सरकार 3 आई लेकिन इस श्रृंखला की पिछली दोनों फिल्मों की तरह कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाई. इस फिल्म के ऊपर एक छोटी सी लेकिन अचूक और सारगर्भित टिप्पणी राजीव कुमार ने की है. राजीव कुमार जी फिल्मों के बहुत गहरे जानकार हैं लेकिन लिखते कम हैं. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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सरकार 3 में चूक गए हैं रामगोपाल. सरकार की पहली खेप कला की दुनिया में हंगामा लेकर आई थी। उन दिनों बाला साहब ठाकरे भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर जीवित किंवदन्ती थे। अमिताभ पर्दे पर सुभाष नागरे को अभिनीत करते हुए भी वस्तुतः बाला साहब ठाकरे के राजनीतिक रुढ़ परन्तु नित्य नवीन आरोही किरदार को अमर कर रहे थे। रामगोपाल की निर्देशनीय प्रतिभा का भी उत्कर्ष था वह और अमिताभ चरित्र-निर्माण के सारे मिथकीय फ्रेम वर्क तोड़कर अभिनय के नये प्रतिमानों को स्थापित करने में सफल भी रहे।
पावर पैक्ड सरकार-3 के किरदार, चाय सुरकती अमिताभ की आँखों की दमदार एक्टिंग, आँखें अमिताभ की नये और एडिशनल चरित्र के रुप में फिल्म में रहती हैं इन दिनों, को निर्देशन और स्क्रिप्ट नहीं दे पाये रामगोपाल। “पिंंक” के तुरन्त बाद अपार अवसर था, पर प्रस्तुति लचर और भारी कलात्मक अफसोस।
जैकी श्रॉफ ने आधुनिक खलनायक के रूप में बेहद निराश किया है। बहुत पुराने दिनों के अजित टाईप खलनायक जो हमेशा एक आर्टिफिसियल वाटर बोडी के पास अपनी मोना डार्लिंग के साथ बेहद हल्के संवाद की अदायगी करता है, जैकी श्रॉफ वहीं अपना बिखर गया कैरियर तलाश कर रहे हैं। ऐसे में बेटे टाइगर का कैरियर भी प्रभावित हो सकता है पिता के ऐसे दिशाहीन और श्रीहीन अभिनय से।
स्क्रीनप्ले, फोटोग्राफी और संवाद का स्तर काफी गिरा हुआ है। गोविन्दा गोविन्दा की ध्वन्यात्मक तकनीकी प्रविधि सरकार के इस नये तीसरे अवतार तक शोर का रूप ले लेती है। गणेश-वन्दना की अभूतपूर्व प्रस्तुति भी क्षणिक प्रभाव ही डाल पाई। मानवीय संवेदनाओं की संगीतात्मक अभिव्यक्ति को उकेर नहीं पाये रामगोपाल। उत्कृष्ट संगीत कहीं ठहरी हुई स्क्रिप्ट की बाँहें थाम लेता है। संगीत जवान जोड़ी को प्रेम करने की जगह भी देता और निर्देशक को कहानी के स्तरीकरण का मौका भी। यह हिमालयन ब्लंडर कर गये रामगोपाल। सत्या का ‘सपने में मिलती है’ आज भी गुनगुनाते हैं लोग।
रोनित राय और मनोज बाजपेयी ना सिर्फ अच्छे एक्टर हैं बल्कि उन्हें फिल्म निर्माण की भी समझ है. क्यों कर उन्होंने जाया होने दिया फिल्म को और इतने अच्छे अवसर को? मनोज बाजपेयी क्या इतने कमजोर किरदारों को जीकर फिल्मों में अपनी उपादेयता बनाये रख सकते हैं?
अमित साध संभावनाएं छोड़ जाते हैं। परन्तु वे यामी गौतम के साथ स्क्रीन केमेस्ट्री क्रियेट करने में असफल रहे। अमिताभ के साथ एक छोटी सी केमेस्ट्री डेवेलप हुई पर उसे समुचित स्क्रीन स्पेस नहीं मिला।
तीनों नारी पात्र ने खुद के साथ और रामगोपाल ने उन तीनों के किरदार के साथ बहुत अन्याय किया है। नायिका का बिल्ट अप ठीक चल रहा था पर रिपीटीशन हुआ नरेटिव का और एक सशक्त नायिका निर्देशक के हाथों से छूटकर गिर गई, लगता है, रामगोपाल की सहानुभूति इस किरदार को हासिल नहीं हुई।
कुल मिलाकर रामगोपाल एक ऐतिहासिक अवसर गँवा बैठे।
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