आज राजेश प्रधान की कविताएँ. किस तरह शब्दों के थोड़े से हेरफेर से शब्दों में सौन्दर्य पैदा हो जाता है, जीवन का सहज दर्शन उभर आता है उनकी कविताओं को पढ़ते हुए इसका अहसास हो जाता है. राजेश जी अमेरिका के बोस्टन में रहते हैं, वास्तुकार हैं, राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं और 2014 में उनकी एक पुस्तक आई थी “When the Saints Go Marching In: The Curious Ambivalence of Religious Sadhus in Recent Politics in India”. शब्दों से, संगीत से, दर्शन से उनका लगाव, उनके प्रति आकर्षण उनकी कविताओं में सहज जिज्ञासा की तरह प्रकट होता है. उनकी कुछ कविताएँ पहले ‘अभिनव इमरोज़’ नामक पत्रिका में छप चुकी है. आज चार कविताएँ जानकी पुल पर- मॉडरेटर
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तू है क्या?
मैं स्थिर नहीं हूँ
पकड़ में नहीं हूँ
मैं घनघोर नहीं हूँ
शांत नहीं हूँ
मैं सम्पूर्ण नहीं हूँ
प्यासी नहीं हूँ
परवाह मुझे क्या सम्मान असम्मान का
मुर्दे आते हैं यहाँ तहज़ीब से
तू तो ज़िंदा है
तू क्या है?
मैं स्वर्ग में हूँ, पाताल में हूँ
तू क्या है?
मैं गंगा हूँ, हर बूँद में हूँ
तू क्या है?
मैं ख़ुदमुख़्तार हूँ
न अर्पण की न तर्पण की न खर-पतवार की चाह है
मैं तो पारदर्शी हूँ
तू कौन है?
II संगीत और संघर्ष
संगीत में भी संघर्ष की महक आती है
अच्छा है या बुरा है वह आप ही जानिए
पर संगीत के दायरे या सीमा में
उछल कूद करते सात सुरों में
किसी सताये हुए की आवाज़ सुनाई पड़ती है
“सा रे गा मा प ध नी” में
“सारे ग़म पे धनी” सुनाई आती है
अगर संगीत में टकराव निकालना हो
तो थोड़ा मेंहनत कर लें
क्रान्ति की ज़रुरत हो ही नहीं
स्वर, सुर, सरगम सब वही रहे
सिर्फ़ अक्षर बदल दें
“सा रे गा मा पा ध नी”, के बजाय
“सा-रे धा-गा मा पा-नी”, यानी
“सारे धागा म पानी”
हर डोर में संघर्ष नहीं, अब ओस होगा
मुक़र्रर मुक़र्रर होगा
“सारे धागा म पानी” होगा
III अनुभव और अनुभूति
तीसरी मंज़िल के घेरे में बंद
गर्मी में उलझते हुये
एक ज़बरदस्त पंखा
ऊपर ले आये
गर्मी और पंखे को
कोसने ही वाले थे कि..
एक अजीब अनुभूति हुई
अपनी तरह से पंखे की
मीडियम सेटिंग पर
न तेज़ न धीमी चाल पर
मध्यम सुर की तान
आ रही थी
ठीक हमारे घिसे-पिटे मध्यम
यानी ‘ C ‘ तान की तरह
गाना गुनगुनाये
और सो गये
पर पंखा गर्मी की
रात में घूमता
और भिनभिनाता ही रहा
अब यह अजीब चमत्कारिक खोज है
आलसी जो हम हैं ही
अब बग़ैर मेहनत के
बग़ैर कुछ किये हुए
संगीत की अनुभूति
हो सकती है
इन्द्रियों का अजीब उपयोग
जैसे
कान से कोई दृश्य
देख लेता हो
या फिल्म “ख़ामोशी” की तरह
आँखों से महकती खुशबू
देख लेता हो
जैसे कोई अनुभव को
अनुभूति में
बदल देता हो
ताकि
गर्मी और संगीत के
शोरगुल के बजाय
सब कुछ
ख़ामोश रहे
अनुभव की तरह
अनुभूति की तरह
IV मुद्दों पे मुद्दा
स्वर्ग के ऊपर,पाताल के बीच,
और धरती पर रेंगते हुए बाबा को तरस आ ही गया
चलो तुमको एक और मौसम देते हैं
ये है “कभी कुछ कभी कुछ” या मुद्दों का मौसम
जो आयेगा
वसंत की ख़ुशी और गरमी में झुलसने के बाद ,
बारिश में भींगने और जाड़े में सिकुड़ने के बीच
पर आ गया
सड़कों पर “कभी कुछ कभी कुछ”
और अकेलेपन की उदासी में भी “कभी कुछ कभी कुछ”
अब देखते हैं ये मुद्दों के मौसम का ग़ुब्बारा कैसे बढ़ता है
Poverty of vision या division of poverty की घिसी -पिटी बहस में ग़ुब्बारा पहले ऊपर उठा
Tyranny of majority या tyranny of minority के इंतहाई गूँज से ग़ुब्बारा खिंच गया
Democratic elitism या democratic populism के पैरहन से ग़ुब्बारा हर जगह छा गया
कभी कुछ कभी कुछ के ग़ुब्बारे और मौसम से शिकस्त होकर
वसंत, गरमी, बारिश और जाड़े ने बाबा को फिर याद किया
अरे बेवक़ूफ़ ,बाबा ने कहा, “कभी कुछ कभी कुछ” ये पुराने झगड़े हैं
इनका कोई समाधान संविधान में है ही नहीं
संविधान एक एहसास है
कि झगड़े ऐसे ही सुलझेंगे, वैसे नहीं
फ़ैसला जो भी हो, झगड़े सुलझायेंगे तो ऐसे ही और कभी वैसे नहीं
ये भी कोशिश नाकाम रही और मुद्दों का ग़ुब्बारा बढ़ता ही गया
तो बाबा ने फिर कहा : तुम ऐसा करो
झगड़ों को सुलझाओ ही नहीं
झगड़ों को ख़ूबसूरत बना दो: ख़ूबसूरत झगड़ा 1 versus ख़ूबसूरत झगड़ा 2
Political romanticism नहीं, जहाँ मुद्दों से ज़्यादा इश्क़ है मुद्दों से उलझने के इश्क़ में
वो नहीं
ऐसा करो, तुम शिव की तरह creative destruction करो
हर संवैधानिक procedure को ऐसा तोड़ो और बनाओ कि मुद्दों के बजाय हर लड़नेवाले की dignity ख़ूबसूरती से बरक़रार रहे — मौसम या मुद्दा जैसा भी हो
With this the Baba disappeared somewhere
But the weathers kept changing, कभी कुछ कभी कुछ
Now weathers and मौसम, or ऋतु and वातावरण, are very different things
Ask any climate change person
कविताएँ तो सारी ही बहुत उम्दा हैं पर कविता ‘मुद्दों पे मुद्दा’ में यह नया प्रयोग क्यों – हिन्दी – इंग्लिश मिक्स वाली! समझ में नहीं आया।
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