कल जानकी जयंती मेरे शहर में दीवाली की तरह मनाई गई. पहले इतने आयोजन नहीं होते थे लेकिन इस बार खूब हुए. लेकिन कल सीता जयंती पर सबसे अच्छा यह पढ़ना लगा. राजीव कटारा जी ने लिखा है. वे ‘कादम्बिनी’ के संपादक हैं और अपने ढंग के अकेले लेखक हैं. जिन्होंने न पढ़ा हो उनके लिए- मॉडरेटर
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यह संयोग ही था। सालों पहले एक कॉलेज में था। महिला दिवस था और सीता सावित्री की धुनाई हो रही थी। एक वक्ता तो सीधे सीता पर ही निशाना साध रही थीं। हम आधुनिक औरतें हैं। हम कोई सीता नहीं हैं कि जहां चाहो हांक दो। वहां कुछ इस तरह की तसवीर बन रही थी कि आज की आम औरत तो सीता जैसी है। और खास औरत सीता जैसी नहीं होना चाहती। मैंने वहां क्या कहा? ये मायने नहीं रखता। लेकिन मुझे अफसोस हुआ था कि आखिर सीता को हमने क्या बना दिया है?
सीता या जानकी का नाम लेते ही मैं असहज क्यों होने लगता हूं? हमेशा ये कचोट क्यों होती है कि हम जानकी को ठीक से समझ नहीं पाए? न तब और न अब। कैसी छवि बना दी है हमने सीता की। मानो कोई निरीह सी गुड़िया हो। अपनी कोई पहचान नहीं, कोई शख्सीयत नहीं। मैथिलीशरण गुप्त की भारतीय नारी की परिभाषा जैसी यानी ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी…?’ लेकिन क्या यही कहानी है सीता की? सीता के जीवन में दुख तो हैं। लेकिन क्या उनका जीवन महज हाय-हाय है? क्या दुखों से कोई कमजोर हो जाता है? मुझे तो नहीं लगता कि सीता को दुखों ने कमजोर किया। बकौल अज्ञेय दुख हमें मांजता है। तब सीता को भी दुखों ने मांजा होगा। जरूर मांजा है, हम उसे देखने को तैयार नहीं हैं।
वह तो दुख को खुद चुन रही हैं। वही हैं, जो राम के साथ वन जाने की जिद करती हैं। आखिर वनवास तो राम को मिला था न। उन्हें वन जाने की क्या जरूरत थी? वह तो आराम से महलों में रह सकती थीं। उर्मिला ने भी कोई जिद नहीं की। उनके लक्ष्मण भी तो वन गए थे। सिर्फ सीता ही साथ जाने की जिद करती हैं। वह अपने राम के साथ रहना चाहती हैं। अपने पार्टनर के साथ कहीं भी जाने को तैयार हैं। अगर उनके राम को वनवास मिला है, तो वह भी वन जाएंगी। समूची रामायण में मांडवी, उर्मिला और श्रुतकीर्ति कुछ भी फैसले लेती नजर नहीं आतीं। मुखर हैं तो सिर्फ सीता।
आज हम आधुनिकता का कितना ही दावा करें। अपने फैसलों पर इतराएं। लेकिन बेहद कठिन समय में कितनी औरतें अपने पति के साथ या पति अपनी पार्टनर के साथ कहीं भी जाने को तैयार होते हैं। वह भी एक ऐसी औरत जिसका जीवन ही महलों में बीता हो। राम उन्हें कितना मनाते हैं, समझाते हैं। वनों की भयावहता दिखाते हैं। 14 साल का वास्ता देते हैं। लेकिन वह कहां मानती हैं? हर हाल में अपने पति के साथ रहने की जिद क्या मामूली घटना है? आज भी आमतौर पर परेशानी के समय अपने ही घर में सुरक्षित महसूस करने वाली लड़कियों से कितनी अलग हैं सीता।
हमने क्या कर दिया सीता का? हम तो उन्हें राम से पहले याद करते थे। ‘सियाराम मय सब जग जानी।’ बाद में कैसे सीता-सावित्री इमेज में ढाल दिया गया। मुझे तो दोनों ही निगेटिव नहीं लगतीं। ठेठ फेमिनिस्ट पैमाने पर भी नहीं। दोनों ही अपने फैसले लेती हैं। सब कुछ मान लेने वाली नहीं हैं वे। सीता ने कहां सब कुछ माना? अगर वह मान लेतीं, तो वन ही नहीं जातीं। इस सिलसिले में एक प्रसंग तो देखिए। अशोक वाटिका में हनुमान मां जानकी से कहते हैं कि आपको बिठाकर राम के पास ले चलता हूं। लेकिन जानकी तैयार नहीं होतीं। वह गलत तौरतरीकों से आई थीं, लेकिन गलत ढंग से वापसी नहीं चाहती थीं। एक मर्यादा के तहत ही वह अपने राम के पास जाना चाहती थीं। उनके राम जब लंका को जीतते हैं, तभी वह वापस जाती हैं। उस वापसी में भी क्या-क्या नहीं झेलतीं। जरा सीता का अंत तो याद कीजिए। सीता को वनवास मिलता है। एक दौर बीत जाने के बाद राम उन्हें लेने जाते हैं। तब सीता लौटती नहीं। अपने राम के पास भी नहीं। एक तरफ सीता का वह रूप जहां वह अपने राम के साथ कहीं भी जाने को तैयार हैं, लेकिन बाद में राम के पास लौटना भी नहीं चाहतीं। धरती में समा जाती हैं वह। कितनी स्वाभिमानी हैं सीता!
सीता होना क्या इतना आसान है? हम अपने मिथकों को ठीक से क्यों नहीं समझते?
सीता पर थोड़ा सा रहम कीजिए। उन पर अलग ढंग से सोचविचार कीजिए
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