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मंगलेश डबराल का जन्मदिन मंगलेश डबराल की कविताएँ

आज सुबह से याद था कि आज मेरे प्रिय कवियों में एक मंगलेश डबराल का जन्मदिन है लेकिन उनकी कविताओं के माध्यम से उनको याद करने का मौका अब मिला. यही सच है कि जो लोग हमारे काम के नहीं होते उनको हम देर से याद करते हैं. फिर भी शुक्र है कि याद तो करते हैं. जब उनका जन्मदिन याद आया तो यह भी याद आया कि इस साल उनकी प्रतिनिधि कविताओं का संचयन राजकमल प्रकाशन की प्रसिद्ध श्रृंखला में आया है जिसका संपादन कवि पंकज चतुर्वेदी ने किया है. उसी संचयन से कुछ कविताएँ-
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शहर -1
मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कुराया
 
यहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया.
 
प्रेम
वह कोई बहुत बड़ा मीर था
जिसने कहा प्रेम एक भारी पत्थर है
कैसे उठेगा तुम जैसे कमजोर से
 
मैंने सोचा
इसे उठाऊँ टुकड़ों टुकड़ों में
 
पर तब वह कहाँ होगा प्रेम
वह तो होगा एक हत्याकांड
 
सात पंक्तियाँ
 
मुश्किल से हाथ लगी एक सरल पंक्ति
एक दूसरी बेडौल-सी पंक्ति में समा गई
उसने तीसरी जर्जर किस्म की पंक्ति को धक्का दिया
इस तरह जटिल-सी लडखडाती चौथी पंक्ति बनी
जो खाली झूलती हुई पांचवीं पंक्ति से उलझी
जिसने छटपटाकर छठी पंक्ति को खोजा जो आधी ही लिखी गई थी
अंततः सातवीं पंक्ति में गिर गया यह सारा मलबा
 
ऐसा समय
जिन्हें दिखता नहीं
उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता
जो लंगड़े हैं वे कहीं नहीं पहुँच पाते
जो बहरे हैं वे जीवन की आहट नहीं सुन पाते
बेघर कोई घर नहीं बनाते
जो पागल हैं वे जान नहीं पाते
कि उन्हें क्या चाहिए
यह ऐसा समय है
जब कोई भी हो सकता है अंधा लंगड़ा
बहरा बेघर पागल
जो बोलते हैं
 
जो बोलते हैं जोरों से या ठंढी डपटती आवाज में
कहते हैं हम फलां जगह से बोल रहे हैं
उनकी बातें याद रहती हैं दिमाग में बजती हुई
हम ढोते रहते हैं उनका बोझ
 
जो बोलते है धीमे अपनी किसी दुर्बलता के साथ
कांपती हिचकती आवाज में कभी कभी गुस्से में
उनकी बात कभी कभी याद आती है
रोजमर्रा के मामूली काम करते हुए
अचानक रुक जाता है हाथ या पैर या दिमाग
एक अकेलापन उठता है भीतर से.
 
प्रतिकार
 
जो कुछ भी था जहाँ-तहां हर तरफ
शोर की तरह लिखा हुआ
उसे ही लिखता मैं
संगीत की तरह
 
      

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