भारतीय वामपंथ की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वह स्थूलताओं के सहारे चलता है. सतह के ऊपर हलचल देखकर पत्थर चलाने लगता है. पानी की सतह के नीचे मेढक है, मछली है या सांप इसके बारे में सोचता भी नहीं. इसीलिए वामपंथ में अपनी थोड़ी बहुत आस्था रही भी लेकिन वामपंथियों में नहीं रही.
कल सोशल मीडिया पर मेरे कुछ युवा साथियों ने वामपंथ के इसी रूप का प्रदर्शन किया. परिवार के साथ वरिष्ठ आलोचक, जे एन यू के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय की अपने परिवार के साथ किसी सांस्कारिक आयोजन में बैठे हुए दिखाई दे रहे हैं- इस आशय की एक तस्वीर कल सोशल मीडिया पर ऐसे वायरल हो रही थी जैसे कोई अपराधी रंगे हाथों पकड़ा गया हो. भाई, पूजा ही तो कर रहे थे किसी तरह के भ्रष्टाचार में तो लिप्त नहीं थे. मुझे अपने एक प्रिय लेखक की बात हमेशा ही याद आती है ऐसे मौकों पर. एक बार मैं उनके घर गया. अच्छे सम्बन्ध थे. घर में कोई नहीं था, उनको खोजते खोजते मैं उनके स्टडी में पहुँच गया. मुझे आश्चर्य हुआ कि उस स्टडी बताये जा रहे कमरे में कुछ देवताओं की मूर्तियाँ लगी हुई थीं और वे हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे थे. जाहिर है कि वे वामपंथी थे और इसे देखकर मैं भी बहुत हैरान हुआ. मैं बाहर के कमरे में आकर उनका इन्तजार करने लगा. जब वे पाठ निपटाकर आये तो मैंने उनसे पूछा- सर आप भी?
“हनुमान की ही पूजा कर रहा हूँ न किसी अर्जुन सिंह की तो नहीं कर रहा”, उन्होंने मुझे घूरने के कुछ देर बाद जवाब दिया था. यह बात मुझे अच्छी लगी थी. आज भी आदर्श बात लगती है. आखिर इंसान पूजा कब करता है जब वह सांसारिक शक्तियों में अपना विश्वास खोने लगता है. जब उसे लगता है उसकी मुश्किलों का, समाज की मुश्किलों का अंत शायद इसके बाहर की ही किसी शक्ति के बूते की बात हो. वह पूजा सामाजिक भी हो सकती है एकान्तिक भी. आखिर सूखे में बारिश के आमद के लिए भी पूजा पाठ के आयोजन होते हैं, क्रिकेट मैच में जीत के लिए भी तो पूजा पाठ आयोजित होते रहते हैं.
क्या यह विचलन है? मैं फिर कहता हूँ कि समाज की सूक्ष्मताओं को हमारे वामपंथी मित्र समझ ही नहीं पाए. अरे, पूजा करना असामाजिक होकर कमरे में बंद होकर रहना, किसी से न मिलने-जुलने से तो अच्छा ही है. पूजा के एक सामाजिक-पारिवारिक आयोजन में कोई हिंदी लेखक बैठा हुआ है तो इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि वह अपने समाज, अपनी मिटटी, अपनी जड़ों से आज भी गहरे जुड़ा हुआ है.
अरे मेरे वामपंथी साथियों स्थूलताओं से निकलो. समाज को समझना है तो हमारे समाज की उस सामूहिकता को समझो जिसको धार्मिक आयोजन ही एक कर पाते रहे हैं. नास्तिकता का प्रचार करने वाले अकसर गाँव देहातों में विदूषक समझे जाते रहे हैं. याद करो कलकत्ता छाप वामपंथ को जिसने दुर्गा पूजा की सामूहिकता को अपनी सत्ता की ताकत बनाया था.
मैनेजर पाण्डेय जी पूजा ही तो कर रहे थे वैसा तो कुछ नहीं कर रहे थे जिसके लिए वे जाने जाते रहे हैं!
प्रभात रंजन
बढ़िया…आस्था मानसिक व शारीरिक शक्ति का सम्बल…पूजा अर्चना भी निजी सुखाधिकार…लीक से हट कर एक नई अप्रोच दी है आपने, शुक्रिया…