Home / Featured / शिक्षाविद नौकरी बचाएं या शिक्षा बचाएं

शिक्षाविद नौकरी बचाएं या शिक्षा बचाएं

शिक्षाविद कौशलेन्द्र प्रपन्न का यह लेख डीयू में अंग्रेजी के पाठ्यक्रम में चेतन भगत की किताब को लगाने को लेकर लिखा गया है. लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में जो गलाजत मची हुई है उसके ऊपर बहुत अच्छा लेख है. पढियेगा- मॉडरेटर

======================================================

अकादमिक हलकों में कोई शोर नहीं। सहज स्वीकार्य। कोई विरोध नहीं, कोई विकल्प नहीं। दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए के पाठ्यक्रम में अंग्रेजी के लेखक चेतन भगत का उपन्यास ‘फाइब प्वांइट समवन’ शामिल करने की घोषण हुई है। यह घोषणा कई संदेश प्रेषित करते हैं। पहला यही कि अकादमिक घटकों में इस पहलकदमी को लेकर किसी प्रकार के प्रतिवाद नहीं उठ रहे हैं। दूसरा केएम पणिक्कर, टैगोर की रचना को स्थनांतरित एक ऐसे उपन्यास से किया जा रहा है जिसकी स्वीकार्यता एक गंभीर अकादमिक कामों में नहीं गिनी जाती। सवाल यह उठना चाहिए कि क्या चेतन भगत की यह रचना टैगोर और पणिक्कर की रचना को विस्थापित करने की रचनात्मक ताकत रखती है? क्या इस निर्णय से पूर्व विश्वविद्यालय की अकादमिक समिति की राय ली गई? यदि ली गई तो उनमें क्या सहमति बनी इसे भी समझने की आवश्यकता है। अमूमन पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम कई बार ख़ास पार्टी व राजनीतिक दलों की वैचारिक प्रचार, प्रसार के साधन के तौर पर इस्तमाल किए जाते रहे हैं। इसके इतिहास में ज्यादा पीछे नहीं जाते हैं। महज पंद्रह साल पहले 2002 में भी ऐसी ही एक अकादमिक घटना घटी थी। सीबीएससी ने प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी मंत्र को हटा कर मृदुला सिंन्हा की कहानी ज्यो मेंहदी के रंग को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया था। तब भी विवाद उठे थे कि क्या केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति केब की राय ली गई? क्या आकदमिक बहसों और विमर्श का इस बदलाव में शामिल किया गया? उस वक्त विभिन्न शिक्षाविदों, साहित्यकारों ने इस कदम की आलोचना की थी। नागर समाज ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की कि क्या यह निर्णय अकादमिक विमर्शों के मद्दे नजर ली गई या सरकार की निहित स्वार्थ के लिए कदम उठाए गए। न्यायालय का निर्णय दिया कि यह गलत है और तकरीबन एक साल बाद दुबारा गलती को सुधारा गया।

प्रो. अनिल सद्गोपाल ने इस पूरी घटना पर विस्तार से लिखा और बोला भी। उन्होंने लिखा कि सन् 1990 के आस पास जब विश्वविद्यालयों को निजी हाथों में सौंपे जाने की चालें चलीं जा रही थीं। विश्व बैंक को भारत के शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश के लिए द्वार खोले जा रहे थे तब शिक्षाविदों, साहित्यकारों, प्राध्यापकों की ओर से कोई भी विरोध दर्ज नहीं किए गए। तमाम विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक मौन थे। हमें उसका ख़ामियाजा आज भुगतना पड़ रहा है। अनिल सद्गोपाल जिस चुप्पी की ओर इशारा कर रहे हैं वह कहीं न कहीं मौन स्वीकारोक्ति नहीं तो क्या थी। क्या वह चुप होकर सरकारी हस्तक्षेप को बिना विरोध किए कबूल करना नहीं था। साहित्यिकारों, शिक्षाविदों और नागर समाज की चुप्पी कितनी ख़तरनाक हो सकती है इसका अनुमान लगाया जा सकता है। समय समय पर शैक्षिक संस्थानों और पाठ्यपुस्तकों में प्रवेश की कोशिश होती रही है। राघवेंद्र प्रपन्न अपनी किताब ‘ज्ञान का शिक्षण शास्त्र’ में लिखते हैं कि 2002 में  इतिहास और समाज विज्ञान की स्कूली पाठ्यपुस्तकों से विमर्श के दरकार को हाशिए पर डाला गया। बिना किसी अकादमिक विमर्श के स्कूली पाठ्यपुस्तकों से अमुक अंश, पैराग्राफ, पाठ नहीं पढ़ाने के फरमान जारी कर दिए गए। शिक्षकों को आदेश दे दिया गया कि वे कल से कक्षा में बच्चों से उस खास गद्यांश को न तो पढ़ाएंगे और न ही उस पर किसी भी प्रकार की चर्चा करेंगे। आखिर यह बताने की भी आश्यकता नहीं महसूस की गई कि क्यों उस अंश को पढ़ाने से रोका जा रहा है। शिक्षा को बेहद सहज और सरल मानकर उसकी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ होती रही हैं। इसमें राजनीति दलों ख़ासकर सत्तारूढ़ दलों ने खुल कर ऐसे खेल खेले हैं। इसमें राज्य स्तर पर भी पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों के साथ फेरबदल की गई हैं। राजस्थान, बंगाल, बिहार आदि की पाठ्यपुस्तकों में बड़ी ही साफगोई से यह खेल हुआ है। बंगाल के स्कूली पाठ्यपुस्तकों में सिंगुर के आंदोलन को ममता बैनर्जी के नाम कर दिया गया। वहीं राजस्थान की किताबों में भी तत्कालीन मुख्यमंत्रियों के जीवन चरित को शामिल किया गया। पाठ्यपुस्तकें भी समाज का जीता जागता आईना हुआ करती हैं और इसमें हम समाज के हलचलों, छटपटाहटों को देख और पढ़ सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसके पीछे अकादमिक विमर्श की आवश्यकता महसूस की गई। क्या शामिल करने से पहले इस पर शैक्षिक चर्चाएं हुईं?

शिक्षा और साहित्य को जब तब अपने निजी स्वार्थ पूर्ति के लिए इस्तमाल किए जाने की घटनाएं होती रही हैं। कमलानंद झा अपनी पुस्तक ‘पाठ्यपुस्तकों की राजनीति’ में बड़ी शिद्दत से यह सवाल उठाते हैं कि किस प्रकार विभिन्न राजनीतिक दलों ने समय समय पर सत्ता में आने के बाद अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को आगे बढ़ाने के लिए स्कूली पाठ्यपुस्तकों का गलत इस्तेमाल किया। सरकार जिस भी राजनीति दल की सत्ता में आई उन्होंने स्कूली पाठ्यपुस्तकों के साथ छेड़छाड़ करन में पीछे नहीं रहे। माना जाता है कि स्कूली पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यचर्याएं बड़ी ही आसानी से अपने हित में प्रयोग की जा सकती हैं। एनसीइआरटी एक स्वायत्त विमर्श संस्था है जो सरकार को स्कूली शिक्षा के बाबत राय देती है। यही इसकी भूमिका है। सरकार इसकी बात मानें या न माने इसपर संस्था की कोई पकड़ नहीं है। इतिहास गवाह है कि हर सरकार सत्ता में आते ही एनसीइआरटी और मानव संसाधन मंत्रालय का अपने हित साधन के लिए प्रयोग करना शुरू करती है। सरकारें अपनी वैचारिक तंत्र को मजबूत करने वाले लोगों को इन संस्थानों पर प्रमुख पदों पर नियुक्त किया करती है ताकि मन चाही रद्दोबदल की जा सके। आज की तारीख में प्रमुख शैक्षिक संस्थानों पर वर्तमान सरकार के मतों में हां में हां मिलाने वालों को ऐसी संस्थाएं सौंपी गई हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट, भारत, इतिहास, संस्कृति, भाषा आदि के अगुए संस्थानों में भी वर्तमान सरकार के अपने विचारधारा को पोषित करने वाले लोग हैं। वे वही करते हैं जो सरकार कराना चाहती है। सबसे ज्यादा बदलाव एनसीइआरटी ने 2000 के आस पास स्कूली पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यचर्याओं में की। इस पाठ्यर्चा 2000 पर आधारित पुस्तकों पर भी भगवाकरण का आरोप लगा। यदि ठहर कर इन किताबों को पाठ्यचर्याओं का अनुशीलन करें तो यह आरोप बेबुनियाद नहीं हैं।

शिक्षा और शिक्षण की दिशा और दशा तय हो तो उससे देश को भी रास्ते मिलते हैं। देश की युवा पीढ़ी को शिक्षा क्या राह व रोशनी दिखाना चाहती है यह काफी कुछ तत्कालीन सरकार की दृष्टि और मान्यताओं पर निर्भर करती है। प्रत्येक सरकार की अपनी प्रतिबद्धताएं रही हैं। जब प्रो अनिल सद्गोपाल 1990 की चर्चा करते हैं तब हमें यह समझने की आवश्यकता है कि तब की सरकार की नजर में क्या करना प्राथमिकता की सूची में पहला था। वह सरकार उस वक्त सरकारी शिक्षण संस्थानों को चलाने  अपना हाथ पीछे खींचना चाह रही थी। वहीं दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर बाजार का आर्थिकी दबाव सरकार पर थी। सरकार ने विश्व बैंक और बाजार को सरकारी शैक्षिक संस्थानों के संचालन का काम सौंप दिया। इसे 2000 के आस पास बिड़ला अंबान समिति की रिपोर्ट में भी देख सकते हैं जिन्होंने सरकारी शैक्षिक संस्थानों को निजी हाथों में सौंपे जाने की सिफारिश की थी। सरकार ने इस समिति के सुझावों को माना भी। जब भी बाजार और सरकार एक मंच पर आती हैं तब सबसे पहला शिकार शिक्षा होती है। क्योंकि शिक्षा एक साफ्ट टारगेटेड रही है। विरोध करने वाले अकादमिक विमर्शकार, शिशाविदों को अपनी नौकरी बचानी ज्यादा पसंद है बजाए कि शिक्षा को बचाई जाए।

हालांकि प्रो अनिल सद्गोपाल जैसे शिक्षाविद और जनांनदोलन से जुड़े शिक्षविद् कम हैं जो शिक्षा की प्रकृति और संस्थानों को बचाने के लिए आगे आएं। अमूमन सरकारी फरमानों को मान और स्वीकारने वालों की संख्या ज्यादा है इसलिए शिक्षा के साथ कोई भी कभी भी मनचाही पहलकदमियां थोप देता है। इसका विरोध, और प्रतिवाद नागर समाज करना भूल जाती है। कुछेक सुगबुगाहटें हुई हैं जिनकी वजह से 2002 में शैक्षिक मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा और उसका सकरात्मक परिणाम भी मिले। उसी तरह से शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 में 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की शिक्षा की बात तो की गई किन्तु बड़ी चतुराई से 0 से 6 आयु वर्ग के बच्चों के अधिकार पर सरकार मौन हो गई। इस सरकारी चुप्पी पर देश भर में आवाजें उठीं। बड़ी तेजी से नागर समाज वकालत कर रही है कि आरटीई में 0 से 6 आयु वर्ग के बच्चों को शामिल किया जाए। संभावना बनती है कि नागर समाज के इस व्यापक वकालत की वजह से संशोधन हो पाए। शिक्षा वास्तव में जीवन की बेहतरी और समाज सापेक्ष रही है।इसके गठन में वर्तमान चुनौतियों और बाजार के दबाव भी रहे हैं। किन्तु हमें यह समझने की आवश्यकता हैकि हम अपनी शैक्षिक संस्थानों को निजी हित साधकों के माध्यम बनाना चाहते हैं या समाज के सर्वांगीण विकास का औजार।

चेतन भगत के उपन्यास फाइब प्वाइंट समवन, टू स्टेट, वन नाइट एट कॉल सेंटर आदि कोई न तो अंग्रेजी साहित्ययकारों ने गंभीरता से लिया है और न अंग्रेजी साहित्य के पाठकों ने ही इसकी प्रशंसा की है। इतना श्रेय जरूर है कि चेतन भगत के उपन्यासों के पाठक काॅलेज के छात्र हैं। छात्रों ने रूचि लेकर पढ़े। इसकी भाषा, वाक्य संरचनाएं बेहद सहज और सरल हैं। लेकिन समग्रता में देखें तो इन उपन्यासों के कथ्य बेहद सतही और उथले हैं। कॅालेज के प्रांगण को प्रमुखता से चित्रित किया है इसलिए भी छात्रों को ज्यादा पसंद आईं। अभी चेतन भगत की रचनाओं की समीक्षा और समालोचना होना बाकी है। लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि विश्वविद्याल के अकादमिक समिति को पुनर्विचार करना होगा कि हमें भविष्य में किस प्रकार के साहित्य को प्रश्रय दे रहे हैं और उसके पीछे क्या सम्यक तर्क और विमर्श शामिल किए गए।

कौशलेंद्र प्रपन्न

डी 11/25 सेकेंड फ्लोर रोहिणी सेक्टर 8

दिल्ली 110085

 

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

पुतिन की नफ़रत, एलेना का देशप्रेम

इस साल डाक्यूमेंट्री ‘20 डेज़ इन मारियुपोल’ को ऑस्कर दिया गया है। इसी बहाने रूसी …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *