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पुल के नीचे भारत और पुल के ऊपर इंडिया – किसान आंदोलन

किसान आन्दोलन के बहाने नागेश्वर पांचाल का यह आत्मपरक लेख.

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मैं एक किसान पुत्र था, लेकिन अब मैं एक किसान पुत्र नही हूँ । कुछ सालो पहले आर्थिक तंगी की वजह से पिताजी ने ज़मीन की बिक्री कर दी थी । वो खेत, इमली की शाखाओं पर झूलना, आमो का बँटवारा करना, शाम को सब्जी के पैसे आधे-आधे करना और भूरी भैंस को खेत से घर लाना फ़िर उसका दूध डेरी पर देना । मैं खेती को बाज़ार से नही जानता था ना ही लगता है कि किसान, व्यापारी है । वरना कैसे हमें बिना तोले पवन जोशी मटर दे जाता या कैसे पिरुदा अंदाज़े से ही तरबूज थैली में भर देते । बहुतायत में देख तो किसान मुझे नही लगता कभी चालाक हुआ है । वो बिजली के छोटे से अधिकारी से डर जाता है । वो ऑफिसर को सेवक नही बॉस समझता है । किसी भी वक़्त एक भारत पुल के आसपास दिखता है, जहाँ गंदगी है, कोई छोटी से लड़की, अपने भाई के साथ लेटी है और उनकी माँ बाहर ही तवे पर रोटी सेक रही है । अब जरा पुल के ऊपर नज़र घुमाइए, आप देखेंगे कि अभी अभी वहाँ से ऑडी निकली है और सैकड़ो ऐसी गाड़ियाँ गुज़रती जा रही है । एक भारत पुल के नीचे और उसके आसपास रहता है एक इंडिया पुल के ऊपर रहता है । वर्तमान किसान आंदोलन में असहयोग करने की बात की गई जो हमें गाँधी के असहयोग आंदोलन में दिखता है । गांधी जी को लगता था कि इस तरह औपनिवेशिक शासन की जड़े हिलाकर उसे ख़तम किया जा सकता है । लुई फ़िशर गांधी की आत्मकथा में लिखते है कि ‘असहयोग भारत और गाँधी जी के जीवन के एक युग का ही नाम हो गया। असहयोग शांति की दृष्टि से नकारात्मक किन्तु प्रभाव की दृष्टि से बहुत सकारात्मक था। इसके लिए प्रतिवाद, परित्याग और स्व-अनुशासन आवश्यक थे ” । फिर चौरी चौरा कांड के बाद इसे बंद कर दिया गया और यही से गांधी सुभाष के मतभेद भी शुरू हो गए थे। फिर रचनात्मक कार्यो पर जोर दिया गया जिसमें चरखा और विदेशी कपड़ो की होली प्रमुख है । गाँधी के करीबी और संत विनोबा चरखे के बारे में विस्तार से कहते है कि ये एक साधना है,काम मान कर ना करे । रचनात्मक के नाम पर तमिलनाडु का दिल्ली वाला आंदोलन जरूर याद आता है । वर्तमान आंदोलन में वो किसान भी खुलकर सामने आए है जिन्होंने वर्तमान सरकार के ख़िलाफ़ मुह भी नही खोला । इस भीड़ में वे भी शामिल है जिनके सामने नोटबन्दी पर बोलने से लोग डरते थे । ये अवधारणा बिल्कुल गलत है कि कुछ लोगो या कांग्रेस ने इसे हैक कर लिया है । ये वही भूमि है दोस्तो, जहाँ की सरकार को 5 बार कृषि कर्मठ आवार्ड से नवाजा गया है । जहाँ की कर्षि विकास दर 20 प्रतिशत आँकी गई है । यहाँ के मुख्यमंत्री को किसान हितैषी कहा जाता है। तो फिर कमी कहाँ पर है ? इसे इस तरह समझिए कि 2016 में एक किसान की कुल फसल दो लाख रुपये की हुई और उसकी कुल लागत एक लाख रुपए है । उसे कुल फ़ायदा हुआ एक लाख का । अब अगर वही किसान 2017 में तीन लाख की फसल उगाये और उसकी लागत मान लीजिए तीन लाख रुपए है तो आंकड़ो की नज़र में वो किसान विकास कर रहा है । यहाँ हो क्या रहा है कि मजदूरी के साथ- साथ किसान जिन चीज़ों का इस्तेमाल करता है, सबका रेट तो बढ़ रहा है, और जो चीज़ किसान बेंचता है उसका घट रहा है । हर प्रोड्यूसर अपने सामान की कीमत कुछ पैमाने के अंतर्गत ख़ुद तय करता है, विडंबना ये है कि केवल किसान अपने प्रोड्यूस चीज़ों की कीमत तय नही करता । उसके प्रोडक्ट की क़ीमत तय करता है मंडी में बैठा व्यापारी । सरकार एक न्यूनतम मूल्य जरूर निर्धारित करती है, लेकिन क्या व्यवस्था है कि उसी पर माल बेंचा जा रहा है ? सरकार के निर्धारित मूल्य पर सरकारी तंत्र उसे लेने से मना कर देता है । डिजिटलाइजेशन एक अच्छा कदम है लेकिन अगर आप गाँवो का दौरा करेंगे तो जानेंगे कि, किस तरह मुन्ना अपनी फसल का पैसा अपने अकाउंट में आने का इंतज़ार करता रहता है या फिर चेक लिए बैक के चक्कर काटता रहता है । क्या जिन 20 दिन या महीनों तक इनका पैसा इस तरह अटका है उसका ब्याज़ मिलता है ? या फ़िर क्या मुआवजा मिलता है । इसके दूसरे पहलू पर गौर कीजिए अगर आप पंतजलि/ एमआर एफ / सैमसंग की दुकान लगाना चाहते है या उसके डिस्ट्रीब्यूटर बनना चाहते है तो आपको एक प्लान लेना पड़ता है जिसे गोल्ड, प्लेटिनम और सिल्वर सबके अलग अलग लाखो रुपए पहले जमा कराना पड़ता है । फ़िर किसानों के साथ उल्टा व्यवहार क्यों ? मैं आलू ,प्याज़ और दूध का इस तरह बर्बाद करने का समर्थक कतई नही हूँ । लेकिन आप अगर किसानों की तरफ से सोचेंगे तो उन्हें पहला उपाय यही नज़र आएगा । फ़िर भी ऐसे किसी भी तरह उचित नही ठहराया जा सकता । जरूरत है गांधी के चरखे की तरह रचनात्मक आंदोलन की । किसान भाइयों ये एक साधन नही साधना है । इसका पवित्र होना बेहद जरूरी है । अपनी आग से अपनी बेटी/ बेटे ( फसल) को मत जलाइए । किसान वर्ग सामाजिक संस्थान, नवोदय विद्यालय , हॉस्पिटल, अनाथालय से संपर्क कर सकते है और वहाँ की फ़ोटो डाले अच्छा लगेगा । कुछ दिनों तक शहर को दालों के भरोसे छोड़ सकते है और उन्हें चाय की तलब लगे तो ब्लैक टी पिए । आप किसानों को तमाशा करने वाला कतई ना समझे । कुछ लोगो को लगता है कि किसानों की कर्ज़ माफी की मांग जायज़ नही है तो उसी तर्ज पर पार्टियों के चुनावी वादे भी नाज़ायज़ है । मुझे अज्ञेय की एक कविता याद आ रही है – “जो पुल बनाएंगे वे अनिवार्यत: पीछे रह जाएंगे। सेनाएँ हो जाएंगी पार मारे जाएंगे रावण जयी होंगे राम, जो निर्माता रहे इतिहास में बन्दर कहलाएंगे” । – नागेश

 
      

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3 comments

  1. बढ़िया, सहमत, शुक्रिया

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