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हमारे दिनों का अनुसंधान है इरा टाक की ‘रात पहेली’

बीते विश्व पुस्तक मेले में इरा टाक का कहानी संग्रह आया था ‘रात पहेली‘, संग्रह की कहानियों पर बहुत विस्तृत लेख लिखा है लेखक-पत्रकार प्रकाश के रे ने- मॉडरेटर

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प्रेम, प्रेम संबंध और स्त्री-पुरुष के समीकरणों को टटोलना साहित्य का आदिम स्वभाव है. नवोदित रचनाकार भी इस प्रभाव से अछूते नहीं हैं. इरा टाक का कहानी संस्करण ‘रात पहेली’ इसी सिलसिले की एक कड़ी है. कविताओं और कहानियों के सृजन के साथ वे पेंटिंग में भी ख़ासा सक्रिय हैं तथा इन दिनों सिनेमा से भी जुड़ी हुई हैं. उनकी बहुआयामी रचनाशीलता की झलक ‘रात पहेली’ की छह कहानियों में बार-बार मिलती है तथा पाठक के रसास्वादन को विस्तार देती है. इस पहली किताब के पहले प्रकाशन के चंद महीनों में तीन संस्करण आ जाना इरा टाक की सफलता का एक प्रमाण है. इससे भविष्य में उनसे बहुत उम्मीदें भी बँधती हैं.

कहानियाँ आम तौर पर मध्यम आयवर्गीय समाज के चरित्रों के भावनात्मक, शारीरिक और संवेदनात्मक अनुभवों और आकांक्षाओं को रेखांकित करने का प्रयास करती हैं. इस प्रयास में वे असुरक्षा और किंकर्तव्यविमूढ़ता के संकट को भी चिन्हित करती हैं. आधुनिक समाज में भीड़ और शोर के बीच एकाकीपन और उदास बेचैनी का आलम सघन होता जा रहा है. ऐसे में एक बहुत आत्मीय के संपर्क, स्पर्श और संसर्ग के लिए आंतरिक उतावलापन भी सघन होता जा रहा है. अपराध और अवसाद के निरंतर विकराल होने जाने के पीछे भी इस मौज़ूदा माहौल की बड़ी भूमिका है. हालाँकि ये कहानियाँ पेचीदगियों की टोह लेने के लिए गहरे में नहीं उतरती हैं, पर उधर इशारा ज़रूर कर देती हैं. इस लिहाज से भी इन कहानियों को पढ़ा जाना चाहिए ताकि हमारे मन की गाँठें भी कुछ खुल सकें.

पहली किताब से हिंदी साहित्य के परिवेश में इरा टाक ने दस्तक तो दे दी है, पर उन्हें निरंतर सक्रिय रहना होगा और बेहतर रचने की कोशिश करनी होगी. इसमें उन्हें इस संग्रह की कहानियाँ भी मदद कर सकती हैं. कहीं कहीं कहानीकार चरित्रों का परिचय कराते हुए जल्दबाज़ी कर जाती हैं, तो कहीं कहीं उनके अस्पष्ट रह जाने से दिक्कत भी होती है. कुछ कहानियों के अंत कहानी के अपने लॉजिक को छोड़ कहानीकार के निर्देशानुसार होते हैं.

इरा की चित्रकला और सिनेमा की समझ जहाँ कहानियों की दृश्यात्मकता को उजास देती है, वहीं उनका निर्देशक और कूचीधारक मानस चरित्रों को किसी जड़ आदर्शवाद में सीमित करने का प्रयास भी करता है. समाज और सोच के स्थापित मानदंडों के घेरे से पैदा बेचैनी और स्वतंत्रता के स्वाभाविक मानवीय आकाँक्षाओं से चरित्र उद्वेलित होते हैं, पर अक्सर अंत में वे अपने बाड़े में लौट आते हैं, और संतोष के साथ लौट आते हैं. संभावनाओं की तलाश बारहा यथा-स्थिति के दायरे में दम तोड़ देती है. लेकिन दिलचस्प बात यहा है कि यह सब कुछ बहुत सरल तरीके से बयान होता है, और बहुधा थोपा हुआ प्रतीत नहीं होता है. यह कहानीकार की क़ाबिलियत का कमाल है. पर, मेरा मानना है कि चरित्रों और कथानक को अपनी स्वतंत्र गति लेने की छूट और सहूलियत रचानाकार को मुहैया करानी चाहिए ताकि मन और जीवन के अधिकाधिक पेंच नमूदार हो सकें.

यह कहा जाना चाहिए कि जगरनॉट बुक्स पर प्रकाशित उनके पहले उपन्यास ‘रिस्क@इश्क़’ में अलहदा मिज़ाज़ मिलता है. यह इरा से बँधी उम्मीदों को मजबूती देता है. उनके दो कविता-संग्रह पहले ही प्रकाशित हो चुके हैं.

इन कहानियों में सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि कहीं भी वे स्थूल बौद्धिकता या सतही भावुकता से पाठक को संत्रास नहीं देती हैं. वादों-विवादों और प्रवचनों-भाषणों से बच पाना रचनाकार की सबसे बड़ी चुनौती होती है. इस चुनौती का सामना सफलता से किया है इरा टाक ने. इससे चरित्र और घटनाओं को यथार्थ का आवरण मिला है. यह विशेषता हमें उनसे जोड़ देती है और हम कहानी में रमते जाते हैं.

चित्रकला, चित्रपट, कविता, कहानी और उपन्यास जैसे बहुविधाओं में सक्रिय इरा टाक हिंदी के युवा लेखन की दुनिया में एक शुभ धमक हैं. यह संतोष की बात है कि उनका स्वागत भी हुआ है. उम्मीद है कि उनकी भावी रचनाएँ चरित्रों को अधिक उदात्त और आज़ाद माहौल और मौक़ा देंगी.

 
      

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