी के पीठ पीछे उनकी तस्वीर भले तोड़ते रहे, लेकिन राजेन्द्र जी के सम्मान में रत्ती—भर भी कमी देखने में नहीं आई।’आगे लिखती हैं, ‘जम्मू यात्रा पर थे हम। राजेन्द्र जी के मित्र श्री भारत भारद्वाज ने हमें बुलाया था। वे जम्मू में एक महत्वपूर्ण साहित्यिक गोष्ठी की योजना बना चुके थे। भारत जी ने जम्मू में साहित्य का दायरा इस कदर बढ़ा दिया था कि कोई भी गर्व करे।’जम्मू की यह गोष्ठी मैत्रेयी जी के लिए अनुपम यादगार के रूप में हमेशा के लिए दर्ज हो गई। जम्मू प्रवास में भी चाक की चर्चा ही नहीं हुई बल्कि राजेन्द्र जी ने यहां भी चाक की तारीफ में खूब कसीदे काढ़े।
मैत्रेयी जी राजेन्द्र जी के बारे में खुलकर लिखती हैं—’मैं इस नतीजे पर पहुंची कि राजेन्द्र यादव आदर योग्य व्यक्ति नहीं हैं, बस उन्हें प्यार किया जा सकता है।’ लेकिन राजेन्द्र जी उनसे अक्सर अपनी प्रेमिका मीता की चर्चा करते हैं, इस पर मैत्रेयी लिखती हैं—’ मगर यह प्रेम होता है, हम नहीं मानते क्योंकि जहां स्त्री—पुरुष को साथ रहकर सेक्स करने और बच्चा पैदा करने की सामाजिक अनुमति मिलती है, वहां प्यार की तड़प का क्या मतलब ? राजेन्द्र जी , सोचना तो यह भी लाजिमी है कि आप विवाह की ओर बढ़ लिए, लेकिन मोहब्बत की तलब से छुटकारा नहीं पा सके। मीता छूट गई लेकिन प्यार ने आपका पीछा नहीं छोड़ा क्योंकि वह आपकी अनुभूत भावना थी।’
इस पुस्तक में एक जगह लेखिकाओं की 3 आत्मकथाओं का भी उल्लेख है। जिसमें मैत्रेयी जी राजेन्द्र जी पर अपने विचार चुराने का आरोप लगाती हैं कि उनके व्यू को अपना बनाकर उन्होंने अपने संपादकीय में लिख दिया—’ मन्नू की आत्मकथा में एक पत्नी प्रेमिका होने के लिए जद्दोजहद करती दिखाई देती है तो प्रभा खेतान की आत्मकथा में एक प्रेमिका पत्नी होने के लिए तरसती है। मैत्रेयी को ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में ऐसा कोई अभाव नहीं सालता। वह पति के साथ रहते हुए दोस्तों को भी भरपूर जगह देती है। एक दिलचस्प प्रसंग है ‘राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी के पति, अपने गृहस्थ को खंड—खंड तोड़कर बेघर—बेदर होने वाले, परिवार संस्था के धुर विरोधी, मुझे ऐसे समझाते रहे जैसे कोई पिता या बड़ा भाई अपनी बेटी या बहन को गृहस्थी चलाए रखने की सलाह देता है। ”पर उपदेश कुसल बहुतेरे!” मैं रोई हुई सी आवाज में कहती। ”अरे यार मैत्रेयी,’ऐसी सुघड़, सुंदर पत्नी को कौन छोड़ेगा ?” कहकर जोर से हंस पड़ते राजेन्द्र जी।” इस चर्चा के क्रम में अनायास मुझे चित्रा मुद्गल की बात याद आ गई जब राजेन्द्र जी से पहली मुलाकात करने मैत्रेयी जी खूब सज—धज कर गईं थीं और उन्होंने सिर उठाकर उनकी ओर देखा तक नहीं वाला प्रसंग था जिस पर एक बड़ा विवाद हुआ था।
‘अनबन’ शीर्षक अध्याय में यदि एक तरफ ‘हंस’ की वार्षिक गोष्ठी जो प्रेमचंद के जन्मदिन 31 जुलाई को होती है, में 2010 को हुई गोष्ठी का जिक्र है जिसका विषय था ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति’, जिसमें आमत्रित थे—स्वामी अग्निवेश और छत्तीसगढ़ के आईजी विश्वरंजन और सहवक्ता थे आदित्य निगम,रामशरण जोशी, इरा झा। किसी कारणवश विश्वरंजन इस गोष्ठी में नहीं आ सके। मंच पर खाली कुर्सी को देखते राजेन्द्र जी की प्रत्युत्पन्नमति काम कर गई और उन्होंने भीड़ के बीच विभूति नारायण राय का नाम मंच पर आने के लिए उद्घोषित करा दिया। अग्निवेश के व्याख्यान से हॉल में उत्तेजना पहले ही से थी और उग्र होते हुए वातावरण में विभूति नारायण राय ने मंच से ही मौखिक एनकांउटर कर दिया।
दूसरा प्रसंग है ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित विभूति नारायण राय के साक्षात्कार में छिनाल शब्द के प्रयोग का। दरअसल 31 जुलाई 2010 को ही ज्ञानोदय के अगस्त अंक में प्रकाशित इंटरव्यू की चर्चा पहले ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी और दूसरे दिन 1 अगस्त रविवार को इस खबर को विस्तार से छापते हुए जनसत्ता ने ‘छिनाल’ शब्द के विरोध में तीन लेखिकाओं—कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और मैत्रेया पुष्पा की टिप्पणी प्रकाशित की। धीरे—धीरे इसने एक बड़े विवाद का रूप ही नहीं ले लिया बल्कि धरना—प्रदर्शन भी होने लगे। प्रिंट और विजुयल मीडिया दोनों के लिए यह बड़ी खबर बन गई। इस पूरे विवाद से मैत्रेयी पुष्पा को इस बात से धक्का लगा कि राजेन्द्र जी ने खुलकर मैत्रेयी पुष्पा का साथ नहीं दिया बल्कि धरना—प्रदर्शन में जाने से भी मैत्रेयी जी को रोका। यह बात मानव संसाधन मंत्री के पास ही नहीं, राष्ट्रपति तक पहुंच गई। राजेन्द्र जी के जिगरी दोस्त अजित कुमार ने अखबार के जरिए मैत्रेयी पुष्पा को यह कहकर सलाह दी कि—यह तो पुरुषों का स्त्रियों से ऐसा मजाक है जैसा जीजा का सालियों से होता है। दरअसल इस इंटरव्यू में विभूति जी ने किसी का नाम नहीं लिया था लेकिन मैत्रेयी पुष्पा ने इस शब्द को अपने लिए व्यवहृत समझ लिया। विभूति जी के मांफी मांगने के बाद यह विवाद खत्म हो गया लेकिन राजेन्द्र जी और मैत्रेयी पुष्पा के बीच एक मिसअंडरस्टैडिंग हो गई। लिखती हैं—’मुझे बार—बार अपना पुलिस ट्रेनिंग सेंटर मधुवन, करनाल में जाना याद आता रहा जिसको लेकर राजेन्द्र जी कहते, ”डाक्टरनी, अब वहीं जिओ,वहीं मरो। तुम्हारी कब्र वहीं बनेगी, विकास नारायण राय के साथ।”
राजेन्द्र जी के साथ अपने संबंधों को लेकर मैत्रेयी पुष्पा बार—बार सफाई देती हैं लेकिन यह तर्कसंगत नहीं लगता। इस पूरी पुस्तक में राजेन्द्र जी के हिस्से ज्यादातर प्रेम के किस्से हैं और बाकी जो बच गया उसमें मैत्रेयी पुष्पा की पुस्तकों की प्रशस्तियां। यह ठीक से पता नहीं चलता कि राजेन्द्र यादव की पुस्तक ‘स्वस्थ आदमी के बीमार विचारों की ज्यादा स्वीकारोक्ति हैं या मैत्रेयी पुष्पा की इस किताब में विचारों की विदाई के साथ प्रेम की भी विदाई है। वह राजेन्द्र यादव के साथ संबंधों की डगर पर चलते बच निकलने की कोशिश तो करती हैं लेकिन बार—बार फिसल जाती हैं।