Home / Featured / राकेश शंकर भारती की कहानी ‘रंडियों का दल्ला’

राकेश शंकर भारती की कहानी ‘रंडियों का दल्ला’

राकेश शंकर भारती की कुछ कहानियों ने इधर मेरा ध्यान खींचा है। जेएनयू से पढ़ाई करने के बाद आजकल वे यूक्रेन में रहते हैं। उनकी इस कहानी को पढ़कर मुझे राजकमल चौधरी की याद आ गई। उनकी कहानी ‘जलते हुए मकान में कुछ लोग’ का परिवेश भी यही था लेकिन यह कहानी उससे काफी अलग है। पढ़कर बताइएगा- मौडरेटर

==================================================

अप्रैल का महीना था। बसंत का मौसम आख़िरी पड़ाव में प्रवेश कर चुका था और धूप में तिमाज़त थी। हवा के झोंकों में गर्मी का अहसास हो रहा था। जयकिशन पूरा दिन कमला मार्किट और अजमेरी गेट के आसपास भटकने के बाद पसीना को मैली तौलिया से पोंछते हुए अब नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन के गेट पर आकर खड़ा हो गया था। मेट्रो स्टेशन से बाहर की तरफ़ निकलने वाले हर मुसाफ़िर की तरफ़ वह उम्मीद की निगाह से देख रहा था। मायूसी और हताशा की लकीरें उसके सांवले गोल मटोल चेहरे पर बहुत आसानी से दिखाई दे रही थी। बहुत सारे मुसाफ़िर मेट्रो स्टेशन से बाहर निकलने के बाद नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की तरफ़ जा रहे थे। उसको हर जवान और अधेड़ उम्र के मुसाफ़िरों में उसकी अपनी ज़िंदगी की कामयाबी और आशा की किरणें दिखाई दे रही थी। नौजवान मुसाफ़िरों के पास तेज़ी से पहुँचकर अपने जेब से कई लड़कियों की पुरानी घिसी-पीटी तस्वीरों को निकालकर दिखाता था और बताता था- “इन लड़कियों के सामने हॉलीवुड की हीरोइन भी फेल हो जाएगी। साहब जी! अगर एक बार आप मज़ा चख लोगे तो बार बार यहाँ पर तशरीफ़ लाओगे। आपको खुलकर मज़ा देगी। 400 रूपये से थोड़ा भी ज़्यादा नहीं माँगेगी। आप एक बार मेरे साथ तो चलो, जनाब। ये सारी लड़कियाँ मेरे साथ रहतीं हैं। आपको थोड़ी सी भी दिक्कत नहीं होगी। हर पोज़ में आपको जी भरकर मज़ा देगी। इन लड़कियों के साथ आप हर चीज़ आज़ादी से कर सकते हैं। एक बार मज़ा चख लोगे तो अपनी बीवी को भी भूल जाओगे।“

       इसी तरह के घिसे-पिटे  पैतरे वह सैकड़ों लोगों को अपने पेशेवर लहज़े में सुबह से बयान करता आ रहा था, लेकिन पूरा दिन में एक भी ग्राहक उसके चंगुल में नहीं फँस पाया था। वह एक भूखे चील की तरह बड़ी ही बेताबी और बेसब्री से इन मुसाफिरों के इर्दगिर्द मंडरा रहा था, लेकिन जब इन पैंतरों और दरख्व़ास्तों के बावजूद भी एक भी ग्राहक नहीं फँस पाता तो वह अपने भविष्य के बारे में सोचकर काफ़ी चिंतित हो जाता था। जब उसको नई दिल्ली रेलवे स्टेशन और मेट्रो स्टेशन के गेट पर भी निराशा ही हाथ लगा तो पास के ही बस स्टैंड पर आकर खड़ा हो गया और 604 और 615 नंबर के बस से निकलने वाले हर मुसाफिरों की तरफ़ अपनी पैनी निगाह को दौड़ाने लगा, किंतु यहाँ पर भी जब उसकी दाल नहीं गली तो पास के ही मंदिर के दरवाज़े पर कुछ देर तक खड़ा रहा हो और आख़िरकार इससे भी थक गया। पूरा दिन चिलचिलाती धूप में भटकने के बाद काफ़ी थकावट महसूस कर रहा था और एक क़दम भी आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी, फिर उसके पाँव पहाड़गंज की तरफ़ जाने वाला पुल की तरफ़ ख़ुद ही बढ़ने लगे। वह कुछ सोचते सोचते पुल की तरफ़ जा रहा था- “आज से तीन साल पहले कितना अच्छा कारोबार चल रहा था। दिन भर में दस से भी ज़्यादा ग्राहक फँस ही जाता था और अब बड़ी मुश्किल से दिन भर में दो तीन ग्राहक ही फँस पाते हैं और कभी कभी तो शून्य पर ही घड़ी की सुई आकर अटक जाती है। पता नहीं, अब क्या करूँ। कुछ भी समझ में नहीं आता है।“

 तमाम बातों को सोचते सोचते वह अब उस लंबे पुल पर आकर खड़ा हो गया और पुल के नीचे से होकर आगे की तरफ़ जा रही रेलगाड़ियों की तरफ़ देखने लगा और जेब से एक सिगरेट निकालकर पीने लगा। रेलगाड़ियों के इंजनों से उठ रहे धुएँ उसके चेहरे को चूमते हुए फ़िज़ा में धुंध फैला रहे थे। रेलगाड़ियों की हॉर्न की आवाज़ कानों तक गूंज रही थी। रेलवे जंक्शन पर खड़ी रेल गाड़ियों पर कभी नज़र को फैलाकर देखता था और कभी सामने पुल की उस तरफ़ पहाड़गंज के बाज़ार की तरफ़ उसी पुराना अंदाज़ में देखने लगता था, जहाँ से वह एक साल पहले तक चार पाँच ग्राहक को पटाकर मद्रासी कोठा में ले आता था और कम से कम एक हज़ार रुपये हर दिन इधर उधर से ऐंठ ही लेता था।

 जितना ज़्यादा फ़िक्रमंद हो रहा था, उतना ही ज़्यादा पूरे शरीर में थकावट महसूस कर रहा था और चाहकर भी पहाड़गंज की तरफ़ उसके क़दम नहीं बढ़ रहे थे। अब वह निराश होकर फिर से पीछे की तरफ़ बढ़ने लगा। जैसे ही चौराहे के पास पहुँचा, उसकी निगाह एक शख्स पर पड़ी। जिस तरह एक भूखा गिद्ध काफ़ी दूर से आसमान में चक्कर लगाते हुए अपना आहार को ढूंड निकलता है, उसी तरह से जयकिशन ने दूर से इस शख्स को देखा और उसकी बांछें खिल उठीं। आगे बढ़कर उस आदमी का रास्ता रोका और बोला, “साहब जी, आपको माल चाहिए क्या? चलो मेरे साथ, मैं आपको टंच माल दिलवाऊँगा। चार सौ से एक भी रूपया ज़्यादा नहीं लेगी। आप डरो मत, मेरे पर विश्वास करो।“

  इस पर ग्राहक कुछ देर के लिये घबराया और मन ही मन सोचने लगा- “पहली बार जी. बी. रोड आया हूँ। कहीं लूट तो नहीं लेगा। खैर, एक बार चलकर देख लेता हूँ। महंगा कपड़ा भी नहीं पहन रखा हूँ। साथ में मोबाइल भी नोकिया का पुराना सेट है। इसे लेकर भी वे लोग क्या करेंगे? पैसे तो सात सौ से ज़्यादा जेब में है नहीं। एक बार जी. बी. रोड का भी मज़ा चख लेते हैं।“

दो तीन मिनट तक वह कुछ सोचता रहा और फिर जयकिशन के साथ चल दिया। “क्या नाम है तुम्हारा जी?”

“सर, जयकिशन”

“कोठा यहाँ से कितनी दूरी पर है?”

“बस चौराहे से दस क़दम आगे चलने पर पहला कोठा अपना ही है। आप परेशान मत होना। मेरे रहते हुए आपका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता है। अगर आप एक बार कर लोगे तो हर बार मुझे फ़ोन करके यहाँ आ जाओगे।“

कोठा के सामने पहुंचकर झिझकते हुए दिनेश बोला, “तुम अपना मोबाइल नंबर लिखवाओ मुझे, तभी मैं अंदर जा पाऊंगा।“

“ठीक है, भैया जी। आप मेरा नंबर लिखो।“

दिनेश अपना मोबाइल पर जयकिशन का नंबर डायल किया और थरथराते हुए क़दमों के आहटों के साथ इस मद्रासी कोठा में दाख़िल हुआ। एक पचीस साल की सांवली लड़की एक बेंच पर कई लड़कियों के साथ बैठ हुई थी। जैसे ही दिनेश कोठा में अपना पाँव रखा, वैसे ही तीन चार लड़कियाँ उसके जिस्म से आकर चिपक गईं। जयकिशन बोला- “इसमें से आप किसी को चुन लो, जिसके साथ आप जाना चाहते हो।“

वहाँ पर लगभग सारी लड़कियाँ दक्षिणी भारत से आईं थीं। ज़्यादातर लड़कियाँ तमिल या फिर तेलगू में बात करतीं थीं। दिनेश उसी पचीस साला सांवली लड़की को चुन कर उसके साथ बगल का छोटा सा कमरा में चला गया। अंदर में लड़की एक सौ रूपये ज़्यादा माँगी, जो वह बिना किसी झिझक के उस लड़की को दे दिया। पंद्रह मिनट बाद दिनेश संतुष्ट मुद्रा में कमरा से बाहर निकला। जयकिशन आगे बढ़कर पूछा- “भैया जी, कैसा रहा अनुभव?”

“सब ठीक था। लड़की भी दिल से बहुत अच्छी थी। ईमानदारी से साथ दी। अब फिर कभी आना होगा तो इस नंबर पर कॉल कर लूँगा।“

जयकिशन इत्मीनान से बोला- “ठीक है, भैया जी। खर्चा पानी के लिये पचास रूपये दे दो आप।”

इस पर दिनेश ख़ुशी से अपने जेब से 50 रूपये निकालकर जयकिशन को दे दिया और कोठा से बाहर निकलकर मेट्रो स्टेशन की तरफ़ चला गया।

    जब से मद्रासी कोठा में छुरेबाज़ी की घटना हुई है, तब से इस कोठे में ग्राहकों की आमद में काफ़ी गिरावट आई है। जयकिशन की तरह कितने दल्लों की आमदनी में भी गिरावट हो चुकी है। अक्सर इस कोठे में ग्राहकों के साथ छीना झपटी और खून खराबे की घटनाओं की वजहों से जी. बी. रोड में इस कोठे की शुमार सबसे बदनाम कोठे में होने लगी है। अब तो ग्राहक इस कोठे के परछाई के पास से भी होकर गुज़रना नहीं चाहते हैं। जयकिशन की तरह कई दल्ले ग्राहकों के रास्तों को रोककर लुभाने का लाख कोशिशें करते हैं, फिर भी ग्राहक 64, 56, 57 नंबर कोठे की तरफ़ ही भाग जाते हैं। अब तो मद्रासी कोठे में रंडियों के भी बुरे दिन आ चुके हैं। अब यहाँ पर ग्राहकों की जगह पर मक्खियाँ मंडरातीं रहतीं हैं। कई जवान रंडियाँ तो ईमानदार कोठे में पनाह ले चुकी हैं और कुछ रंडियों के अपने पुराने यार हैं, जिससे कुछ आमदनी तो निकाल ही जाती है। इधर कुछ सालों से मोबाइल और इंटरनेट के चलन ने तो दललों के किरदार को काफ़ी फ़ीका कर दिये हैं। अब तो हर रंडी के हाथ में स्मार्टफ़ोन है और वे अब दललों की मुहताज नहीं रहीं हैं। अब रंडियाँ ख़ुद से ग्राहक को ऑनलाइन भी ढूंड लेतीं हैं और फ़ोन से भी सीधी ग्राहकों से बात कर लेतीं हैं। हाथ में मोबाइल आ जाने के बाद तो कई रंडियों को थोड़ा बहुत अक्षर का भी ज्ञान हो चुका है।

      कई सालों से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन और जी. बी. रोड के दरम्यान रिक्शा चलाने वाले भी दलाली के धंधे में कूद चुके थे, लेकिन जब से दलाली का धंधा सुस्त हो गया है, तब से इन रिक्शा चालकों की आमदनी में भी कमी आ चुकी है और फिर से तन-मन के साथ रिक्शा चलाना ही बेहत्तर समझे हैं। दलाली का धंधा ग्राहकों और दलालों के दरम्यान तवायफ़ों के जिस्मानी सौदेबाजी का धंधा है और एक दल्ला की सारी क़िस्मत और दुनियादारी तवायफ़ की जिस्मानी ख़ूबसूरती और जिस्मानी बनावट के इर्दगिर्द ही चक्कर लगाती रहती है। एक दल्ला रंडी और ग्राहक के बीच में ही पीस कर रह जाता है। रंडी और ग्राहक दोनों के नज़र में दल्ला एक बेईमान और फ़रेबी किरदार है, जिसपर न ही रंडी और न ही ग्राहक कभी भी यकीन कर पाते हैं। दल्ला की ज़िंदगी उसी पुरानी कहावत की तरह है- “धोबी का गदहा न ही घर और न ही घाट का।“

 2009 के सितम्बर महीने से ही जयकिशन की आमदनी हर रोज़ घटती ही गई। जब से माँ उसी साल के दिसंबर की सर्द रात को लंबी बिमारी के बाद सफ़दरजंग हॉस्पिटल में जयकिशन की इस छोटी सी दुनिया से चल बसी, तब से जयकिशन तो काफ़ी तनहा हो चुका है। उस दिन को जयकिशन कभी भी नहीं भूल पाया है, जब वह माँ को कोठे के पाँच छः लोगों के साथ AIIMS के पीछे वाले श्मशानघाट में अपनी भींगी और ग़मज़दा आँखों के साथ मुखाग्नि दिया था। उस समय गिनकर छः लोग उसकी माँ का दाहसंस्कार में आए थे। बचपन से जितना ज़्यादा वह इस भीड़ भार वाली आबादी में रहता आ रहा था, दिल से वह उतना ही ज़्यादा अकेला था। कोठे की इस गुमनाम दुनिया ने उसको उदासी और तन्हाई के सिवाय कुछ भी नहीं दे पाई थी। उसकी ज़िंदगी में बाप का तो नामोनिशान नहीं था। रिश्तेदारों की तो उसकी ज़िंदगी में दूर दूर तक परछाई भी दिखाई नहीं देती थी। उसका कोई भाई-बहन भी नहीं थे। रिश्तेदार के नाम पर तीन चार माँ की ख़ास सहेलियाँ ही कोठे में बच चुकी थीं, जो अब अक्सर बीमार रहतीं थीं और अपने अपने आख़िरी दिनों का इंतज़ार कर रहीं थीं।

 जब उसका धंधा बिलकुल ठप पड़ गया तो नीचे जैन साहब के हार्डवेयर की दुकान पर बैठा रहता था और थोड़ा बहुत उसके कामों में हाथ बंटा देता था। सड़क की उस तरफ़ शराब की दुकान के ठीक बगल में ही पुलिस चौकी थी, जहाँ पर पुलिस के साथ बैठकर दिन भर गप्पे हाँकता रहता था और ताश खेलता रहता था। शराब की दुकान पर थोड़ा बहुत बोतल को ढोने में हाथ बटा देता था। सिगरेट तो वह दिन में पाँच छः बार पी लेता था, किंतु शराब को छूता तक नहीं था। इस कोठे में पैदा होने के बावजूद भी एक सद्गुण उसमें था। पढ़ाई लिखाई का तो बचपन से ही बिलकुल मौक़ा मिला ही नहीं था। अनपढ़ था और दलाली के अलावा दूसरे कामों के बारे में कभी सोचा भी नहीं था और जानकारी भी नहीं थी। इन सब कामों से पेट का खर्च ही निकल पाता था। बारह साल की उम्र में ही दलाली के धंधे में क़दम रख चुका था। उसकी माँ ने उसको बहुत कम उम्र में अपने लिये ग्राहक को तलाश करने के काम करने के लिये मज़बूर की। अब तीस साल का हो चुका था। अठारह साल तक वह दलाली की इस दुनिया में अपना समय बीता चुका था। कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन ऐसा वक़्त भी आएगा, जब यह धंधा बिलकुल चौपट ही हो जाएगा।

    इसी बीच वीर बहादुर से उसकी दोस्ती हो गई। वीर बहादुर 64 नंबर कोठे की मालकिन यमुनाबाई के लिये काम करता था और तीसरी मंज़िल में कैश को संभालता था। वीर बहादुर अक्सर दोपहर को नीचे शराब, कंडोम के ढेर और सब्ज़ी ख़रीदने के लिये आता था। पुलिस वालों ने वीर बहादुर से जयकिशन की दोस्ती करवा दी। कुछ दिनों बाद वीरबहादुर उसको 64 नंबर कोठा में यमुनाबाई से दरख्व़ास्त करके तीसरी मंज़िल में ही उसको काम पर लगवा दिया। वह अब वीर बहादुर के कामों में हाथ बटाने लगा। कोठे के सारे कमरों की सफ़ाई करता था और इस्तेमाल किये गये कंडोम को कमरे से बटोरकर डस्टबिन में रखता था। कभी कभी कैश पर भी बैठ जाता था। छत पर रसोईघर था। प्रमोद थापा रसोईघर का कुक था, जहाँ पर कोठे में रहने वाले सभी लोगों के लिये खाना तैयार किया जाता था। जयकिशन आलू, टमाटर, बैगन वगैरह को काटने में प्रमोद को हाथ बटाता था। इस तरह से अब जयकिशन को दल्लेबाज़ी के धंधे से निजात मिल गई। अब वह नए काम में मसरूफ़ हो गया था, लेकिन कोठे की इस गुमनाम दुनिया से उसको छुटकारा नहीं मिल पाया।

 अपना काम पूरा करके हॉल के उस कोने में कैश पर ही वीर बहादुर के साथ बैठकर गप्पें हाँकता रहता था। सामने सारी रंडियाँ बेंच पर अपने अपने ग्राहकों के साथ चिपकी रहतीं थीं। मुजरे और हिंदी-उर्दू गानों के धुन पर कुछ लड़कियाँ थिरकतीं रहतीं थीं। मद्रासी कोठा से ठीक उलटा 64 नंबर के कोठे में माहौल काफ़ी ख़ुशगवार और रंगीन था। शाम चार बजे के बाद ही इस कोठे में महफ़िल काफ़ी सज-धज जाती थी और यहाँ की आबोहवा में रोमांस क़ायम हो जाता था और सामने का नज़ारा काफ़ी रंगीन हो जाता था, जिसे शुरू के दिनों में जयकिशन दिलचस्पी से देखता रहता था, यह नसीब उसको मद्रासी कोठा में हासिल नहीं हो पाया था। एक हफ़्ता तक वह इस कोठा में काफ़ी ख़ुश रहा।

यहाँ पर तवायफ़ों की भीड़ थी। जयकिशन हसीनाओं के इन मेले में तन्हाई को महसूस करता रहता था। एक दिन अचानक उसकी बड़ी बड़ी काली आँखें एक नौजवान तवायफ़ की काली और झील सी आँखों से टकराईं। वह इक्कीस साल की ख़ूबसूरत तवायफ़ थी। लंबी ज़ुल्फ़ गर्दन से नीचे की तरफ़ लटक रही थी। काली भौंह दोनों आँखों के ऊपर लंबी सी टेढ़ी रेखा बना रही थी। उसके गुलाबी मलमलदार रुख़सार और गुलाबी होंठ चेहरे की ख़ूबसूरती को ज़रूरत से ज़्यादा इज़ाफ़ा कर रहे थे। सारी नेपाली लड़कियों की तुलना में वह थोड़ी सी लंबी थी और बड़ा सा कंधा और बड़ी बड़ी स्तन उसके छरहरे स्लिम बदन की शोभा को बढ़ा रहे थे। चेहरे पर अक्सर हलकी सी मुस्कान तैरती रहती थी। उसके चेहरे पर मासूमियत की लकीरें भी साफ़ साफ़ झलक रहीं थीं। जब दोनों की आँखें आपस में टकराने लगीं तो फिर दोनों ख़ुद-ब-ख़ुद एक दूसरे की तरफ़ खींचने लगे।

“ओये वीरबहादुर, उस लौंडी का क्या नाम है रे? वह तो बेहद सुंदर है बे।“

“अरे वो, वो लौंडी वही शीतल की बेटी ललिता है, यार। मेरे ही तरफ़ की है। पोखरा के पास के ही दूसरे पहाड़ से है।“

जयकिशन थोड़ा सा उदास हो गया और फ़िक्रमंद दिखने लगा। ख़ामोशी की अंदाज़ में कभी वीरबहादुर से अपनी निगाह को बचाकर ललिता की तरफ़ देखने लगता था।

“क्या हो गया, जय? उदास क्यों हो गया? प्रेम रोग से ग्रसित तो नहीं हो गया बे?”

“नहीं, वीर भाई”

“बोल साले, दिल करता है उसके साथ कुछ करने का? चलो मेरे साथ, मैं तुमको एक बार दिलवा देता हूँ?”

“नहीं, वीर भाई, मुझे इस तरह से नहीं चाहिए।“

“अबे साले, तू इतना जज़्बाती कब से हो गया है बे? साला, एक रंडी की ख़ूबसूरती पर फ़िदा हो गया। अरे साला, तुझको शर्म नहीं आती, रंडी का भरवा? देख रे भाय, एक दल्ला एक दो टक्के की वेश्या पर जज़्बात का दरया बहा रहा है।“

वीरबहादुर एक सिगरेट कैश के बक्सा से निकालकर सुलगा लिया और हॉल में अपने चौड़े मुँह और पथरीला नाक से धुआं छोड़ने लगा। बगल में जयकिशन बैठकर कुछ सोच रहा था।

“जय, मेरे प्यारे यार, तुम सच में ललिता पर फ़िदा हो गया?”

जयकिशन अंदरूनी जज़्बात को छुपाकर बोला, “नहीं, वीर भाई। मद्रासी कोठा के बारे में कुछ सोच रहा था।“

वीरबहादुर थोड़ा सा मुस्कुराते हुए बोला, “धुत्त साला, तुम भी एक दल्ला को ठगने चला है। मैं भी रंडियों का दल्ला हूँ। झूट, फ़रेब, प्यार-मुहब्बत के हर दांव-पेंच को जानता हूँ। तुम मेरी नज़र को ठग लेगा। मेरे दोस्त, तुम मुझे इतना ज़्यादा बेवकूफ़ समझता है।“

“नहीं, वीर भाई। आप तो मेरे गुरु हो?”

 “इस तरह दो टक्के की रंडी पर दिली प्यार दिखाओगे तो हो गया, रंडी का धंधा ही चौपट हो जाएगा। मैं कैसा दल्ला हूँ, तुम जानते हो? मेरी सच्चाई को जानते हो? जय, क्या जानते हो तुम मेरे बारे में? तुम कुछ नहीं जानते हो।“

“नहीं, वीर भाई मुझे आप में अटूट श्रद्धा है। आप तो मेरे बुरे दिन का यार हो। आपने ने मुझे नई ज़िंदगी दी है। आपका एहसान मैं कैसे भूल पाऊं?”

“जय, मेरे प्यारे यार, तो आज सुनो मेरी भी सच्चाई। सामने वाले उस बेंच पर आख़िर में जो एक औरत बैठी है, वही लाल सारी में जो है और अपनी ज़ुल्फ़ में गाज़रा लगा रखी है। तुमको दिखाई दे रही है?”

“हाँ, वीर भाई”

“वह अनीता है। दस साल पहले मैं भी उस पर काफ़ी फ़िदा था। लेकिन अब एक ही हॉल में हम दोनों एक दूसरे से अनजाने की तरह रह रहे हैं। मैं कभी कभी ऐसा महसूस करता हूँ कि मैं कभी अनीता से मिला ही नहीं था। अनीता और मेरे दरम्यान कभी मुहब्बत हुई ही नहीं थी। जय, मेरे भाई, समझो इस बात को, हो भी जाती तो क्या हो जाता। यह प्यार मुहब्बत भी अजीब सी चीज़ है, ज़्यादा समय तक नहीं टिकती रे, भाय। मेरे पर यकीन कर तू। वह कभी मेरी थी ही नहीं। मैं उसको यहाँ लाया और बाद में मुझे ही फ़रामोश कर दी, साली। लाया था उस साली को अपनी महबूबा बनाकर, लेकिन ख़ुद इस धंधा में कूद गई, भोंसरी की। मैं क्या करूँ, बता। बोलो, जय, मेरे से क्या ग़लती हो गई? मैंने तो उसको एक अच्छी ज़िंदगी दी। वह पहाड़ में क्या करती? हमेशा ग़रीब ही रह जाती, भोंसरी की। छोड़ो इन बातों को। इनमें क्या रखा है? चल मेरे साथ, आज तुझको स्कॉच का स्वाद चखाता हूँ।“

“नहीं वीर भाई, माफ़ करना। शराब तो मुझे पचती ही नहीं है। पीने के बाद फट से उलटी हो जाती है।“

दो हफ़्ते गुज़र चुके थे। दोनों अक्सर आपस में गुफ़्तगू करने लगे। जयकिशन भी सफ़ाई के काम को जल्द से निपटाकर उसी बेंच पर जाकर बैठ जाता था। जब ललिता ख़ाली रहती और ग्राहक नहीं रहते तो जयकिशन से गुफ़्तगू करती रहती थी। अब वे दोनों आहिस्ता आहिस्ता एक दूसरे के नज़दीक आते गए। दोनों एक दूसरे के स्वभाव को पसंद करने लगे।

 ललिता उन लड़कियों में से थी, जिसपर ग्राहक बहुत ही आसानी से उमड़ पड़ते थे। ललिता की क़ीमत भी कई लड़कियों से ज़्यादा थी। जब उसकी मसरुफ़ियत (व्यस्तता) बहुत ज़्यादा बढ़ जाती थी तो जयकिशन बहुत ज़्यादा बेताब होने लगता था। इसे देखकर रंडियों का एक पेशेवर दल्ला का ज़मीर अंदर से डगमगाने लगा। यही जयकिशन कुछ महीने पहले तक रंडियों के लिये नई दिल्ली रेलवे स्टेशन और मेट्रो स्टेशन के इर्दगिद ग्राहकों की तलाश में भटकता रहता था और आज वह दल्ला जब देखा कि ललिता के साथ कोई ग्राहक कमरा में अंदर घुस रहा है तो अंदर से उसका दिल जलने लगा। 18 साल एक बहुत बड़ा अरसा होता है। इतना लम्बा समय वह दलाली में गुज़र चुका था। इस दौरान वह कभी सोचा भी नहीं था कि उसको ऐसा दिन भी देखना पड़ेगा, जब एक रंडी के आसपास ग्राहकों को देखकर उसका दिल अंदर से जलने लगेगा। वह एक से एक ख़ूबसूरत रंडियों के लिये दल्ला को पटाकर मद्रासी कोठा में लाया था। उस ज़माने में कभी भी दिल में एक तवायफ़ के प्रति ऐसी भावना और संवेदनाओं का असीम दरया नहीं बहा था। जितना बार वह ग्राहकों के साथ कमरा में अंदर घुसती थी, उतना ही ज़्यादा जयकिशन महसूस करता था कि उसके कलेजा पर कोई हथोड़ा से चोट मार रहा है और दिल की गहराई में उसी मछली की तरह तड़पने लगता था, मानो किसी ने उसको निर्मल पानी से निकालकर किनारे रेत पर रख दिया हो। इसे देखते देखते रात का नौ बज चुका था। ग्राहक अब घटने लगे थे। पुलिसवाले हर शाम की तरह आज भी कोठा में घुसकर अपने पुराने डंडों से ग्राहकों को बाहर निकाल रहे थे। जो ग्राहक पूरी रात के लिये कूपन कटवाए थे, उसे पुलिस के छापा मारने से पहले छत पर लाकर बैठा दिया गया था। वैसे तो यह नाम का छापा था। दस मिनट के अंदर ही पुलिसवाले कोठा से बाहर निकलकर 56, 57 नंबर कोठे की तरफ़ चले गए। अंदर सड़क पर सन्नाटा छा गया था। बाहर कुत्ते बार-बार बिना किसी उद्देश्य के भौंक रहे थे। हार्डवेयर की सारी दुकानें बंद हो चुकीं थीं। नीचे मालगाड़ी में काम करने वाले मज़दूर, रिक्शा चालक खर्राटा ले रहे थे। सड़क के किनारे कुछ ट्यूबलाइट धीमी धीमी जगमगा रहे थे। बीच बीच में रेलगाड़ी की आवाज़ सुनाई दे रही थी।

  ललिता के नसीब में आज की रात बस दो ग्राहक थे, जिनके साथ बीच बीच में बारी बारी से रात गुज़ारनी थी। एक पचपन साल का ग्राहक था, जो मुम्बई से बिज़नेस के लिये यहाँ आया था और पाँच बजे सुबह की मुम्बई वापसी की ट्रेन थी, इसीलिए पूरी रात रेलवे जंक्शन पर झक मारने के बजाय इस रंगीन कोठा में ही समय बिताना बेहतर समझा। एक ग्राहक 25 साल का नौजवान था और गुड़गाँव के किसी जापानी ऑटोमोबाइल कंपनी में इंजीनियर था। और शनिवार की छुट्टी यहीं पर गुज़ारना मुनासिब समझा। दो घंटे ललिता दोनों ग्राहकों के साथ बारी बारी से वक़्त गुज़ारने के बाद जयकिशन के पास छत पर आ गई। जयकिशन चटाई पर लेटकर आसमान की तरफ़ फ़िक्रमंद होकर चाँद और सितारों की ख़ूबसूरती का अवलोकन कर रहा था।

“जय! तुम सो रहे हो क्या? ग्राहक को निपटाने में देर हो गई। वहाँ भी मुझे सिर्फ़ तुम्हारी याद आ रही थी। तुम्हारे लिये प्रमोद से कहकर खाना रखवा दी थी। तुम अभी तक खाना क्यों नहीं खाया? मेरे चक्कर में कब तक देर रात तक भूखे रहोगे? मेरा तो यह धंधा ही है, कभी कभी तो रात को ग्राहक से फ़ुर्सत नहीं मिल पाती है तो देर रात को खाना नहीं खाती हूँ।”

“तुम्हारा राह देख रहा था। सोचा कि जब तुम आओगी तो साथ में खाना खाएँगे। चलो तो फिर अब खाना खा लेते हैं।”

 “ठीक है, जय। तुम इस तरह से मेरा राह मत देखा करो। शाम को खाना खा लिया करो।“

 रात का ग्यारह बज चुका था। कोठे में ज़्यादातर ग्राहक पहले ही सो चुके थे। पाँच छः ग्राहक छत की दूसरी तरफ़ शराब के नशे में मदहोश होकर खर्राटा ले रहे थे। फ़िज़ा में ख़ामोशी का आलम था। सिर्फ़ जयकिशन और ललिता जगे हुए थे। दोनों मिलकर एक ही थाली में चावल और मछली करही खाने लगे। चाँद की नैसर्गिक रौशनी तारीकी को खदेड़ कर दूर भगा चुकी थी और ललिता का गौरा रुख़सार चाँद की तरह ही जगमगा रहा था और जयकिशन के साँवले चेहरे से अच्छी तरह से मेल खा रहा था। दोनों के चेहरे पर इस समय मुस्कुराहट क़ायम थी और बड़ी ही इत्मीनान से एक दूसरे की आँखों से आँखों को मिलाकर खाना खा रहे थे। दोनों अब खाना खाकर एक दूसरे से चिपककर लेट गए। जयकिशन ललिता के थके मारे जिस्म को सहला रहे थे और गुफ़्तगू में खो हुए थे। “ललिता, तुम बहुत थक जाती हो। मुझे यह सब देखकर अब रहा नहीं जाता। मेरी आत्मा व्याकुल हो उठती है। कुछ समझ में नहीं आता है कि क्या करूँ। कल रात को जो कुछ मैंने तुमको बताया था, तुम उस पर सोच विचार की थी क्या।“

“जय! धीमी स्वर में बोलो, दीवार को भी कान होता है। कई दिनों से तुमको मैं एक बात बताना चाहती थी। चलो तो आज की इस चाँदनी रात में तुम्हें बता ही देती हूँ। तुम यहाँ से कहीं दूर चले जाओ। जो तुम सोचते हो, यह मेरा भी सपना है, लेकिन यह सपना कभी साकार नहीं हो पाएगा। इस तरह का सपना अक्सर अधूरा ही रह जाता है। मैं ऐसी भथेरे प्यार मुहब्बत के अंजामों को देखी हूँ। तुम इस हक़ीक़त को जानते हो, जय? कोठे की मुहब्बत कोठे में ही दफ़न हो जाती है। मैं और तुम एक ही कश्ती में सवार हैं। मैं इस कोठे में पैदा हुई और तुम उस मद्रासी कोठा में पैदा हुआ। हम दोनों की कहानी भी एक जैसी ही है। तुम भी नहीं जानते हो कौन है तुम्हारा बाप और मेरी ज़िंदगी में भी बाप का कोई अता-पता नहीं है। तुम तो कोठे से बाहर भी बहुत घूमे फिरे हो, बाहर की दुनिया से भी थोड़ा बहुत वाकिफ़ हो, किंतु मैं तो उस दुनिया को बिलकुल नहीं सकझ पाती हूँ। बाहर की गुमनान दुनिया को जानना मेरे लिये किसी अनोखा ख़्वाब के से भी बढ़कर है। कभी कभी डर भी लगता है कि बाहर निकलने पर मेरे साथ क्या सलूक होगा।“

 “ललिता! मैं तुम्हारे बिना कहाँ जा सकता हूँ। तुम इस तरह से अनाप-शनाप क्यों बकती हो? तुम्हारे सिवाय मेरा इस दुनिया में कौन है? इतने सालों से मैं हमेशा तन्हा ही हूँ। माँ के चले जाने के बाद तो मेरा कोई रहा भी नहीं। बस एक तुम ही हो, जो अब मेरे दिल में राज करती है। तुम से जुदाई मुझे हरगिज़ नहीं सही जाएगी। तुम को जब मैं देखता हूँ तो मुझे काफ़ी आनंद मिलता है, रूह को सकून मिलता है। इतने सालों में मैं बस एक ही चीज़ पाया हूँ तुम्हारा दिल को जीतकर। बताओ, इसे भी खो दूँ तो मेरे पास क्या बच जाएगा। “

“मैं तुम्हारी जज़्बात को बहुत अच्छी तरह से समझती हूँ, लेकिन ये लोग तुमको ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे। कोठे के क़ायदे क़ानूनों को तोड़ना भी तो सख्त ज़ुल्म है, बहुत बड़ा अपराध है। तुम मद्रास चले जाओ। तुमको वहाँ की भाषा भी तो आती है। किसी को क्या पता कि दिल्ली में तुम कोठे में रहे हो या किसी मंदिर में या किसी गुरूद्वारे में। इस सच्चाई को हमेशा के लिये क़ब्र में दफ़न कर देना। कोई काम ढूंड लेना। पैसा कमाना और फिर किसी मद्रासन से शादी कर लेना। तुम्हारा बाल-बच्चा होगा। तुम्हारी दुनिया आबाद हो जाएगी। तुम्हारे अमीरखाने में ख़ुशी लौट जाएगी। फिर मुझे हमेशा के लिये भूल जाओगे। तुम्हारी अपनी दुनिया होगी। मैं यहीं पर रहूँगी अपनी माँ के साथ। उसको भी तो एक बेटी का सहारा चाहिए।“

बोलते बोलते ललिता की आँखें भर आईं। इसे सुनकर जयकिशन की आँखें भी भींग गईं। और वह काफ़ी ग़मगीन होकर बोला, “ठीक है। ऊपर वाले को जो मंज़ूर होगा, वही होगा।“

 “अरे बुद्धू! तुमको क्या हो गया? तुम रो रहे हो क्या? तुम एक तवायफ़ के चक्कर में भावनाओं के संसार में बहने लगे। वेश्या और दल्ला की आँखों से आँसू टपकने लगे तो इस संसार में अनर्थ हो जाएगा।“

 इतना कहने के बाद ललिता की आँखों से भी मोती के कुछ बूंदें दोबारा टपक पड़े। दोनों एक दूसरे के आँसू को पोंछने लगे और एक दूसरे को चूमने लगे। ललिता पहली बार ऐसा महसूस कर रही थी कि किसी मर्द ने उसको सहलाया है, उसको चूमा है। किसी मर्द की क़ुरबत और सोहबत को तहेदिल से महसूस कर रही थी। जयकिशन की इस सुहावनी सहलाहट और स्पर्श को हासिल करके वह काफ़ी भावनात्मक होती जा रही थी। निस्तब्धता की इस आग़ोश में वे दोनों हर लम्हा एक दूसरे के नज़दीक आते जा रहे थे। सुबह हो गया था। छत पर सूरज की किरणें उन दोनों के चेहरे से टकराने लगे। दोनों अभी भी एक दूसरे के बाँहों में लिपटकर सो रहे थे। तभी वीरबहादुर और कोठा की मालकिन यमुनाबाई छत पर आकर दोनों को लात मारकर उठाने लगे। खाँसते हुए यमुनाबाई गाल फाड़ फाड़कर बोलने लगी, “यह कोठा है कोठा। प्रेमी जोड़ियों का अड्डा नहीं। इतने देर से तुम लोग सोते रहोगे तो कोठा चौपट ही हो जाएगा। प्यार मुहब्बत ही करना था तो रंडी की कोख़ में पैदा क्यों हुई।“ दोनों फट से उठकर बैठ गए और आँखों को मलते हुए एक दूसरे की तरफ़ खोफ़ के भाव से देखने लगे।

यमुनाबाई साठ साल की हो गई थी। लेकिन अभी भी जब किसी को सामने डांटती थी तो सामने वाले का कलेजा सिकुड़कर छोटा हो जाता था। उसकी आवाज़ में अजीब सी कड़क थी। उसकी क्रोधित स्वर को सुनकर कोठे के लोग काँपने लगते थे। वह जयकिशन की तरफ़ मेघ की तरह गरजकर चिल्लाई- “यह कल्लू भरवा मद्रासी कोठा से यहाँ पर हमारे धंधे को बर्बाद करने के लिये आया है। ऐसे ज़्यादा दिनों तक चलता रहा तो यहाँ की सारी नई लड़कियाँ बहक जाएँगी। अनुशासन भी कोई चीज़ है, तुम दोनों तो उसको भी ताक़ पर रख दिया है। यह रंडी का औलाद तो इस कोठा में सबको लैला-मजनू बना देगा। वीरबहादुर, अपने यार पर लगाम लगाओ, ऐसे काम नहीं चल पाएगा।“

 इस गरजने की आवाज़ को सुनकर ललिता की माँ शीतल छत पर दौड़ते हुए आई और बोली, “क्या हुआ, बहन जी?”

“क्या होगा? तुम्हारी लौंडी बहक गई है। अपना औक़ात को भूल गई है। दस दिनों से अपना काम जी लगाकर नहीं कर रही है। चली है लैला बनने के लिये। मजनू के साथ नुक्का छुपी कर रही है। धंधा में इसका दिल कैसे लगेगा? प्रेम रस पीने की आदत हो गई है इसको। लगाम लगाओ अपनी बेटी पर।”

 “ठीक है, बहन जी। मैं अभी इसको जगह पर वापस लाती हूँ।“

शीतल अपनी बेटी को एक चमाटा मारी और बोली, “तुम अपना औक़ात भूल गई है। धंधा नहीं करेगी तो पैसा कोठे को कौन चुकाएगा, तेरा बाप। जाकर ढूंड बाप को। कहाँ है वह सूअर? जा और ढूंड के ला। पैदा ली है रंडी के कोख़ में और चली है राजकुमारी बनने के लिये। क्या समझ बैठी है? यह ऐशोमोज़ का अड्डा है। ऐशोमोज़ ही करना था तो किसी महराजे या किसी धन्ना सेठ के घर में पैदा होती। इस कोठे में कौन तुमको भेज दिया?”

 ललिता की आँखों से आँसू भरभराकर छत के फ़र्श को छूने लगे। वह मुँह को छुपा कर अपना कमरा की तरफ़ भागकर चली गई। वीरबहादुर एक लात जयकिशन को मारा। जयकिशन उठकर खड़ा हो गया। वीरबहादुर क्रोध में बोला, अरे साला, मेरे चेहरे पर कालिख लगाने के लिये इस कोठा में आया है। सुधर जाओ, नहीं तो ये लोग तुमको टपका देंगे। मैं एक दोस्त के नाते आख़िरी बार तुमको समझा रहा हूँ। इसे या तो मेरा सलाह समझ या फिर धमकी। दिमाग़ में घुसी मेरी बात।“

    “वीर भाई, मेरी ग़लती क्या है? कोठे की कौन से क़ानून को तोड़ा हूँ?”

“जय, तुम बहुत बड़ा अपराध कर रहे हो। सुधर जाओ अब। तुमको मज़ा ही करना है तो इसके लिये यहाँ सैकड़ों औरतें हैं। जिसके साथ चाहो, उसके साथ फ्री में करवा दूँगा। अपना काम करो। ठीक है।“

 इतना कहकर वीरबहादुर नीचे की तरफ़ चला गया। जयकिशन मायूस होकर प्रमोद के साथ बैठकर बर्तनों के एक बड़े ढेर को मांजने लगा। इधर शीतल बेटी के कमरे में चली गई। ललिता की आँखें रो रोकर लाल हो चुकीं थीं। वह ग्राहक के आने से पहले मेक-अप और सिंगार की तैयारी करने वाली ही थी कि माँ ने उसको गले से लगा ली। “मत रोओ, बेटी। हम तवायफ़ों की ज़िंदगी ही तो ऐसी है। दिल पे मत लेना। यमुनाबाई के सामने दिखलाने के लिये ऐसा करना पड़ा। मैं तुमको तमाचा जड़ दी, बुरा भला कही। माफ़ करना, बेटी, मुझे। मैं दिल से तुमको ऐसा नहीं कर सकती हूँ। अपने बच्चे का भला कौन नहीं चाहता है? बेटी मुझे पता नहीं, मुझे याद नहीं तेरा बाप कौन है। लेकिन तेरी परवरिश में मैंने थोड़ा सा भी कसर नहीं छोड़ी हूँ। तुम्हारे सिवाय मेरा इस दुनिया में है ही कौन? बेटी, तुम तो मेरे लिये चाँद का टुकड़ा हो, लेकिन जब तक कोठे का क़र्ज़ हम दोनों चुका नहीं देते, हम कहीं भी नहीं जा सकते। और हमें पता भी तो नहीं है कि हमारे साथ बाहर की दुनिया में क्या सलूक होगा, किस हालात से हम दोनों गुज़रेंगे।“ शीतल ललिता की आँखों को पोंछीं और बेटी के माथे को चूमकर बाहर निकल गई और एक कौने में बेंच पर बैठकर सिगरेट पीने लगी।

     शाम का चार बज चुका था। कोठे में हर दिन की तरह एक बार फिर से महफ़िल सज-धज कर सँवर चुकी थी। मुजरा और नाच-गान फिर से शुरू हो गए। माहौल काफ़ी ख़ुशगवार हो गया। कुछ लड़कियाँ ग्राहकों के कन्धों से कन्धों को मिलाकर नाच रहीं थीं। महफ़िल में फिर से गहमा-गहमी थी। लेकिन जयकिशन और ललिता को इस महफ़िल से थोड़ी सी भी दिलचस्पी नहीं थी। उन दोनों को इस महफ़िल से काफ़ी चिढ़ हो रही थी। इस महफ़िल में होकर भी दिल की गहराई से इस महफ़िल से दूर हो चुके थे। आज दो बार छत पर से जयकिशन किसी बहाने से नीचे आया और ललिता का दर्शन करके दोबारा छत पर रसोईघर में प्रमोद के पास आकर बैठ गया। ललिता हॉल के एक कोना में बेंच पर निराशा और उदासी के आलम में बैठी हुई थी। अब फिर से रात हो चुकी थी, लेकिन आज की रात आसमान से चाँद नदारद था। छत के पास से घनी काली घटा इन तारों को अपनी आग़ोश में समेटती हुई आगे की तरफ़ आगे की तरफ़ बढ़ जाती थी। एक दो तारे ही ब्रह्माण्ड में तवील फ़ासले पर दिखाई दे रहे थे। जयकिशन रसोईघर को साफ़ करके छत के एक कोने में चटाई पर लेटा हुआ था और इन तारों की तरफ़ देख रहा था, जो इस स्याह रात को घनघोर घटा में छुपते जा रहे थे, इन तारों में चमक धीमी पड़ रही थी। इसी दरम्यान जब बीच बीच में रह रहकर रेलगाड़ी की हॉर्न की आवाज़ सुनाई देती थी, तो वह चौंक जाता था। वह महसूस कर रहा था कि यह हॉर्न उसे धमका रहा है। इसी दरम्यान जब यमुनाबाई की शक्ल उसके दिमाग़ में दस्तक दे देती थी तो वह अंतरात्मा से काँपने लगता था। कभी कभी माँ की याद आने लगती थी। बचपन की ढेर सारी यादें उसके ज़ेहन में ताज़ा हो जातीं थीं। इसी तरह से रात का बारह बज चुका था। तभी दबे पाँव ललिता छत पर आई और जयकिशन के पास बैठ गई।

      “जय! तुम सो गए क्या? खाना खाया? आज की रात भी दो ग्राहक हैं। मैं दिन में ही थक गई थी। अभी तो मेरा देह टूट रहा है। दोनों ग्राहक खर्राटे लेने लगे और मैं चुपके से समय निकालकर तुम्हारे पास आ गई।”

 “नहीं खाया।“

“अबे बुद्धू अभी बैठकर खाना खा लो। भूखे सोओगे क्या? मेरी तो मंगलवारी शुरू हो चुकी है, मैं तो खाना नहीं खाऊंगी। तुम उठकर बैठो, रसोई से खाना लाती हूँ तेरे लिये।“

  ललिता खाना लाकर दे दी और जयकिशन बड़ी ही संतुष्टि से खाना खाया। और फिर से आपस में एक दूसरे के सुख-दुःख को बाँटने लगे। अपने अपने बचपन के बातें एक दूसरे को बताने लगे। “जय, मंगलवार शुरू हो गया है और मैं पूरा दिन धंधा नहीं करुँगी और दोपहर में चुपके से तुमको फ़ोन करके दूसरी मंज़िल में तबस्सुम के कमरे में बुला लूँगी और जी भरकर बात करेंगे। तबस्सुम मेरी बचपन की सहेली है। हम दोनों एक ही महीने में यहीं पर पैदा हुए और साथ साथ खेलते खेलते बड़े हो गए। वह किसी को कुछ नहीं बताएगी। मैं हमेशा मंगलवार का इंतज़ार करती रहती हूँ। यही तो हफ़्ता का एक ऐसा दिन है, जब मैं चैन और राहत का साँस लेती हूँ। जय! तुम मेरे सलाह पर गौर किया?“

 “नहीं, ललिता, मैं अब अपना भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं सोचता हूँ।“

 “मेरी बात को सुनो। मैं तुम से बेइंतहा मुहब्बत करती हूँ, इसीलिए तुम्हारी भलाई और बेहतरी के बारे में सोचती हूँ। मैं नहीं चाहती हूँ कि तुम्हारे साथ कुछ बुरा हो। तुमको तो अब कोठा से भी जी ऊब गया है। तुमको बाहर बहुत अच्छी ज़िंदगी मिल जाएगी। तुम एक मर्द हो और तुमको अच्छी लड़की आराम से मिल जाएगी। मद्रास में कौन जान पाएगा कि तुम्हारी पृष्ठभूमि क्या है। मेरे चक्कर में नहीं पड़ो। बाहर की लड़की तुम्हारे लिये मेरे से लाख गुणा अच्छी होगी। बाहर की बदसूरत लड़की भी मुझ से हजारों गुणा ज़्यादा अच्छी होगी। तुम्हारे लिये यहाँ पर कुछ भी नहीं रखा है। चले जाओ यहाँ से काफ़ी दूर। जब दो दिलों के दरम्यान फ़ासला बढ़ जाता है तो स्वतः ही लोग एक दूसरे को भूल जाते हैं। महादेव को भी हम दोनों की नज़दीकी पसंद नहीं है। मेरी आस्था सिर्फ़ उस पर है।“

  “ललिता, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूँ। जब तक तुमसे मुलाक़ात नहीं हुई थी, तब तक इस दुनियादारी की बात मेरे ज़ेहन में बिलकुल नहीं आई थी। जैसे जैसे अब तुम मेरी ज़िंदगी से दूर होती जा रही हो, वैसे वैसे ये सारे सपने भी मेरी ज़िंदगी से कहीं दूर सात समुंद्र पार जाते हुए दिखाई दे रही है।

 इस तरह से बात करते करते दोनों नींद में गुम हो चुके थे।

 दोपहर के दो बजे के क़रीब तबस्सुम के कमरे को वीरबहादुर और यमुनाबाई दो और लोगों के साथ खटखटाए। जयकिशन कमरा को खोला। वीरबहादुर के हाथ में एक डंडा था, जिस डंडा को कई दल्लों ने कोठे में बहके हुए ग्राहकों या फिर शराब के नशे में उग्र हुए ग्राहकों को पीटने के लिए इस्तेमाल करते थे। जैसे ही जयकिशन कमरा से बाहर निकला, वैसे ही तीनों दल्ले उसको पीटना शुरू कर दिये। यमुनाबाई रामफल ज़मादार को फ़ोन लगाई, जो पास के ही पुलिस चौकी में था। फट से ज़मादार साहब पाँच सिपाहियों के साथ कोठे में आ गए और जयकिशन को कमला मार्किट के थाने में ले गए। वहाँ पर उसकी जमकर धुलाई हुई। रामफल का डंडा बहुत कम ही दल्लों के ऊपर बरसता था। ज़्यादातर तो यह डंडा ग्राहकों पर ही कभी कभार बरसता था। वह पिछले पंद्रह साल से जी. बी. रोड की इस पुलिस चौकी में ख़िदमत करता आ रहा था। इस कोठे और यमुनाबाई से भी उसका जज़्बाती लगाव हो गया था। तनख्वाह से भी कई गुणा ज़्यादा कमाई इस कोठे से हो जाती थी। जयकिशन की हरक़त से तो वह भी चिंतित होने लगा। जयकिशन पर जब उसका डंडा बरस रहा था तो उसको अंदर से अफ़सोस भी हो रहा था, क्योंकि कई सालों से वे दोनों एक दूसरे को जानते थे। पुलिस और दल्ले का रिश्ता किसी खून के बराबर तो नहीं हो सकता है, लेकिन दोनों एक दूसरे से काफ़ी आश्रित होते हैं। रामफल कर भी क्या सकता था, इसके अलावा कोई रास्ता बचा भी नहीं था।

     रामफल के साथ एक और पुलिस रात भर जयकिशन को रह रहकर पीटता रहा। सुबह में एक बार फिर रामफल आया और बोला, “जय, तुमको मेरी बात समझ में आई? अगर बात से नहीं समझा तो 376 का धारा लगाकर छः साल के लिये तिहाड़ जेल भेज दूँगा। समझे, बेटा।“ डंडा को तो वह आसानी से बर्दाश्त कर सकता था, लेकिन जैसे ही जेल का नाम सुना, वैसे उसका दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा। फिर वह हकलाते हुए बोला, नहीं सरकार, ऐसा नहीं कीजिये। आप जो बोलिएगा, मैं फट से वैसा ही करूँगा।“

  रामफल लंबा स्वर में साँस को खींचते हुए बोला, “जय मेरे भाई, सुन मेरी बात ध्यान से। आज के बाद तुम कभी भी जी. बी. रोड में दिखाई नहीं दोगे। ठीक है?”

“हाँ साहब जी, मंज़ूर है।“ एक पुलिसकर्मी एक कागज़ पर कुछ लिखकर लाया। और जयकिशन को दस्तखत करने को कहा। जयकिशन को तो अक्षर का बिलकुल ज्ञान नहीं था। वह अंगूठा का निशान कागज़ पर लगा दिया। फिर 10 बजे सुबह को थाने से उसको छोड़ दिया गया। उसके बाद जयकिशन जी. बी. रोड में कभी नहीं दिखा। पांच साल गुज़र चुके थे। ज़माना काफ़ी बदल चुका था।

         जनवरी का महीना चल रहा था। दिल्ली एनसीआर में अभी भी कड़ाके की सर्दी थी। लेकिन चेन्नई के मरीना बीच (beach) पर मौसम काफ़ी सुहावना था। सागर के किनारे हवा में सुख की अनुभूति हो रही थी। तापमान 25 डिग्री के क़रीब था। एक शख्स गुड़गाँव से चेन्नई जापानी ऑटोमोबाइल कंपनी में बिज़नेस टूर पर दो हफ़्ते के लिये आया था। मरीना बीच के आसपास ही कंपनी के गेस्टहाउस में ठहरा था। रविवार का दिन था और कंपनी में भी छुट्टी थी, इसीलिए सागर के किनारे (बीच) पर कुछ समय गुज़रना ही बेहतर समझा। बीच (beach) पर टहलते टहलते पास में ही मरीना बीच के फ़िश मार्किट पर उसका ध्यान गया। इसे देखकर मछली बाज़ार में जाकर मछली ख़रीदने इच्छा दिल में पैदा हुई। कंपनी का गेस्टहाउस छोटा था और उसका कुक एक नेपाली था। जिसका नाम अशोक थापा था। बुधवार को दूसरा बाज़ार से मछली ख़रीदा था, जिसे अशोक ने बड़े चाव से दिल्ली आए हुए मेहमान के लिये मछली करही बनाया था। उस मेहमान को यह मछली काफ़ी पसंद आई थी। इसी बात को सोचकर वह मछली बाज़ार में आ गया। अपनी पसंद की मछली को ढूंढते ढूंढते उसका ध्यान किसी जानी पहचानी आवाज़ पर गया। भाषा ज़रूर दूसरी थी, लेकिन इसी तरह की आवाज़ उसको कई साल पहले सुनाई दी थी। पांच साल पहले की आवाज़ और इस आवाज़ में वह कुछ समानता को महसूस कर रहा था। मछुआरे की आवाज़ को सुनकर हर पल वह किसी उलझन में उलझता जा रहा था। उस मछुआरे की शक्ल भी थोड़ा बहुत जाना पहचाना लग रहा था और अब वह और ज़्यादा उलझन में उसको फँसाता जा रहा था। मन में एक बात दस्तक दी- “क्यों न वहीँ पर पहुँचकर उससे मछली ख़रीद लूँ। कहीं तो मछली ही ख़रीदनी है ना।“

 इसे सोचते हुए वह आगे बढ़ा। जब वह मछुआरे के पास पहुँचा तो देखा- “एक चिकनी औरत उसके पास बैठी है, जो मछुआरे को मछली तौलने में मदद कर रही है। एक छोटा सा बच्चा बगल में खेल रहा है, जिसका उम्र चार साल से कम होगा।“

 मछुआरे और ग्राहक जैसे ही आमने सामने हुए, दोनों आश्चर्यचकित हो गए। फिर दोनों के चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ने लगी। एक दूसरे को देखकर काफ़ी ख़ुश हो गए। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कई सालों से बिछड़े हुए यार  एक दूसरे को दोबारा ढूंड लिये हैं। “अबे, जयकिशन! तुम जी. बी. रोड से यहाँ पर कैसे आ गया? मछली बेचने का धंधा कैसे, कब और कहाँ से…? तुम तो सिर्फ़ एक साल तक मुझे वहाँ दिखाई दिया। उसके बाद तो तुम्हारा मोबाइल ही स्विच ऑफ आ रहा था।“

  “दिनेश साहब, कृपया, धीमी स्वर में बोलो, तीसरी क़तार में जो आदमी मछली बेच रहा है, उसकी हिंदी समझ में आती है।“

“ठीक है, जय। मैं बिलकुल आहिस्ता आहिस्ता धीमी स्वर में बात करूँगा। मुझे दो किलो टुना मछली दे दो। यह औरत कौन है तुम्हारे साथ? और यह छोटा लड़का?“

“सर, यह ललिता है मेरी धर्मपत्नी और यह मेरा बेटा है प्रवीण। अभी साढ़े तीन साल का है।…। … ।“

 

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

      ऐ मेरे रहनुमा: पितृसत्ता के कितने रूप

    युवा लेखिका तसनीम खान की किताब ‘ऐ मेरे रहनुमा’ पर यह टिप्पणी लिखी है …

5 comments

  1. Rumit Kumar Raushan

    Superb story

  2. I don’t even know how I ended up here, but I thought this post was
    great. I don’t know who you are but definitely
    you’re going to a famous blogger if you aren’t already 😉 Cheers!

  3. Great post. I was cecking continuouly this weblog and I
    am inspired! Exttremely useful ino speciallly the last pardt 🙂 I maintain suchh info
    a lot. I was lookiing for thios particular
    informatikn for a long time. Thank you andd est oof luck.

  4. Hi! Someone in my Myspace group shared this website with us so I came to check it out.
    I’m definitely loving the information. I’m bookmarking and will be tweeting this to
    my followers! Great blog and terrific design and style.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *