सौम्या बैजल की कवितायें-कहानियाँ जानकी पुल पर कुछ वर्षों से समय समय पर आती रही हैं। अच्छा यह लगता है कि उन्होने लगातार अपने लेखन-कौशल को परिष्कृत किया है। इन दो कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा महसूस हुआ-
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चोट
देखो छिली खाल,
दर्द हुआ? यह लाल पानी,
जिसका एक ही नाम है,
खून, देखो, निकला?
क्या हुआ? आह क्यों निकली?
थोड़ा ही तो खून है,
दर्द चोट का है, या खून का?
सोच कर देखो ज़रा।
अरे देखो, बन गयी पपड़ी
क्या हुआ? अब तो चोट पकने लगी
खींचती है खाल अब भी जब हाथ मोड़ा करते हैं
याद दिलाती है चोट, अपने होने की.
रह रह कर देखो उठता है दर्द
भीना सा, खत्म होता जाता है
अरे यह क्या, नयी रगड़ लग गयी,
देखो चोट, फिर ज़िंदा हो गयी
रगड़- रगड़ कर देखो
ज़ख्म बिलकुल ताज़ा है, हर नयी रगड़ से
रंग और खिल गया है?
कहाँ है मरहम? कैसे लगाओगे?
कह देने भर से क्या, ज़ख्म भर जाएंगे?
गिरने लगी है पपड़ी, नयी खाल देखो जन्मी
चोट धीमे धीमे देखो , भुला दी जाती
पर एक निशान है ,देखो , छोटा सा,
जो चोट अपने बाद छोड़ गयी.
हम पर है अब. क्या सीखते हैं चोट से?
दोहराते हैं उसे, या निशान से रोज़ सबक ले लेते हैं?
बस भूले न चोट को.
निशान के साथ उसकी सीख,
ज़िंदा रहती है. कहीं न कहीं वह टीस
याद हमेशा रहती है.
दिल्ली
छोटे छोटे डब्बे , एक के ऊपर एक चढ़ गए हैं,
उन डब्बो के वह बक्से, एक दूसरे में घुस कर जीते हैं.
फासले नहीं है फिर भी दूरियां बढ़ गयी है
अरे दिल्ली, मेरी दिल्ली तू क्या से क्या बन गयी है?
अपने अपने बिलों में घुसकर, एक दूजे को गालियां देते हैं
गाड़ी पर एक खरोंच के बदले, अब जान ही ले लेते हैं
पैसा बोलता है, ताकत बन कर, ताकत जो औरों की कमर तोड़ देती है
अरे दिल्ली, मेरी दिल्ली तू क्या से क्या बन गयी है?
सड़कें रोज़ सैकड़ों पाँवों की, थकान महसूस करती है
रूंदी हुई लालसाओं की, नए जनाज़े देखती है
बेचैन लोग, तुझमे पनाह मांगते हैं, पर तू उनसे मुँह फेर लेती है
अरे दिल्ली, मेरी दिल्ली तू क्या से क्या बन गयी है?
फैली भी है, और सिमटी भी,
सांस के अब मुआवज़े मांगती है
पानी नहीं है, हँसी नहीं है, शोर के बादल बरसते हैं,
अरे दिल्ली, मेरी दिल्ली तू क्या से क्या बन गयी है?
यहाँ पैसे की जगह है, लोगों की नहीं
यहाँ हिंसा की जगह है, आज़ादी की नहीं
यहाँ खोखली हँसी की खिलखिलाहट है, आहों के लिए जगह नहीं,
अरे दिल्ली, मेरी दिल्ली तू क्या से क्या बन गयी है?
बागों को सींचते लोगों के हाल पूछे तूने कभी?
शोर के पीछे चीखते लोगों की, बाते सुनी तूने कभी?
रातों के खौफ में रहती, उस लड़की की आँखें पढ़ीं तूने कभी?
अरे दिल्ली, मेरी दिल्ली तू क्या से क्या बन गयी है?
कितनी खुदगर्ज़, कितनी खोखली, कितनी बड़ी बन गयी है तू,
तुझ तक आना चाहने वालों से कितनी दूर हो गयी है तू,
ताकत के इस माया जाल में फँस कर, अपनी इंसानियत निगल गयी है तू।
अरे दिल्ली, मेरी दिल्ली तू क्या से क्या बन गयी है?
अरे दिल्ली, मेरी दिल्ली तू क्या से क्या बन गयी है?
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