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मैं बहुत ही निम्नकोटि के चित्रपट देख रहा हूँ-प्रेमचंद

संपादक-कवि पीयूष दईया अपनी शोध योजना के दौरान दुर्लभ रचनाओं की खोज करते हैं और हमसे साझा भी करते हों. इस बार तो उन्होंने बहुत दिलचस्प सामग्री खोजी है. 1930 के दशक में प्रेमचंद का एक इंटरव्यू गुजराती के एक पत्र में प्रकाशित हुआ. बाद में वह प्रेमचंद सम्पादित पत्रिका ‘जागरण’ में प्रकाशित हुआ.यही दुर्लभ इंटरव्यू आज पेश है जानकीपुल  पर-


श्रीमान प्रेमचंद जी से भेंट : चित्रपट के संबंध में उनके विचार

 

हिन्दी भाषा के सुप्रसिद्ध उपन्यास सम्राट श्रीमान प्रेमचंद जी गत रविवार को बम्बई आए थे उनकी श्रेष्ठ कृति सेवासदन को स्थानीय महालक्ष्मी कंपनी स्क्रीन पर आरंभ करने वाली है. उसके विषय में सलाह और सूचनायें लेने के लिए कंपनी ने श्री प्रेमचंद जी को निमंत्रित किया था. इस अवसर से लाभ उठाकर हमने भी उनका इंटरव्यू श्री नानूभाई जी वकील के निवास स्थान पर लिया था. इस इंटरव्यू के समय हमने श्री प्रेमचंद जी से कयी प्रश्न किए थे और श्री प्रेमचन्द जी को उनका पृथक-पृथक उत्तर देने का कष्ट दिया था.

 

उन प्रश्नों को हम यहाँ उद्धृत करते हैं —

 

चित्रपटकला के विषय में आपके क्या विचार हैं?

 

इस विषय में मैं कोई अभ्यास नहीं रखता किन्तु मेरा व्यक्तिगत विचार तो यह है कि चित्रपट-कला में कला का तो अभी नाम भी नहीं दिखलाई पड़ रहा है. कलापूर्ण अथवा कला की छटा द्वारा जनता को मुग्ध कर देनेवाले बेजोड़ चित्रपट तो अभी बने ही कहाँ हैं? अधिकांश में ऐतिहासिक और पौराणिक चित्रपट ही बना करते हैं. कला तो दूर रहा परंतु चित्रपटों में साहित्य की छाया भी तो दिखलाई नहीं पड़ती. साहित्यिक दृष्टि से सर्वोपरि कहे जा सकें ऐसे चित्रपट कहीं कोई बनाता है? और इस कमी अथवा त्रुटि का कारण यह है कि साहित्यकारों को आज के चित्रपट उत्पादकों पर विश्वास नहीं है. कारण यह है कि कथानक चाहे कितना ही सुंदर हो, संभाषण में चाहे जितना साहित्य का पुट हो किन्तु यदि पात्र ओवर एक्टिंग अथवा अनेक त्रुटियों से युक्त अभिनय करें तो इस कथानक का संपूर्ण सत्य नष्ट हो जाएगा. डाइरेक्टर चाहे जितना ज्ञान के भंडार हों, चाहे कला के अवतार हों तथा साहित्य के सिरजनहार हों किंतु वे मूलकथा में अपनी कला का समावेश नहीं करेंगे तो कथानक की कल्पना और भावना हवा में अवश्य उड़ जाएगी. ऐक्टरों और डाइरेक्टरों की इस प्रकार की गड़बड़ से ही फ़िल्म उत्पादकों को उत्तम कथानक नहीं मिलते. और इसका कारण जो मैंने कहा वही है. यदि साहित्यकारों को यह विश्वास न हो कि उनकी कृतियों के साथ न्याय किया जाएगा तो साहित्यकार कभी भी अपनी कृतियाँ उन्हें नहीं देंगे. और जब तक उत्तम कथानकों का अभाव रहेगा तब तक चित्रपटों में कला अथवा साहित्य का पुट नहीं हो सकता, यह स्पष्ट है. मैं तो ऐसी स्थिति देखना चाहता हूँ कि यह कला सुशिक्षित मनुष्यों के हाथ में आ जाये. सुशिक्षित मनुष्यों के अलावा साहित्य अथवा कला की आशा रखना मूर्खता है.

 

हमारे चित्रपटों में इस समय में पाश्चात्य चित्रपटों का अनुकरण हो रहा है, अतः यह अनुकरण प्रवृत्ति हितकर है या हानिकर?

 

यदि हेतु अच्छा हो तो अनुकरण कुछ हानिकर नहीं है. किंतु अनुकरण के पीछे रुपये कमाने का हेतु न होना चाहिए. अमेरिकन चित्रपट में हमारे समाज के योग्य बहुत कुछ अनुकरण करने के लिए होता है. समाज-सुधार के विचार से हो तभी चित्रपट की ख़ूबी है. अनुकरण वृत्ति के साथ हेतु और भावना भी सच होनी चाहिए.

 

हमारे चित्रपटों में कौन और कितने चित्रपट अच्छे हैं, यह आप कह सकेंगे?

 

मैं बहुत ही निम्नकोटि के चित्रपट देख रहा हूँ. चित्रपट देखने का मुझे शौक नहीं है, इसलिए भी नहीं कभी-कभी कोई चित्रपट देखने लायक भी आते हैं. पूरण भक्त, खुदा की शान जैसे चित्रपट मैंने देखे हैं और वे मुझे पसंद आए हैं. पूरण भक्त के लिए बहुत सी सरस लोक कथायें सुनने में आती हैं किंतु इस चित्रपट ने मुझे कुछ अधिक आकर्षित नहीं किया, हाँ इसमें कला है यह तो मुझे स्वीकार करना ही चाहिए.

 

सेवासदन के विषय में आप क्या कहना चाहते हैं? आपके इस सुप्रसिद्ध कथानक की भावना के अनुरूप चित्रपट यह कंपनी बना सकेगी? मिस ज़ुबैदा और मा. मोहन आपके कथानक के अनुकूल हैं?

 

यह कहा नहीं जा सकता. ज़ुबैदा बानो सुशिक्षित अभिनेत्री हैं. यदि वे अपनी भूमिका का अभ्यास करें तो संभव है सक्सेस हो भी जाये. मोहन भी काम कर जाये ऐसा शिक्षित लड़का है. फिर जो भी हो जाये वही ठीक.

 

इसके पश्चात् प्रेमचंद जी ने जनरल व्यूज़ व्यक्त करते हुए समझाया कि सिनेमा की कला द्वारा समाज की हित साधना की जा सकती है. किंतु यह कला दुधारी तलवार जैसी है, वह बहुत सावधानी से चलाई जानी चाहिए. सिनेमा की कला द्वारा समाज का सुधार हो सकता है किंतु इसी कला से समाज की हानि भी की जा सकती है. कहने का तात्पर्य यह है कि यह कला होनी चाहिए. और इसका सदुपयोग ही होना चाहिए. सदुपयोग का अर्थ है कि यह कला सुशिक्षित आदमियों के हाथ में होनी चाहिए और इसमें अच्छे साहित्यकार और सुशिक्षित कलाकारों का सहयोग होना आवश्यक है.

 

इंटरव्यू समाप्त हुआ. लगभग दो घंटों के पश्चात् हमने श्रीमान प्रेमचंद जी से हमनेे विदा माँग ली.

 
      

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