हिंदी वालों का एक दुचित्तापन मुझे समझ में नहीं आता है कि जब भी कोई कवयित्री ऐन्द्रिक(सेंसुअस) कविताएँ लिखती है तो उसकी खूब तारीफ करते हैं लेकिन जब कोई पुरुष सेंसुअस कविताएँ लिखता है तो नैतिकता के आधार पर उसकी निंदा करते हैं. अभी वरिष्ठ कवि पवन करण की कुछ ऐसी ही कविताएँ ‘नया ज्ञानोदय’ में आई. मैंने पाया कि फेसबुक पर कुछ बेहतर लोग उन कविताओं की निंदा में लगे हुए थे. पढ़कर बताइए कि ये कविताएँ क्या अनैतिक हैं?
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काली मिर्च
एक बार मैंने तुम्हारे बैग में झांककर देखा
तो मुझे उसके तल में
कुछ काली मिर्चें पड़ीं दिखाई दीं
तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारे बैग को खंगालना
और उसमें भरा अंट-शंट
बाहर करना प्रिय शगल रहा मेरा
अचानक तुम्हारे चले आने पर मैंने
तुम्हारे बैग से एक काली मिर्च
बाहर निकालकर तुम्हें दिखाते हुए कहा
क्या यार तुमने तो अपने बैग को
मसालदानी बना रखा है
ये काली मिर्च इसमें क्या कर रही है
क्या इन से किसी पर
काला जादू करने का इरादा है
वैसे भी तुम्हारी बातों में जादू
और आंखों में टोना दोनो है
इनसे काला जादू हो सकता है
ये तो मैंने नहीं सुना
मगर तुमने एक बार
मेरी पीठ के तिलों को
अपनी जीभ से सहलाते हुए उन्हें
काली मिर्च जैसा जरुर बताया था
तुम्हें याद है कि नहीं
मेरे कहे के जबाव में वह बोली
मेरे स्वाद में डूबे हुए तुमने
प्यार करते हुए मुझसे
क्या-क्या नहीं कहा
पर तुम्हारी यह काली मिर्च
ठहरकर रह गई मेरी याद में
बस तब से ये मेरे साथ हैं
बैग खोलते ही जब मेरी निगाह
इन पर पड़ती है मेरे तिल
मेरी पीठ में चुभने लगते है।
जीभ
उसका फोन आता है मैं उससे
अपनी लटपटाती आवाज में
जैसे-तैसे बात करता हूं
वह गुस्से में फोन काट देती है
उसकी नाराजी से मेरी
उसके बराबर पहचान है
तो मैं उसकी रुठन के
सब रंगों को जानता हूं
मैं दोबारा फोन लगाकर
जब उसे बताता हूं
मेरी जीभ कट गई है
इस वजह से मैं तुमसे
ठीक से बात नहीं कर पा रहा हूं
यह पूछने की जगह
कि मेरी आवाज को क्या हुआ
तुमने फोन ही काट दिया
अरे, वह हंसकर पूछती है
तुम्हारी जीभ कैसे कट गई
मैं उससे कहता हूं
अब क्या किया जाये
अपने दांतो से
मेरी जीभ काटने के लिये
तुम तो यहां हो नहीं
तो मेरे दांतों ने
उसे खुद ही काट लिया
मेरी बात सुनकर
उधर से फूटता
उसकी हंसी का फब्बारा
मुझे इधर भिगो देता है।
चांद का अक्स
जिस रात आकाश के अंधेरे दर्पण में
तुम्हारा चेहरा दिखाई नहीं देता,
उस रात तुम्हें देखने को बेताव
गिनती में असंख्य ये तारे
मेरा जीना मुश्किल कर देते
कोई पूछता कहां गया तुम्हारा चांद
आज दिखाई नहीं दे रहा
तुमसे रुठकर धरती की
किस अंधेरी ओट में जा छुपा है वह
कोई कहता ऐसा तुमने
क्या कह दिया उससे
जो वह आज रात पास नहीं तुम्हारे
कोई बताता कि देखो
उसके तुम्हारे साथ न होने से
अंधेरे में डूबी है हमारी दुनिया
एक साथ कई तारे चिल्लाते हुए
कहते अब हम क्या करें
हम धरती पर आकर
तुम्हारे चांद को
ढूंढ भी नहीं सकते
और इतने उदास तुम हो कि
अपना मुंह सिये बैठे हो
फिर तारों की चिल्लाचैंट
और तुम्हारे बिना अंधेरे में डूबा
आकाश ही मुझसे कह बैठता,
दुनिया भले ही
मुझमें दिखाई देते अक्स को
चांद मानती हो
मगर मैं और तारे
तो यह जानते हैं न
कि वह चांद नहीं,
चांद का बिम्ब है तुम्हारे
सच सच बताओ
कहीं हमारे साथ
कोई खेल तो नहीं खेल रहे तुम
ठोड़ी
मैंने कई बार ऐसा किया
पीछे से आकर
तुम्हारे सिर के बीचों-बीच
अपनी ठोड़ी टिकाकर
तुम्हारे सिर पर उसका
देर तक दबाव बनाये रहा
और तब तक नहीं हटा
जब तक दर्द से हड़बड़ाकर
मुझे पीछे धकेलते हुए
तुम खड़ी नहीं हो गईं
मैंने कुछ बार यह भी किया
कि पीछे से ही
तुम्हारे सिर को
अपनी ओर करते हुए
तुम्हारे माथे पर
ठोड़ी की नोक गड़ा-गड़ाकर
खुद का नाम लिख डाला
मैंने कई बार
पंजा लड़ाने की तरह तुम्हें
ठोडि़यां लड़ाने के लिये
उकसाया और तुम
पिछली हार को भूलते हुए
इसके लिये
एक बार और मान गईं
मैंने कितनी ही बार
बारी-बारी से
तुम्हारे दोनों कंधों पर
अपनी ठोड़ी टिकाकर
आईने में तुम्हारे चेहरे के पास
अपने चेहरे को देखा रखकर
मगर मुझे सबसे मीठा
तो तब लगा
जब तुमने एक दिन
अपने हाथ से
ठोड़ी पकड़कर मेरी,
मुझसे यह कहा
कि तुम्हारी ठोड़ी भी तुमसे
कुछ कम शरारती नहीं
अचार
यह बात अच्छी तरह जानते हुए भी
कि अचार मुझे कतई पसंद नहीं
तुम अपने टिफिन में
अपने साथ-साथ मेरे लिये भी
अचार लाना नहीं भूलतीं
टिफिन खुलते ही अचार की खुश्बू
सांसो में भर जाती
ऐसा कभी नहीं हुआ कि
हमारे खाने में किसी रोज
बस तुम्हारा लाया अचार ही रहा हो
सरसों के तेल और तुम्हारे सरीखे
तेज मसालों में लिपटीं
सब्जियों के चलते, तुम्हारे लाये
अचार से मेरी दूरी बनी ही रही
खाना खाते हुए ठीक मेरी तरह
मेरे हिस्से का अचार भी
तुम उसी तरह खा लेतीं
जैसे तुमसे प्यार करते हुए
तुम्हारे हिस्से का प्यार भी मैं कर लेता
मुझे याद है मैंने एक-दो बार
तुम्हारा मन रखने के लिये उसे चखा
और तुम्हारी तरफ मुस्कराते हुए
यह कहकर रख दिया कि
इसकी खटास तो तुमसे मिलती है
मैं तुमसे एक बात पूछूं
यदि तुम्हारी तरह मैं भी
अपने साथ तुम्हारे हिस्से का भी
अचार खाना शुरू कर दूं
तब क्या अपनी खटास लिये
मेरी जिंदगी में लौट आओगी।
चोटी
मैं मन में सोचता इसके लंबे बालों की
कितनी कातिल चोटी गुंथती है
कमर के नीचे तक गुथी जब यह
तुम्हारी पीठ के नीचे दब जाती
मुझे बहुत चिढ़न होती
जितनी देर तक वह
नीचे दबी रहती मैं बेचैन बना रहता
सोचता कि पीठ के नीचे उसका
दम घुट रहा होगा
तुम्हें हमेशा यही लगता कि
मैं तुम्हें देख रहा हूं मगर
मैं जब तुम इसे बना रही होतीं
तब मैं तुम्हें नहीं
तुम्हारे हाथों इसे बनते देखता
मेरी इस बात पर तुम हंस देतीं
जब मैं तुमसे यह कहता कि
जब तुम मुझसे दूर जाया करो
अपनी चोटी पीछे कर लिया करो
जब पास आया करो तो सामने
तुम तो प्यार से इससे
काम लेना ही भूल गई
कितने दिन हुए तुमने
अपनी चोटी का सिरा
अपने हाथों में पकड़कर उससे
मेरे चेहरे को नहीं थरथराया
और तो और तुमने उसे खुद
मेरे गले में फंदे की तरह नहीं डाला
और न ही मुझे डालने दिया
और मैं कहते-कहते थक गया
मगर तुमने कभी मुझे
अपने इस एक चोटी में से
दो चोटियां बनाकर नहीं दिखाईं
खांसी
मैं तुम्हारी जिन आदतों से
परेशान रहा उनमें तुम्हारी एक आदत
मुंह पर खांस देने की भी रही
जब भी तुम्हें खांसी होती
सामने बैठकर बात करते हुए मुझसे
तुम खांसती भी जातीं मैं सोचता
कमाल की भले ही कितनी हो ये
मगर ये सही है कि इसे
ढंग से खांसना नहीं आता
खांसते समय इसे मुंह तक
अपना हाथ ले जाने
या पास में रूमाल रखने में
कितनी तकलीफ होती है
मुझे खांसी होती तो मैं
समझाने के लिये उसे
अपने मुंह पर हाथ रखता
मगर इस डर से कि कहीं तुम
इसी बात पर रूठकर न चल दो
मैं तुमसे मुंह पर हाथ रखकर
खांसने की नहीं कह सका
एक बार जब मैंने तुमसे
इस बारे में कुछ इस तरह
कि तुम मुझे भी खांसी किये बिना
नहीं मानोगी कहा भी तो
तुमने यह कहते हुए कि नहीं
तुम्हें कुछ नहीं होगा, मेरा कहा
एक झटके में उड़ा दिया
उस रोज मैं सचमुच बच गया
जो तुमने मेरी बात उस हद तक
समझते हुए यह नहीं कहा, अच्छा
मुझसे खांसी हो जाने का इतना
डर है तो मैं ऐसा करती हूं
तुम्हारे पास से ही चली जाती हूं
और सुनो जिसे खांसना आता हो
अपने लिये ऐसी प्रेमिका ढूंढ लो