आज कुछ कविताएँ हर्षित भारद्वाज की. अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन जगत से जुड़े हर्षित आजकल जेम्स हेमिंग्वे प्रकाशन को भारत में लाने में लगे हुए हैं. वे अंग्रेजी में लेख लिखते हैं लेकिन कविताएँ हिंदी में. कहते हैं कविता में आदमी दिल की बात कहता है और दिल की बात अपनी भाषा में ही सही तरीके से कही जा सकती है- मॉडरेटर
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1.
हमारा नया घर
एक अशोक का पेड़ जो
महीनो से नए किरायेदार के इंतज़ार में
प्यासा,
द्वारपाल की तरह खड़ा है
पहले ही दिन से अपनी छाँव से
मेरी खिड़की की धूप को रोके है
हाँ, पुराने माँ बाप को
पुराने घर छोड़ आये हैं
रोज़, बेटी को स्कूल छोड़ते वक्त
एक भूरी बकरी और सफ़ेद मेमना दिखाता हूँ.
कुछ ही दिनों में मेमना बड़ा हो गया है,
पर बकरी वैसी ही निरीह है.
कल दोनों नहीं थे,
शायद कसाई ने काट दिये होंगे
पर ये मैं अपनी बेटी को समझा नहीं पाऊंगा
स्कूल जाने का नया रास्ता ढूंढा है
अगर उसने यह भी पूछा कि
पापा पहले बकरी को काटा या मेमने को
तो अनर्थ हो जायेगा.
न जाने क्यूँ एक बूढा चितकबरा कुत्ता
दरवाज़े के आगे पड़ा रहता है.
पुचकारने पर पूँछ नहीं हिलाता,
खाना देने पर एहसान मान कर पैरों में नहीं लेटता.
पर कल एक कबाड़ी पर तब तक भौंका
जब तक गली के बाहर न छोड़ आया.
धूप आने पर एक स्कार्पियो के नीचे सोता है,
बाकी नज़र घर के दरवाज़े पे ही रखता है.
यहाँ पूजा की घंटियों की आवाज़ भी नहीं हैं
न हर समय टीवी पर न्यूज़ की बहस.
कुछ लड़ाईयों का शोर कम है,
पर सन्नाटे का कोहराम घर भरे है.
बच्चे हर रात ये सोचने पर मजबूर नहीं हैं
कि हमारे साथ सोना है या बाबा अम्मा के.
मेरे कमरे की घडी यहाँ भी अक्सर रुक जाती है
मगर वक़्त बिना बैटरी के भी ख़ामोशी से रुखसत होता रहेगा,
और एक दिन शायद
वह बूढा चितकबरा कुत्ता मर जायेगा.
और ये घर पुराना हो जायेगा
और मेरा बेटा अपनी बेटी को कहीं
बता पायेगा की मेमना और उसकी माँ
गर्मियों में नैनीताल, अपने नए घर,
नहीं गए हैं.
2.
उस रात
उसने
श्मशान की गर्म राख से
उसकी मांग भरी.
वह राख, जिसमें
किसी बूढी औरत की
अधजली हड्डियों की अकड़
और पिघले हुए
मांस की खुशबू थी.
वो चिता अभी और सुलगेगी
अभी अनगिनत प्यासी मांगें
सिंदूर की लाली से तृप्त नहीं हैं
और इस बात से हैरान हैं
की लहू राख होते होते सूख जाता है
और बचती है सिर्फ भुरभुरी राख
और उसी से रजो तिलक के लिए
वह हताश, मगर आतुर
रात की देहरी पर
निरंतर जलती अग्नि में
आहुतियां देता रहेगा।
फिर एक अमावस
उसी राख में समाहित
असंख्य कणों में से एक को
वह अपने गर्भ में धारण करेगी
चूँकि बलि की देवी को
प्रसन्न रखने हेतु
उसे भी किसी की मांग की राख बनना होगा
और सदियों तक
रात की देहरी पर सुलगना होगा।
3
जन गण मन
गांधी ढहे हे राम कहे
‘हे राम’ ढहे बाबरी
हे राम की तरुण पुकार में
घू धू जले साबरमती।
सुग्रीव कहे बाली हतो
विभीषण कहे दशानन
दुर्योधन हठ में पिसे
भीष्म, कर्ण, और गुरुजन।
मुग़ल कहे अंग्रेज़ो पर
अँगरेज़ कहें नाज़ियों पर
जलियाँवाला बाग़ जाकर
मैंने दागी सब पर।
राम के शर पे, चढ़े बाण पे
शम्बूक लिखा या रावण
श्रेष्ठ धनुर्धर कौन बनेगा
एकलव्य या अर्जुन।
भीष्म पितामह की शैया मैं
मैं जलियांवाला की गोलियां,
औरंगज़ेब के कुण्ड में मैं
जनेऊ से हुआ धुंआ।
नेहरू के संग यहां रुका
जिन्ना संग पाकिस्तान
मैं में मेरा कहाँ रहा कब
बस जन गण मन में जान।
4
घर के ऊपर वाले कमरे में
अब कोई नहीं रहता
हर रोज़ एक माँ ऊपर
चाय का प्याला लिए
उसको सुबह सुबह जगाने जाती थी
सड़क के उस पार वाले मकान से
दफ्तर जाते लड़कों को देख सपने सजाती थी
उस दिन के इंतज़ार में एक-एक दिन गुजारती थी.
हर रोज़ उस ठंडी हुई चाय को गर्म करते वक़्त
बहन मन ही मन कुस्मुसाती थी
सहेली के भाई का मेडिकल में दाखिला हुआ है
मोहल्ले की हर बहन की भी यही दुआ है
ऊपर चाय ले जाते वक़्त कुछ न कुछ बुदबुदाती थी
उस कमरे को साफ़ करने का जिम्मा छोटी का था
गुस्सा आता तो था पर ख़ासा दिल बहलता था
कहानियों की किताबे, रंगों के डिब्बे, अखबारों की रंगीन कतरनें
दीवारों पर पोस्टर और कंप्यूटर पर बजती फ़िल्मी धुनें
हर वह चीज जो पापा को नापसंद थी
‘ कबाड़ी बनेगा तू, और कुछ बने न बने’
घर के ऊपर वाले कमरे में
अब कोई नहीं रहता
हकही चला गया है शायद
किसी वीरान मंदिर मे जहां
भगवान की नहीं इंसान की जरुरत है
किसी अनजान शमशान में
जहां जिंदगी तो क्या मौत की भी इबादत है
या किसी जंगली नदी के उफनते किनारे पर
जिसे हर हाल में बहते रहने की आदत है
या किसी फ़कीर के तार तार झोंपड़े के आगे
जहां नाम, काम, रुतबा हैं- सब बेकार की बातें
या उसी घर के ऊपर वाले कमरे में
जहां अब चाय नहीं आती
सफाई करने काम वाली बाई आती है, छोटी नहीं
कमरा वही है
इंसान भी वही हैं
वो जो रहता था उसका हमशक्ल सा है भी
सीढियां तो जाती हैं अब भी ऊपर
पर वहाँ अब चाय नहीं जाती.
Bahut khoobsurat