‘not in my name’ कैम्पेन फिल्मकार सबा दीवान के फेसबुक वाल से शुरू हुआ और देश भर में फैला. सरकार डिजिटल इण्डिया की बात करती है. देश के लोगों ने दिखा दिया कि डिजिटल इण्डिया का क्या मतलब होता है. लेकिन भाषा को लेकर कुछ सवाल उठे. क्या देशी भाषाओं में संवाद किया गया होता तो यह अधिक सफल हुआ होता? पत्रकार. पत्रकारिता के शोधार्थी अरविन्द दास का यह लेख इन्हीं कुछ सवालों को लकर लिखा गया है- मॉडरेटर
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जंतर-मंतर पर क़रीब तीन-चार हज़ार लोग मौजूद थे. जितने लोग उतने ही कैमरे. प्रदर्शनकारियों में शायद ही कोई ऐसा था जो फेसबुक, ट्विटर या इंस्टाग्राम जैसे ‘न्यू मीडिया’ पर मौजूद नहीं हो. जो ऑन लाइन पोर्टल से जुड़े पत्रकार थे, वे वहीं से ‘फेसबुक लाइव’ के जरिए इस मुहिम को बाहर लोगों के बीच ले जा रहे थे और आम नागरिक सोशलमीडिया के माध्यम से. कुछ टेलीविजन चैनलों पर भी इस विरोध प्रदर्शन को प्रसारित किया जा रहा था.
फ़िल्मकार सबा दीवान की फेसबुक पोस्ट से प्रेरित होकर देश (और विदेश) के विभिन्न शहरों में एक साथ हुए इस प्रतिरोध के अगले दिन साबरमती में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा (अंतत:) कि ‘गौ-भक्ति’ के नाम पर लोगों की हत्या स्वीकार नहीं की जा सकती’. देखा जाए तो गौरक्षा के नाम पर गोरखधंधा करने वालों के ख़िलाफ़ यह प्रतिरोध एक हद तक सफल रहा और इसका श्रेय सोशल मीडिया (बजरिए इंटरनेट) को जाता है.
लोकतंत्र में राजनीतिक भागेदारी और राजनीतिक दलों के संचार में मीडिया की प्रमुख भूमिका रही है. साथ ही किसी भी सामाजिक आंदोलन में मीडिया की सहभागिता जरूरी है. मोदी सरकार की अघोषित नीति मेनस्ट्रीम (प्रिंट और टेलीविजन) के बदले न्यू मीडिया को तरजीह देने की है. ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ‘ऑन लाइन’ मीडिया की दुनिया में सबसे ज्यादा सक्रिय रहने वाले नेताओं में से एक है. ट्विटर पर उनके 30.9 मिलियन (तीन करोड़ नौ लाख) और फेसबुक पर 41.7 मिलियन (चार करोड़ 17 लाख) फॉलोअर हैं. लेकिन इस बार नागरिक समाज के लोग उन्हीं हथियारों का इस्तेमाल सत्ता के ख़िलाफ़ करने में सफल रहे, जिसका इस्तेमाल मौजूदा सरकार करती रही है.
रिपोर्टों के मुताबिक मई 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से गौरक्षा, गौमांस के नाम पर देश के विभिन्न भागों में मुसलमानों के ऊपर क़रीब 32 हमले हुए हैं. मारे गए लोगों में मोहम्मद अखलाक, पहलू खान, जुनैद खान आदि महज नाम बन कर रह गए हैं. साथ ही इस सांप्रदायिक भीड़ की हिंसा के शिकार (लींचिंग) दलित भी हुए हैं. निस्संदेह इस भीड़ को सत्ता की भाषा- जो ‘श्मशान और कब्रिस्तान’ में लिपटी हुई है, से बल मिला है.
मोदी सरकार के बनने के तीन साल बाद शायद पहली बार, बिना किसी राजनीतिक नेतृत्व के, सिर्फ सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध में नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) की आवाज़ एक वृहद स्तर पर मुखर हुई है. हालांकि जब तक ‘ऑन लाइन’ प्रतिरोध को ‘ऑफ लाइन (ज़मीनी स्तर पर)’ हो रहे विभिन्न प्रतिरोधों से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक इसकी सफलता संदिग्ध रहेगी.
विरोध प्रदर्शन के अगले दिन यानी 29 जुलाई की तारीख़ को दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिंदी अख़बारों- नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, हिंदुस्तान और दैनिक जागरण में किसी ने भी पहले पन्ने पर इस ख़बर को जगह नहीं दी. अंदर के स्थानीय पन्ने पर किसी कोने में एक तस्वीर या दो-तीन कॉलम की छोटी सी ख़बर देकर इस प्रदर्शन को निपटा दिया गया. वहीं, दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी अख़बारों—हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेसऔर द हिंदू अख़बार के पहले पन्ने पर तस्वीर के साथ विस्तृत ख़बर भी छपी थी.
भले ही किसी राजनीतिक बैनर के तले जंतर-मंतर और अन्य शहरों में जनता नहीं जुटी हो पर ‘NotInMyName’ का जो नारा बुलंद हुआ उसकी जबान बहुसंख्यक भारतीयों की जबान नहीं है. इस ऑनलाइन मीडिया और प्रतिरोध की संस्कृतियों को दूर-दराज, छोटे शहरों-कस्बों पर पहुँचाने कि लिए इन संस्कृतियों को देशज (vernacular) होना होगा,साथ ही इन संस्कृतियों का देशजीकरण (vernacularisation of protest) करना होगा. जाहिर है भाषाई अख़बारोंकी भूमिका इसमें महत्वपूर्ण हो सकती है.
अंग्रेजी मीडिया के बदले हमें यह देखना होगा कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं (regional/vernacular) में इन प्रतिरोधों की अनुगूंज किस रूप में है? जरूरत भाषाई अख़बारों में चल रहे विमर्श को बदलने की है, जिसका प्रसार देश के गाँवो, क़स्बों तक है. यहाँ इस बात का उल्लेख जरूरी है कि मंडल-कमंडल की राजनीति में भाषाई मीडिया सांप्रदायिक एजेंडे को आगे में बढ़ाने में हमेशा तत्पर रही है.
ग़ालिब ने लिखा है कि ‘फरियाद की कोई लय नहीं है’, पर सत्ता के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की आवाज़ तो बुलंद होनी ही चाहिए जो दूर, एक बहुसंख्यक वर्ग तक पहुँचे और एक बड़े नागरिक समाज को लामबंद कर सके.
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