यूँ तो हबीब तनवीर को याद करने के लिए दिन विशेष की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जो धरोहर वह छोड़ कर गए हैं उसे सहेजने के लिए साल के 365 दिन भी कम पड़ते हैं. आज उनकी पुण्यतिथि है तो उनकी याद आना लाज़िमी है जिन्हें रंगमंच में क्रांति का उद्भव कहा जाता है. संगीत और कविता में उनकी दिलचस्पी, शोषित-उपेक्षित लोगों के लिए उनका सरोकार उनके नाटकों में उभर कर आता है. छतीसगढ़ी परम्पराओं को नयी दृष्टि से देख उन्होंने उसे पूरे जोशो-ख़रोश से उन्हें मंच पर प्रस्तुत किया. उनके नाटकों में गीत-संगीत का विशेष महत्त्व रहा है. हबीब तनवीर की पुण्यतिथि पर उनके नाटकों के कुछ गीत– दिव्या विजय
आगरा बाज़ार
1954 की बात है नज़ीर दिवस आने को था उन्हीं दिनों हबीब तनवीर के पास अलीगढ़ विश्वविद्यालय के दिनों के एक मित्र अथर परवेज़ ने उनसे पूछा कि नज़ीर दिवस के उपलक्ष्य में क्या वे कोई फ़ीचर करना चाहेंगे? उनके कहने पर हबीब ने जो पहला प्रयास किया वो किसी फ़र्स्ट ड्राफ़्ट की तरह था जहाँ स्टेज पर बस मूवमेंट्स हो रहे थे उसमें नज़ीर को बयान करने के लिए उनकी कविताओं के साथ एक छोटे-से क़िस्से को पिरोया गया था. पर उत्तरोत्तर इसमें बदलाव आते गये, शुरूआत में यह विद्यार्थियों और शिक्षकों के साथ किया गया जिसकी रिहसर्ल्स देखने ओखला गाँव के लोग आते थे. एक बार हबीब ने सीधे स्टेज पर बैठ कर देखने के लिए आमंत्रित किया, इस तरह वो नाटक का हिस्सा हो गये. प्रदर्शन के दिन रामलीला ग्राउंड में स्टेज पर क़रीब 70 लोग थे. इस प्रयोग से यह नाटक यथार्थ के बहुत नज़दीक पहुँच गया. यह नाटक आगे चलकर हबीब तनवीर की पहचान बन गया. यह पंक्तियाँ आगरा बाज़ार की आरंभिक पंक्तियाँ हैं.
है अब तो कुछ सुखन का मेरे कारोबार बंद
रहती है तब अ सोच में लैलो-निहारबंद
दरिया सुखन की फिक्र का है मौजदार बंद
हो किस तरह न मुंह में जुबां बार-बार बंद
जब आगरे की ख़ल्क का हो रोज़गार बंद
जितने हैं आज आगरे में कारखाना जात
सब पर पड़ी हैं आन के रोज़ी की मुश्किलात
किस-किस के दुख को रोइये और किसकी कहिये बात
रोज़ी के अब दरख़्त का मिलता नहीं है पात
ऐसी हवा कुछ आके हुई एक बार बंद
सर्राफ़,बनिये,जौहरी और सेठ-साहूकार
देते थे सबको नक़द,सो खाते हैं अब उधार
बाज़ार में उड़े हैं, पड़ी ख़ाक बेशुमार
बैठे हैं यूँ दुकानों में अपनी दुकानदार
जैसे कि चोर बैठे हों क़ैदी कतारबंद
बेवारिसी से आगरा ऐसा हुआ तबाह
टूटी हवेलियाँ हैं तो टूटी शहर पनाह
होता है बाग़बां से हर इक बाग़ का निबाह
वह बाग़ किस तरह न लुटे और उजड़े, आह !
जिसका न बाग़बां हो,न माली,न ख़ारबंद
आशिक कहो, असीर कहो, आगरे का है
मुल्ला कहो,दबीर कहो, आगरे का है
मुफ़लिस कहो,फ़कीर कहो,आगरे का है
शायर कहो,’नज़ीर’कहो,आगरे का है
इस वास्ते ये उसने लिखे पाँच-चार बंद।
चरण दास चोर
1974 के अंत में भिलाई में जब हबीब कार्यशाला आयोजित कर रहे थे तब दर्शकों में सतनामी बहुल संख्या में होते थे. उन्हीं से प्रेरित हो कर हबीब को ‘चरणदास चोर’ नाटक के केंद्रीय भाव का विचार आया. इस नाटक की मूल स्थापना है कि सत्य ही ईश्वर है, निम्नलिखित गीत से ही यह नाटक आरंभ होता है.
‘सत्यनाम! सत्यनाम! सत्यनाम!
सार गुरू महिमा अपार,अमृत धार बहाई दे।
हो जाही बेड़ा पार,
सत्यगुरू ज्ञान लगाई दे!
सत्यलोक से सत्तगुरू आये हो
अमृतधारा ला सत्त भर लाये हो
अमृत दे के बाबा कर दे सुधार
तर जाही संसार।
सत्यगुरू ज्ञान लगाई दे!
सत्य के तराजू में दुनिया ला तोलो जी
गुरूजी बताइन सच-सच बोलो जी
सत्य के बोलिया मन हावे दुई चार!
वही गुरू है हमारा! अमृत धार बहाई दे!
सत्यनाम! सत्यनाम! सत्यनाम!
सार गुरू महिमा अपार
अमृत धार बहाई दे।
तो जाही बेड़ा पार,
सत्यगुरू ज्ञान लगाई दे!
मिट्टी की गाड़ी
हबीब तनवीर का मानना था कि लोक नाट्य की शैली और तकनीक दरअसल संस्कृत नाट्य की शैली और तकनीक के ही समान है. लंदन से लौटकर हबीब ने महाकवि शूद्रक के नाटक मृच्छकटिकम पर आधारित इस नाटक को प्रोड्यूस किया. छत्तीसगढ़ी का यह उनका पहला प्रमुख नाटक था. पारंपरिक तौर-तरीक़ों को दिखाने के लिए उन्होंने छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों को इस नाटक में सम्मिलित किया. निम्नांकित पंक्तियों में मिट्टी की गाड़ी द्वारा समाज-व्यवस्था को चुनौती दी गयी है.
निर्धन का दुःख दूर हो कैसे
जब कोई उसका मीत नहीं
कुछ उसकी मर्यादा इज्जत
कोई जीवन रीत नहीं
मित्र विमुख अपने बेगाने
जल बुझते हैं स्वप्न सुहाने
घटते चन्द्र के समान
उसकी मौत के पल जाने-पहचाने
आंसू बनकर बहने वाले
गीत बिना कोई रीत नहीं
निर्धन का दुख दूर हो कैसे
जब कोई उसका मीत नहीं
कुछ उसकी मर्यादा इज्जत
कोई जीवन रीत नहीं
अंतःकरण की विकट दशा
भगवन कोई तुझ बिन जाने ना
मुंह देखे की प्रीत जताए
फिर दुनिया पहचाने ना
दरिद्रता अतिशय दुखदाई
संकट निर्लज्जता कठिनाई
घृणा विपदा जगत हंसाई
छिन जाए गुण और चतुराई
दुखियारी को दुख देना तो
भगवानों की रीत नहीं
निर्धन का दुख दूर हो कैसे
जब कोई उसका मीत नहीं
कुछ उसकी मर्यादा इज्जत
कोई जीवन रीत नहीं
निर्धन का दुख दूर हो कैसे
ये मैंने अभी देखा , हबीब तनवीर के नाटकों में जो सबसे अच्छा नाटक था – देख रहे हैं नयन – कुछ उसके गाने भी इसमें जोड़ दीजिये – मसलन – दुनिया में नाम कमाने में भी …और ‘सपना ‘ के कुछ गाने कमाल के हैं – वैसे तो थियेटर संगीत के लिहाज़ से हबीब साब ने बहुत काम किया था पर कुछ और गीत आगरा बाज़ार के भी आ सकते हैं जैसे – आदमीनामा , होली का गाना वगेरह