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खुशी हमारा अंदरूनी भाव होता है- उसे पहचानें

आज ‘दैनिक भास्कर’ के सभी संस्करणों में मेरा यह लेख आया है- प्रभात रंजन

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खुशी का मतलब बड़ी-बड़ी भौतिक उपलब्धियां पाना नहीं होता है। हालांकि हमारे समाज की यह कड़वी सच्चाई है कि हम इंसान का आकलन उसकी उपलब्धियों के आधार पर करते हैं। इससे समाज में हमारी पहचान बढ़ती है, हमारी पूछ पढ़ती है तो हमें संतोष मिलता है। इसी बाहरी संतोष को हम खुशी समझ लेते हैं।

मेरा अनुभव यह बताता है कि जो लोग बेहद सफल होते हैं अक्सर वे बेहद खुश भी नहीं रहते। बांग्ला भाषा के प्रसिद्ध उपन्यासकार विमल मित्र ने फिल्मकार  गुरुदत्त के बारे में लिखा है कि वे जब सफलता के शिखर पर थे तो उनको रात रात भर नींद नहीं आती थी। उनको नींद के लिए गोलियां खानी पड़ती थी। एक बार विमल मित्र ने उनसे पूछा कि सब कुछ तो है आपके पास फिर आप खुश क्यों नहीं रहते? आपको नींद क्यों नहीं आती? गुरुदत्त ने जवाब दिया कि उनका पेशा यानी फिल्म व्यवसाय एक तरह का जुआ है। सारी सफलता, सारी शोहरत एक दिन हवा हो सकती है। सोच सोच कर उनको डर लगता था। विमल मित्र ने लिखा है कि गुरुदत्त को असल खुशी बहुत छोटी बातों से मिलती थी, जैसे वे कभी कभी पान्ता-भात(पानी मिला हुआ बासी भात) खाते थे या लोनावाला में अपने फार्म हाउस में जाकर किसानों की तरह काम किया करते थे। तब वे बेहद प्रसन्नचित्त रहते थे।

याद आता है जब मैं गाँव में रहता था तो मुझे ऐसी बातों से बेहद खुशी मिलती थी जिनको मैं उपलब्धियों या भौतिक सफलता के रूप में नहीं देख सकता। जैसे अलग अलग मौसम में मैं बाजार से सब्जियों के बीज लाकर उनको खेत में लगाता था, उनको पानी देता था, कीड़ों से उनके नन्हें पौधों को बचाने की जुगत करता था। जब उनमें पहली बार फल आते थे तो बेहद खुशी महसूस होती थी।

मेरे पिता कृषि अधिकारी थे। एक बार मैं उनके साथ कृषि मेले में घूमने गया। वहाँ आंवले का पौधा बिक रहा था। पिता से इसरार करके आंवले के पाँच पौधे खरीदे और उनको गाँव में अपने घर के सामने लगाया। सालों उसकी रखवाली की, सिंचाई की, बाड़ लगाकर उनको पशुओं से बचाने का इंतजाम किया। तीन या चार साल बाद जब उन पेड़ों में आंवले के फल आए तो मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह मेरे जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि हो। मेरी माँ ने मुझे कहा था कि हो सकता है एक दिन तुम्हारे पास खेत-पथार, घर-दुआर कुछ भी नहीं रहे लेकिन जब तक आंवले के पेड़ रहेंगे गाँव वाले तुमको याद करेंगे। बता नहीं सकता कि इस बात से मुझे कितनी खुशी हुई थी।

लेकिन एक ऐसा प्रसंग है जो मैं आप लोगों से साझा करना चाहता हूँ जिसके कारण बचपन के दिनों में मुझे अपने ऊपर बहुत गर्व महसूस होने लगा था। मेरी खेती बाड़ी का काम देखने वाला एक आदमी था जिसका नाम मुकेश्वर साह था, सब मकेसरा बुलाते थे। उसके साथ मेरी बड़ी दोस्ती थी। उसने एक दिन बताया कि कुछ दिन पहले जब उसने एक छोटा सा खेत का टुकड़ा खरीदा था और उसको अपने नाम करवाने के लिए रजिस्ट्रार के दफ्तर गया तो वहाँ उससे कागज पर दस्तखत करने के लिए कहा गया। लेकिन उसको दस्तखत करने नहीं आता था। उसे बेहद शर्म आई क्योंकि उसके अलावा वहाँ मौजूद सभी लोगों ने कागजात पर दस्तखत किए थे जबकि वह अंगूठा लगाकर आ गया। सभी लोग हंस रहे थे और उसे बेहद शर्म महसूस हो रही थी। उसने मुझसे कहा कि अब मेरी उम्र अधिक हो गई है इसलिए पढ़ना संभव नहीं है लेकिन आप मुझे दस्तखत करना सिखा दीजिये? मुकेश्वर साह- हम दोनों जब भी खाली होते कागज पर मैं यह नाम लिख देता और उसको देख देख कर लिखने के लिए कहता। कई दिनों के अभ्यास के बाद उसने देखकर अपना नाम लिखना सीख लिया। उसके बाद वह अपने नाम लिखने का अभ्यास करने लगा। जहां जाता वहीं अपना नाम लिखने लगता। खेत में, घर में उसे जहां कहीं भी कागज मिलता वह उसके ऊपर अपना नाम लिख देता- मुकेश्वर साह। धीरे धीरे गाँव में लोगों के घरों की दीवारों पर भी वह अपना नाम लिखने लगा। पूरे गाँव में सबको पता चल गया कि उसने नाम लिखना सीख लिया था। सबको यह भी पता चल गया कि उसको नाम लिखना मैंने सिखाया था।

एक दिन जब उसने मुझे आकर बताया कि उसने कागज पर दस्तखत करके बैंक में अपना खाता खोल लिया था। सुनकर मुझे कितनी खुशी हुई बता नहीं सकता। आज भी उस प्रसंग की याद आती है तो मन ही मन संतोष होता है कि मैंने किसी को अपना नाम लिखना सिखाया था।

संतोष खुशी का ही एक और नाम है।

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