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अंग्रेजी एक क्लास है जबकि हिंदी मीडियम

‘हिंदी मीडियम’ फिल्म की ख़ूब तारीफ हो रही है. अपने सब्जेक्ट और अभिनय दोनों ही कारण से. इस फिल्म पर एक विस्तृत लेख निवेदिता सिंह ने लिखा है- मॉडरेटर

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“इस देश में अंग्रेजी ज़बान नहीं है, क्लास है” शुक्रवार को रिलीज हुई हिंदी फिल्म “हिंदी मीडियम”का एक डॉयलाग भर नहीं है बल्कि बहुत सारे हिंदी मीडियम से पढ़े हुए लोगों खासकर उस माँ बाप की दुखती रग है जो अपने बच्चों का दाखिला शहर के टॉप इंग्लिश मीडियम में कराना चाहते हैं। हालांकि हर माता पिता अपने बच्चों के लिए अपने से बेहतर भविष्य की कल्पना करता है और शिक्षा उस सुनहरे भविष्य तक पहुंचाने वाली पहली सीढ़ी है।

हमारे देश के सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था का जो हाल है वह किसी से छुपा नहीं है अब ले देकर सारी उम्मीद बचती है महंगे, प्रतिष्ठित और प्राइवेट स्कूलों से पर ऐसे स्कूलों में एडमिशन तक पहुंचने का रास्ता दो भागों में बंट गया है एक है हिंदी मीडियम और दूसरा है अंग्रेजी मीडियम। हमारा देश सच में बहुत महान है यह महानता की झलक हमारी शिक्षा व्यवस्था में भी देखने को मिलती है। देश को अंग्रेजों से आजादी दिलाने के सत्तर सालों के बाद भी यहाँ के लोग अंग्रेजी से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं। जिस तरह शराब जितनी पुरानी होती है असर उतनी ज्यादा करती है उसी तरह यहाँ के लोगों के दिल में अंग्रेजी कर प्रति मोहब्बत दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। इसी बात का फायदा उठाते हैं अंग्रेजी स्कूलों के प्रबंधक, प्रिन्सिपल और कुकुरमुत्ते की तरह उग आए ट्रेनिंग सेंटर। बच्चों को तो नर्सरी में दाखिले से सालों पहले डेढ़-दो साल की उम्र में ही प्ले स्कूल में डाल दिया जाता है जहाँ से बच्चा तोता बनकर निकलता है। मुझे तो लगता है कि आजकल के बच्चे सु-सु, पॉटी बताना बाद में सीखते हैं पर ‘ए फ़ॉर एप्पल’ पहले। बच्चे की ट्रेनिंग तो प्ले स्कूल ने करवा दी पर उस माँ बाप का क्या जिसका इससे पहले अंग्रेजी स्कूल की दीवारों से भी कोई वास्ता न पड़ा हो। माता पिता की इसी सहूलियत के लिए ऐसे ट्रेनिग सेंटर खुलने लगे हैं जहाँ बच्चों से ज्यादा उन्हें सीखना पड़ता है। अब बिचारे करें भी तो क्या करें बच्चों का एडमिशन कोई बच्चों का खेल तो है नहीं कि जो चाहे खेल ले। अब ये अलग बात है कि हम हिंदी मीडियम वालों के ये अंग्रेजी चोंचले समझ नहीं आते हैं। भला ये ट्रेनिंग सेंटर वाले 10 से 15 दिन में माता पिता को कौन सी घुट्टी पिला देंगे कि उनके द्वारा तीस सालों में सहज ढंग से सीखा हुआ हाव-भाव, भाषा, जबान सब बदल जाएगी और वे इनटरव्यू में पास होकर अपने बच्चों का दाखिला अंग्रेजी स्कूल में कराने में कामयाब हो जाएंगे।
अंग्रेजी और हिंदी में बंटी इसी शिक्षा व्यवस्था और हिंदी अंग्रेजी के भेदभाव के मुद्दे को बड़े ही दिलचस्प तरीके से साकेत चौधरी के निर्देशन में बनी फ़िल्म हिंदी मीडियम में उठाया गया है।  वैसे तो ज्यादातर समाजशास्त्रियों ने क्लास (वर्ग) की अवधारणा को आर्थिक और कुछ हद तक सामाजिक आधार पर व्यक्त किया है पर हमारे देश में एक और स्तर पर भी क्लास का बँटवारा हुआ है। एक है अंग्रेजी बोलने वाला बोले तो एलीट या कथित तौर पर शिक्षित और बुद्धिमान तो दूसरा है हिंदी बोलने वाला मतलब लोवर और मिडिल क्लास अब इनकी आर्थिक स्थिति कितनी मजबूत है और वो कितने पढ़े लिखे हैं इसका ज्यादा मतलब नहीं बचता। हिंदी उनकी क्लास की चुगली और उनकी जगह समाज में पहले ही तय कर चुकी होती है। हिंदी बोलने वालों का एलीट क्लास में दाखिला बड़ा मुश्किल होता है । ठीक यही हाल स्कूलों का भी है। अब एक फुल्ली अंग्रेजी मीडियम स्कूल में हिंदी मीडियम वाले लोअर और मिडिल क्लास के बच्चों को दाखिला आसानी से कैसे मिल सकता है। आप लोगों के मन में आर्थिक आधार यानी कि जिसके पास अधिक पैसा और प्रॉपर्टी होता है वो भी एलीट होता है उसका भी क्लास होता है वाली बात अभी भी चल रही है तो साफ कर देना जरूरी है। अरे भाई अब पान बेचने वालों के पास ज्यादा पैसा हो जाएगा तो क्या उसे अपने बच्चों को प्रतिष्ठित स्कूल में भेजने का लाइसेंस मिल जाएगा? नहीं न । वह अपने बच्चों से अंग्रेजी में बात कैसे करेगा भला।
अरे अब बहुत हो गया बात निकलती है तो दूर तलक चली जाती है इसलिए इनको रोकते है और वापस फ़िल्म पर आते हैं। हाँ तो फ़िल्म शुरू होती है पुरानी दिल्ली के चाँदनी चौक इलाके से जहाँ राज बत्रा (इरफान खान) का बड़ा सा कपड़ो का शोरूम है। वहाँ आपको फेमस ड्रेस डिजायनर की सेम टू सेम ड्रेस मिल जाएगी। राज की आमदनी भी अच्छी खासी है इसलिए वह खुद को दिल्ली का लोकल बिज़नस टायकून समझता है। वह अपने पुस्तैनी मकान में बीवी मीता (सबा क़मर) और पिया के साथ चैन की जिंदगी जी रहा होता है। उसके जीवन में भूचाल तब आता है जब बेटी पिया को दिल्ली के बेस्ट पांच स्कूलों में से किसी एक में दाखिला कराने का समय आता है जो कि देश की ज्यादातर मांओं का तरह मीता का भी सपना है। इस सपने को पूरा करने के लिए राज और मीता अपना घर बदलने से लेकर खुद को भी बदलने को तैयार हो जाते हैं। एडमिशन की लाइन में लगने से पहले ही वे चाँदनी चौक का घर छोड़कर दिल्ली के बसन्त विहार जैसे पॉश इलाके में शिफ्ट हो जाते हैं। राज मीता को अब तोते के नाम (मिठ्ठू) से न बुलाकर हनी बुलाना शुरू कर देता है। भंगड़ा की बजाय अंग्रेजी बीट पर कमर थिरकने लगती है और पिया से ज्यादा राज की ट्रेनिंग शुरू हो जाती है पर सब कुछ बेकार चला जाता है जब पिया का नाम किसी भी स्कूल की लिस्ट में नहीं आता जबकि राज की दुकान में काम करने वाले की बेटी का दाखिला उसी बड़े स्कूल में राइट टू एडुकेशन के तहत हो जाता है जो कि गरीब बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के अधिकार के मक़सद से बनाया गया है। यह जानकर मीता का दिल और भी टूट जाता है और फिर राज को ताने देने का दौर शुरू होता है।
थक हारकर राज और मीता पिया के लिए भी RTE का सहारा लेते हैं और एक महीने के लिए गरीब बनकर मलिन बस्ती में भी रहने को तैयार हो जाते हैं जहाँ उनकी मुलाकात होती है श्याम प्रकाश (दीपक डोबरियाल) से जो कई पीढियों से गरीब है और इसीलिए गरीबी का हर हुनर उसमें कूट कूटकर भरा है। इसके बाद फ़िल्म में  क्या होता है, हिंदी मीडियम माँ बाप को अपने बच्चों को इंग्लिश और हाई फाई स्कूल में पढ़ाने के लिए क्या क्या पापड़ बेलना पड़ता है का अनुभव लेना है तो आपको खुद जाकर फ़िल्म देखनी पड़ेगी। फ़िल्म में एक भी सीन ऐसा नहीं है जो परिवार के साथ होने के बावजूद भी आपको बगले झांकने पर मजबूर करे।
मुख्य किरदार में इरफान है जो हर रोल में ऐसे फिट हो जाते हैं जैसे इनके अलावा कोई इस रोल को कर ही नहीं सकता। सबा कमर भी आधुनिक माँ की भूमिका में खरी उतरी है। दीपक डबरियाल ने हर फिल्म में खुद को पहले से बेहतर साबित किया है ये उसी का विस्तार है। फ़िल्म की कहानी लिखी है ज़ीनत लखानी ने जो आज की शिक्षा व्यवस्था पर जोर का चोट करती है। अमितोष नागपाल ने बेहतरीन और हास्य व्यंग्य से भरपूर डॉयलाग लिखे है जो दर्शकों को हँसाते भी है तो कभी एकदम से भावुक भी कर देते हैं । फ़िल्म में नाच गाने के लिए कोई खास जगह नहीं है जो गाने है भी वह बहुत साधारण है पर अच्छी बात यह है कि इसकी कमी खलती भी नहीं। कुल मिलाकर हिंदी मीडियम एक साफ सुथरी और मनोरंजक फ़िल्म है इसलिए बेशक आप अपने कीमती समय से कुछ घन्टे चुराकर इस फ़िल्म को दे सकते हैं।
निवेदिता सिंह
लखनऊ
मोबाइल 9456678560, 7705005603
 
      

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5 comments

  1. अनिल कुमार सिंह

    ऐसा विषय जो सभी को कचोटता है, धीमा थप्पड़ भी मारता है, किंतु उसे बर्दाश्त करने की आदत हो चुकी है, फिल्म की बहुत अच्छी समीक्षा के साथ सुंदर प्रस्तुति 💐

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