आज प्रस्तुत हैं विवेक चतुर्वेदी की कविताएँ – संपादक
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पसीने से भीगी कविता
एक पसीने की कविता है
जो दरकते खेत में उगती है
वहीं बड़ी होती है
जिसमें बहुत कम हो गया है पानी
उस पहाड़ी नाले में नहाती है
अगर लहलहाती है धान
तब कजरी गाती है
इस कविता में रूमान बस उतना ही है
जितनी खेत के बीच
फूस के छप्पर की छाँव है
या खेत किनारे अपने आप बढ़ आए
गुलमोहर का नारंगी रंग है
इस कविता को रेलगाड़ी में चढ़ा
शहर लाने की मेरी कोशिशें नाकाम हैं
ये कविता खलिहान से मंडी
तक बैलगाड़ी में रतजगा करती है
ये समर्थन मूल्य के बेरूख हो जाने पर
कसमसाती है
खाद बीज के अभाव और
पानी के षड्यंत्रों पर चिल्लाती है
कभी जब ब्लाक का अफसर
बहुत बेईमान हो जाता है
तो साँप-सी फनफनाती है
ये सचमुच अपने समय के साथ खड़ी होती है
ये गाँव से कलारी हटाने के जुलूस में
शामिल होती है
ये कविता आँगन में बैठ
चरखे सा कातती है
रात रात अम्मा की
आँखों में जागती है
जिज्जी के गौने पर
आँखें भिगोती है
बाबू के गमछे को धोती है
कभी ऊसर सी सूख जाती है
कभी सावन सी भीग जाती है
ये पसीने से भीगी काली देह पर
भूसे की चिनमिनाहट है
ये बूढ़े बाबा की लाठी की आहट है
कविता गांव के सूखते पोखरे
के किनारे बैठ रोती है
जहाँ भी पानी चिड़िया पेड़ पहाड़
और आदमी होता है वहाँ
होती है
तुमने लगाया था
तुमने लगाया था
जो मेरे साथ
एक आम का पेड़
तुम्हारा होना उस पेड़ में
आम की मिठास बनके
बौरा गया है
चूसते समय जो उठी है
खट्टी लहर वो मेरी है
आम की गुदाज देह का
पीलापन तुम्हारा है
तुम्हारी ही हैं
घनी हरी पत्तियाँ
और वो जो नन्ही सी नर्म गुही है हम दोनों के बीच
वो अँकुआने को मचलता जीवन है
पेड़ का तना और कठोर छाल मैं हूँ
पर गीली मिट्टी को दूर दूर तक बाँधने वाली जड़ें तो तुम ही हो
आज आसाढ़ की पहली बारिश में भीगकर
ये आम का पेड़ लहालोट हो गया है
पत्तियों की पूरी देह को छूकर टप टप बरस रहा है पानी
छाल तरबतर हो दरक रही है
पर फिर भी हम
कुछ राहगीरों के लिए
इस तेज बारिश में
छत हुए हैं
एक राहगीर के बच्चे की
रस छोड़ती जीभ को पढ़
तुम टप से गिर पड़ी हो
खुल पड़े हैं तुम्हारे ओंठ
बच्चा तुमको दोनों हाथों में थामकर चूस रहा है
और तुम्हारी छातियाँ
किसी अजस्र रस से
उफना गई हैं
एक कोयल ने अभी अभी
कहा है अलविदा
अब वो बसेरा करेगी
जब पीले फागुन सी
बौर आएगी अगले बरस
हम अपनी जड़ों के जूते
मिट्टी में सनाए
खड़े रहेंगे बरसों बरस
मैं अपने छाल होने के खुरदरेपन से
तुम्हारी थकी देह सहलाता रहूँगा
पर सो न जाना तुम
कभी रस हो जाएंगे फल
घनी उदासी से लिपट कर
रोने हो जाएगा तना
कभी बहुत बड़ी छाती
ठिठुरती ठंड में सुलगकर आँच हो जाएंगी टहनियां
छाँव हो जाएंगी हरी
पत्तियाँ
कभी सूखकर ये
पतझड़ की आंधियों में उड़ेंगी
उनके साथ हम भी तो
मीलों दूर जाएंगे
गोधूलि… तक हम कितनी दूर जाएंगे
तुमने लगाया था जो मेरे साथ एक आम का पेड़..।
पिता
पिता! तुम हिमालय से थे पिता
कभी तो कितने विराट
पिघलते हुए से कभी
बुलाते अपनी दुर्गम चोटियों से
भी और ऊपर
कि आओ- चढ़ आओ
पिता तुममें कितनी थीं गुफाएँ
कुछ गहरी सुरंग सी
कुछ अँधेरी कितने रहस्य भरी
कितने कितने बर्फीले रास्ते
जाते थे तुम तक
कैसे दीप्त हो जाते थे
तुम पिता जब सुबह होती
दोपहर जब कहीं सुदूर किसी
नदी को छूकर दर्द से गीली हवाएँ आतीं
तुम झरनों से बह जाते
पर शाम जब तुम्हारी चोटियों के पार
सूरज डूबता
तब तुम्हें क्या हो जाता था पिता
तुम क्यों आँख की कोरें छिपाते थे
तुम हमारे भर नहीं थे पिता
हाँ! चीड़ों से
याकों से
भोले गोरखाओं से
तुम कहते थे पिता- ‘मै हूँ’
तब तुम और ऊँचा कर लेते थे खुद को
पर जब हम थक जाते
तुम मुड़कर पिट्ठू हो जाते
विशाल देवदार से बड़े भैया
जब चले गए थे घर छोड़कर
तब तुम बर्फीली चट्टानों जैसे
ढह गए थे
रावी सिंधु सी बहनें जब बिदा हुई थीं
फफककर रो पड़े थे तुम पिता
ताउम्र कितने कितने बर्फीले तूफान
तुम्हारी देह से गुजरे
पर हमको छू न सके
आज बरसों बाद
जब मैं पिता हूँ
मुझे तुम्हारा पिता होना
बहुत याद आता है
तुम! कितने हिमालय से थे …पिता!
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