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एजाज अहमद को क्यों पढना चाहिए?

वैभव सिंह मेरी पीढ़ी के उन कुछ बुद्धिजीवियों में बचे हैं जो मेरी तरह लोकप्रियता की आंधी में बह गए बल्कि अध्ययन-लेखन की मजबूत ज़मीन को पुख्ता बनाने में लगे हुए हैं. उनका यह लेख वामपंथी चिन्तक और साहित्यालोचक एजाज अहमद पर है. इसे पढ़ा जाना चाहिए- मॉडरेटर

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पश्चिम की  थ्योरी की जकड़ में तीसरी दुनिया का साहित्य

वैभव सिंह

एजाज अहमद  वामपंथी चिंतक और साहित्यालोचक के रूप में देश-विदेश के गंभीर प्रबुद्ध लोगों में व्यापक ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। वे भारत में जन्मे लेकिन विभाजन के समय उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। अपने उत्कृष्ट बौद्धिक जीवन में उन्होंने भारत समेत कनाडा और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया। भारत में जेएनयू (नई दिल्ली) में विजिटिंग प्रोफेसर रहे और जामिया मिलिया इस्लामिया में खान अब्दुल गफ्फार खान चेयर पर प्रोफेसर के तौर पर शोध किया। तीन मूर्ति पुस्तकालय में विजिटंग फेलो के तौर पर भी कार्यरत रहे। भारत, पाकिस्तान और यूरोप के समाजों के आंतरिक अनुभवों के आधार पर उन्होंने विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं, महाद्वीपों के बौद्धिक संबंधों और उससे पैदा हुए वर्चस्वों के बारे में सघन विश्लेषण किए हैं। एक ‘पब्लिक इंटलेक्चुअल’ को कई बार पूर्वग्रहों से मुक्त होकर निर्मम और तटस्थ विश्लेषण करने पड़ते हैं। एजाज बड़ी ईमानदारी से, अक्सर ही अतिवाद की सीमा तक जाकर, या फिर साहित्यिक कृतियों के पूर्वनिर्धारित मनमाने अर्थ निकालने का आरोप लगने के खतरे उठाकर भी ईमानदारी से यह काम करते हैं। उनकी बौद्धिक बेचैनियां उनकी पुस्तकों में मुट्ठी तानकर हर पंक्ति, हर पृष्ठ और हर उद्धरण में चहलकदमी करती प्रतीत होती हैं। उन बेचैनियों में अपने पाठकों को भी संक्रमित कर देने का भरपूरा उत्साह और साहस है। वे भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के मध्य रहने की अपनी नियति को भी रेखांकित करते हैं और इसे अपनी ज्ञानमीमांसा के विकास का लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी मानते हैं। उनकी प्रमुख पुस्तके हैं- ‘इन थ्योरी- क्लास, नेशन, लिटरेचर’, ‘लिनिएज आफ द प्रेजेंट’, ‘इराक अफगानिस्तान एंड इंपीरियलिज्म आफ अवर टाइम’, ‘इन अवर टाइम- एंपायर, पालिटिक्स एंड कल्चर’, आन कम्युनलिज्म एंड ग्लोबलाइजेशन आदि।

पाठक सहज ही देख सकता है उनकी पुस्तकों के शीर्षक में ‘प्रेजेंट’ और ‘इन अवर टाइम’ जैसे शब्दों का भरपूर प्रयोग होता है और यह इसका संकेत है कि एजाज अहमद वर्तमान में विश्व में चल रही ऐतिहासिक-राजनीतिक प्रक्रियाओं और कला-साहित्य पर पड़ने वाले उनके प्रभावों के आलोचक हैं। उनकी स्थापनाएं दिलचस्प ढंग विवादास्पद भी हैं और उन्हें अकादमिक मान्यताओं को लेकर पैदा होने वाले विवादों से कोई परहेज भी नहीं है। उन्होंने रचना और समाज के संबंधों के आधार पर साहित्यिक सैद्धांतिकी को निर्मित करने का प्रयास नहीं किया है। इसके स्थान पर सैद्धांतिकियों के निर्माण और उत्पादन के पीछे सक्रिय परिस्थितियों, खासतौर पर यूरोप-अमेरिकी की सामाजिक स्थितियों व उनसे जन्म लेते अकादमिक दृष्टिकोणों  को अपनी विवेचन सामग्री के रूप में उपयोग किया है।

उनकी विभिन्न पुस्तकों मे ‘इन थ्योरी’ (1994) को साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में विशेष रूप से महत्त्व प्राप्त हुआ। इसमें एजाज अहमद ने उपनिवेशवाद, बुर्जुआ संस्कृति के विकास, तीसरी दुनिया की अवधारणा, प्रव्रजन और समाजवाद के विशेष संदर्भों में साहित्यिक सिद्धांतों के विकास का विश्लेषण किया है। विश्लेषण के क्रम में उन्होंने ‘थर्ड वर्ल्ड लिटरेचर’ की धारणा का तार-तार कर देने वाला विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इसमे उनकी मुख्य मान्यता यह है कि पश्चिम में तीसरी दुनिया की रचनाशीलता की स्वीकृति का संबंध प्रवास और  आव्रजन (immigration) की स्थितियों के साथ जुड़ा हुआ है। बीसवीं सदी में पश्चिम में, खासकर 60 के दशक के बाद पश्चिम में भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक-जातीय समुदाय के लोग एकत्र होते रहे हैं जिनका चरित्र उन लोगों से अलग था जो अमेरिका में केवल गुलामी के लिए लाए जाते थे। विदेश जाकर बसने वाले नए किस्म के निवासियों  में सत्ता व मध्यवर्गीय नौकरियों में हिस्सा मांगने वाले लोग भी थे और इस प्रक्रिया ने ‘थर्ल्ड वर्ल्ड लिटरेचर’ की धारणा को स्थापित किया। इसी प्रकार दूसरे महायुद्ध के बाद अमेरिका में अश्वेतों के आंदोलन में तेजी आई जिसने अश्वेत साहित्य यानी ‘ब्लैक लिटरेचर’ को जन्म दिया। इसी अश्वेत साहित्य के मूलभूत चरित्र और इसी के आधार पर ‘थर्ल्ड वर्ल्ड लिटरेचर’ की वैश्विक साहित्य-अवधारणा को निर्मित करने में मदद मिली। एजाज अहमद का यह भी मानना है कि अमेरिकी विश्वविद्यालयों की बहुअनुशासिकता, उदारता और लोकतंत्र की आत्मछवि रही है और इस आत्मछवि का उपयोग कर, उसपर दबाव डालकर तीसरी दुनिया के साहित्य की अवधारणा को विश्वविद्यालयों में प्रवेश दिलाया गया। इस प्रकार प्रव्रजन की प्रक्रिया और अमेरिका में अश्वेत साहित्य के उदय ने तीसरी दुनिया की रचनाशीलता को एक भिन्न वर्ग में रखकर देखने की पृष्ठभूमि मुहैया कराई। एजाज अहमद ने यह भी माना है कि थर्ल्ड वर्ल्ड लिटरेचर तब अस्तित्व में आया जब खुद अमेरिका में बौद्धिकों पर वाम का प्रभाव कम होने लगा था। रेडिकल किस्म के सिद्धांतों की लोकप्रियता घटने लगी थी। ऐसे ही ऐतिहासिक दौर में अस्मिता-विमर्श का एक नया दौर उभर रहा था जिसके कलोनियल डिस्कोर्स एनालिसिस (colonial discourse analysis) के नाम से पुकारा गया और इसका गहरा जुड़ाव तीसरी दुनिया की साहित्यिक अवधारणा से था।

तीसरी दुनिया के साहित्य को बंधक बनाने, अधीन करने और उसकी सुविधाजनक परिभाषाएं गढ़ने का काम भी तेजी से हो रहा था। जिस प्रकार तीसरी दुनिया की नियति को साम्राज्यवाद से अलग करके देखना असंभव माना जाता था उसी प्रकार से उसके साहित्य को भी साम्राज्यवाद के असर से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है। तीसरी दुनिया के औपनिवेशिक अतीत का हवाला देकर उसके साहित्य को उपनिवेशवाद से अनिवार्य रूप से नत्थी कर दिया गया और उसके बहुत सारे आंतरिक तनावों को पाठ-व्याख्या से लेकर पाठ्यक्रम बनाने तक हाशिए पर डाला जाने लगा। लेमिंग, चिनुआ अचेबे, गार्सिया, मार्क्वेज और सलमान रुश्दी आदि के लेखन को भी तीसरी दुनिया के राष्ट्रीय संकट, राष्ट्रवाद या राष्ट्र के प्रतिनिधित्व के तौर पर प्रस्तुत करना बड़ी स्वाभाविक सी बात मान ली गई। समानांतर रूप से पश्चिमी विश्वविद्यालयों में ‘कल्चर थ्योरी’ का जोर तेजी से बढ़ रहा था और इसने भी तीसरी दुनिया के देशों की संरचना को राष्ट्र व राष्ट्रवाद से असंबद्ध करके देखना मुश्किल बना दिया। इसके असर से साहित्य-सिद्धांत मुक्त रहते तो दुनिया का आठवां आश्चर्य नहीं होता! ऐसे में ही एजाज अहमद का मत था कि इस कारण से समाज में जेंडर, वर्ग, क्षेत्र या जाति के आधार पर जारी शोषण या अत्याचार की जो तस्वीर साहित्य में प्रकट होती थीं, उन्हें सच्ची तस्वीर मानने से इनकार कर दिया जाता था। सच्ची तस्वीर का मतलब हो गया केवल राष्ट्र के रूपक और राष्ट्रीय संकट। एक अनोखा आयाम यह भी था कि राजनीतिक अर्थव्यवस्था की तुलना में साहित्य, दर्शन और रेडिकल नृतत्वशास्त्र को ज्यादा अहमियत प्राप्त होने लगी।

विकसित देशों में तीसरी दुनिया के बुद्धिजीवियों की मौजूदगी जैसे-जैसे बढ़ी है या प्रकाशन जगत में उनकी किताबों की मांग बढ़ी तो उसने भी साहित्य के मूल्यांकन में औपनिवेशिकता (coloniality) को अनिवार्य संदर्भ की तरह इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किया। उनके बारे में एजाज अहमद लिखते हैं- ‘वे अब सरलता से उन अन्य लोगों के प्रतिनिधि बन सकते थे जिन्हें उपनिवेशवाद का सामना करना पड़ा। वे उत्तर औपनिवेशिक अन्य (Post- Colonial Other) लोगों में भी गिने जा सकते थे।  इस प्रकार से पूरब का फिर जन्म हुआ और उसे तीसरी दुनिया यानी थर्ड वर्ल्ड के रूप में विकसित किया गया। उसे जानना व व्याख्यायित करना कैरियर की तरह हो गया और इस बार यह काम खुद पूर्वी देशों से आए लोग कर रहे थे जो पश्चिमी परिवेश में खुद को स्थापित कर चुके थे।’

एजाज अहमद ने फ्रेडरिक जेमसन, सलमान रुश्दी और एडवर्ड सईद की जो आलोचनाएं प्रस्तुत की हैं, वे खासतौर पर ध्यान देने योग्य है। तीसरी दुनिया के देशों में जो भी नए सिद्धांत 60 के दशक के बाद पश्चिम में गढ़े जा रहे थे, वे स्वयं किस प्रकार से तीसरी दुनिया के साहित्य की अधूरी लेकिन एकरूपता की समस्या से ग्रस्त समझ को बढ़ावा दे रहे थे, इसको एजाज अहमद ने बहुत ही बारीक विवेचन के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है। जेमसन का प्रसिद्ध निबंध है- थर्ड वर्ल्ड लिटरेचर इन द एरा आफ मल्टीनेशनल कैपिटल जिसमें उन्होंने अपनी यह प्रसिद्ध मान्यता प्रस्तुत की है कि तीसरी दुनिया का समस्त साहित्य अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय रूपक (national allegory) होता है। उपरोक्त बातें इस संदर्भ में याद रखनी चाहिए जिसका संबंध तीसरी दुनिया के साहित्य की पश्चिम में एक अलग श्रेणी बन जाने से है। एजाज अहमद ने तीसरी दुनिया के लेखन को केवल राष्ट्रीय रूपक की तरह पढ़े, समझे या विखंडित किए जाने की चेष्टाओं के मूल वैश्विक कारणों की सघन पड़ताल की है। एजाज अहमद भारत में जन्में और उर्दू भाषा में भी लिखा जिसे अमेरिकी बुद्धिजीवी प्रायः समझते नहीं हैं। इसीलिए उन्हें गहरा आश्चर्य भी हुआ कि भारत या अन्य देशों की कई भाषाओं को जब पश्चिमी बुद्धिजीवी समझते नहीं हैं तब वे उन भाषाओं के साहित्य के बारे में ऐसे सामान्यीकृत सिद्धांतों का किस प्रकार से निर्माण कर सकते हैं? चूंकि पश्चिम में बैठे इन धुरंधर विद्धानों को अपनी भाषा संबंधी सीमाओं का ज्ञान होता है, इसीलिए वे इस झंझट में ही नहीं पड़ते कि हिंदी, बंग्ला, गुजराती, उर्दू या चीनी भाषा के साहित्य को मूल रूप से पढ़ें या उनका अनुवाद कराने का श्रम करने के बाद किसी नतीजे पर पहुंचे। वे आसान रास्ता अपनाते हैं। आसान भी नहीं बल्कि छोटा रास्ता जो उन्हें उसी तीसरी दुनिया से ही दूर ले जाता है जिसके साहित्य को वे लोकतांत्रिक स्वीकृति प्रदान करने की उदारता का परिचय देना चाहते थे। वे तीसरी दुनिया के लेखन को समझने के लिए तीसरी दुनिया के अंग्रेजी भाषी लेखकों को अत्यधिक बढ़ावा देते हैं। अंग्रेजी के लेखन के ही तीसरी दुनिया के समाजों का प्रतिनिधि करने वाला लेखन मान लेते हैं। अंग्रेजी के अलावा पुर्तगाली, स्पेनी आदि भाषाएं में लिखे साहित्य पर भी नजर डाल लेते हैं जिनका संबंध यूरोप से रहा है। पर यह तरीका कितना हास्यास्पद हो सकता है इसका उदाहरण भी एजाज देते हैं। उन्होंने सलमान रुश्दी की किताब ‘मिडनाइट चिल्ड्रन’ की न्यूयार्क टाइम्स में छपी समीक्षा का उल्लेख किया है। जब यह उपन्यास छपा था तब अमेरिका के इस बड़े अखबार ने बड़ी भद्दी और बेवकूफी से भरी टिप्पणी की थी। अखबार की ओर से कहा गया कि ‘आखिर एशिया को अपने बारे में लिखने वाला रचनाकार मिल गया।’ यह किसी को भी सिर पीटने के लिए विवश कर सकता था। अभी तक एशिया बेआवाज था और पूंजीवाद की ऐश्वर्य से भरी दुनिया में कोई उसका प्रतिनिधि बनने योग्य तक न था। जब हम जागे तभी सुबह भी होगा। यह बात आश्चर्य में डालती है कि अंग्रेजी लेखन को ही महाद्वीप का प्रतिनिधित्व करने वाला लेखन माना जा सकता था और ऊपर से तीसरी दुनिया के साहित्य को स्वीकारने व उसे स्थापित करने का अहसान अलग से। इस बात को छोड़कर वापस जेमसन की ओर लौटते हैं। जेमसन का मानना था कि तीसरी दुनिया के देश उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के अपने अनुभव के आधार पर अपनी अलग पहचान का निर्माण करते हैं। जेमसन के मुताबिक, तीसरी दुनिया में चूंकि उपनिवेशवाद का विरोध करते हुए राष्ट्रवाद का विकास होता है इसीलिए उनके समस्त साहित्य का राष्ट्रीय रूपक के तौर पर पढ़ा तथा समझा जाना चाहिए। एजाज अहमद ने दुनिया को पहले, दूसरे या तीसरे खाने में रखने वाले विभाजन पर भी प्रश्न खड़े किए हैं। एजाज के अनुसार पहली दुनिया यानी पूंजीवादी देशों और दूसरी दुनिया यानी समाजवादी देशों को उत्पादन व्यवस्था के आधार पर विभाजित किया गया। पर तीसरी दुनिया के देशों की श्रेणी तैयार करते समय उनकी भौतिक दशा, उत्पादन संबंधों की ऐतिहासिक अवस्था आदि को भुला दिया गया। तीसरी दुनिया की श्रेणी बनी केवल उपनिवेशवाद से उनके अनुभव के आधार पर।

एजाज मानते हैं कि वर्तमान में भारत जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों में पूंजीवाद का गहरा असर है और वे अपने पुराने औपनिवेशिक अतीत से दूर चले आए हैं। वहां बड़ी मात्रा में समाजवादी साहित्य भी रचा गया है जिसमें वर्ग विषमता और समानता के मुद्दों को ध्वनित किया गया है। इसलिए भारत जैसे देशों की औपन्यासिकता या अन्य साहित्य को केवल राष्ट्रीय रूपक के तौर पर प्रस्तुत करना एक खास तरह का चयनवादी रवैया है या फिर बौद्धिक नादानी के सिवाय और कुछ नहीं है। जेमसन जैसे बौद्धिक तीसरी दुनिया के साहित्य को मात्र राष्ट्रीयता से जोड़ने की वकालत करते हैं या फिर मानते हैं कि अब राष्ट्रवाद के बाद अंतिम विकल्प है। लेकिन बाद में चोर दरवाजे से या चुपचाप यह भी मांग कर बैठते हैं कि तीसरी दुनिया उपनिवेशवाद के अनुभव के बाद कोई अन्य रास्ता न पकड़े बल्कि अमेरिका की उत्तर आधुनिकता की संस्कृति को अपना ले। किसी अन्य तरह का विकल्प जैसे कि समाजवाद या समाजवादी सिद्धांत से जुड़ने के विकल्प को समाप्त घोषित कर दिया जाता है। लेकिन साहित्य को राष्ट्रीय रूपक की तरह मानने के बावजूद इसपर भी कम ध्यान दिया गया कि एशिया से लेकर अफ्रीका तक विभिन्न देशों में अलग-अलग राष्ट्रवाद रहे हैं। ईरान का राष्ट्रवाद रहा है जो मुस्लिम फंडामेंटलिज्म में समा गया। इसलिए हम साहित्य को  राष्ट्रीय रूपक की अवधारणा से ही समझने लग जाएंगे तो अनिवार्य तौर पर तीसरी दुनिया के साहित्य के प्रगतिशील चरित्र को समेटने में नाकामयाब होते चले जाएंगे। जेमसम की तीसरी दुनिया के साहित्य के बारे में राष्ट्रीय रूपक की सैद्धांतिकी समूची तीसरी दुनिया के लेखन को अन्य या अन्यपन (otherness) के खाते में डालती है। इसी पर एजाज अहमद लिखते हैं- ‘संसार में जिस प्रकार से हर देश में, हर स्थान पर पूंजी और श्रम के मध्य जो प्रधान संघर्ष चल रहा है उसमें ऐसा बहुत सारा साहित्य रचा जा रहा है जो केवल पहली, दूसरी या तीसरी दुनिया की सीमाओं को ध्यान में रखकर नहीं समझा जा सकता है। जेमसन का लेखन केवल पहली दुनिया का लेखन नहीं है और न मेरा केवल तीसरी दुनिया का। हम एक-दूसरे के सभ्यतागत अन्य (civilizational others) नहीं हो सकते हैं।’

एजाज अहमद अपनी आलोचना में एक और बिंदु यह भी उठाते हैं कि तीसरी दुनिया के ही देशों जो एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में फैले हैं, उनमें ऐसी सांस्कृतिक या परिस्थितिगत समानताएं नहीं हैं जिनके आधार पर उनके साहित्य के बारे में सामान्य सिद्धांत का हम निर्माण कर सकें। पहली दुनिया के देशों में कई देशों का साझा इतिहास है जैसे जर्मन व फ्रांस। या फिर ब्रिटेन और अमेरिका। पर तीसरी दुनिया के भारत और पेरु जैसे देशों का कोई साझा इतिहास नहीं है और न ही औपनिवेशिकता संबंधी उनके अनुभवों में कोई खास समानता है। इसलिए मैक्स वेबर के नक्शेकदम पर चलकर ‘आदर्श प्रारूप’ तैयार करना अंततः तीसरी दुनिया की सच्चाई और उसके साहित्य की जटिलताओं को अनदेखा करने का प्रयास हो जाता है। यह एक तरह की बौद्धिक-अकादमिक चतुराई का भी परिचय होता है जिसमें तीसरी दुनिया के रचनाकार पर यह दबाव डाला जाता है कि अगर तुम्हें अपने लेखन को स्वीकृति दिलानी है तो इस प्रकार लिखो कि तुम्हारा लेखन राष्ट्रीय रूपक की कसौटियों पर खरा उतर सके। परिणामतः लेखन अपने समाज की वाचिकता तथा लिंग-वर्ग के संघर्ष आदि से कट जाता है। जेमसन का यह भी मानना है कि तीसरी दुनिया का लेखन ‘नान कैनोनिकल’ है यानी वह अमेरिकी साहित्य-अध्ययन की मुख्यधारा में ठीक से अपनी जगह नहीं बना सका है। उन्हें लगता था कि तीसरी दुनिया के लेखक अभी उसी प्रकार से उन विधाओं में लिख रहे हैं जिसे कभी पश्चिम ने विकसित किया था पर जिसे अब उसी ने त्याग दिया है। इसके जवाब में एजाज ने नेरुदा, वलोजो, आक्टोवियो पाज, बार्गसा, मार्क्वेज, अचेबे और सलमान रुश्दी के नामों की सूची प्रस्तुत की है जो अब अंग्रेजी समाचार पत्रों से लेकर पश्चिमी विश्वविद्यालयों में सम्मानजनक उपस्थिति रखते हैं। इसलिए एजाज के शब्दों में- यह कहना कि तीसरी दुनिया के लेखकों को ‘कैनन’ स्वीकार नहीं करता है, यह बुर्जुआ सांस्कृतिक कर्मों की गलत व्याख्या करना है।  एजाज ने फ्रेडरिख जेमसन की सैद्धांतिकी को 60 के दशक के बाद की ऐतिहासिक-राजनीतिक स्थितियों की उपज बताया है जब उत्तर आधुनिकता के लक्षणों का आगमन होने लगा था और भिन्नता, स्थानीयता व सांस्कृतिक सापेक्षिकता को पहली दुनिया के सिद्धांतकार बढ़ावा दे रहे थे ताकि तीसरी दुनिया के साहित्य को समाजवादी खेमे में जाने से रोका जा सके और तीसरी दुनिया में पैदा हो रहे पूंजीवादी आर्थिक संबंधों, वर्ग विषमता आदि को साहित्य में तलाशने की प्रवृत्ति को रोका जा सके। पश्चिम में ऐसे लेखकों को खास पहचान मिलने लगी थी जो तीसरी दुनिया के बारे में लेखन करते समय उसकी राष्ट्रीय परिघटनाओं, उपनिवेशवाद के प्रभाव, अधिनायकवादी सत्ता के उदय आदि के बारे में चित्रण करें पर उसके भीतर के वास्तविक सामाजिक असंतुलन व गैरबराबरी के यथार्थ को सामने न लाएं। इसीलिए वह लिखते हैं- अब यह पूर्णतया स्पष्ट हो चुका है कि पश्चिमी महानगरों में उपस्थित आलोचक वर्ग के लेखन में उत्तर आधुनिकता व तीसरी दुनिया के लेखन की स्वीकृति के मध्य गहरा संबंध स्थापित हो चुका है। इसी वैचारिक दृष्टिकोण से एजाज ने सलमान रुश्दी के उपन्यास ‘शेम’ की भी ध्वंसात्मक समीक्षा प्रस्तुत की है। ‘शेम’ उपन्यास पाकिस्तान के समाज के बारे में लिखा गया था जिसके बारे में खुद रुश्दी का मानना था कि वे पाकिस्तान को बहुत टुकड़ों में पहचानते हैं और कभी 6 महीने से अधिक लगातार वहां पर रहे भी नहीं है। इस उपन्यास को उन्होंने अपने मन में जड़ जमाए बैठी पूरब की स्मृतियों से मुक्ति की छटपटाहट का परिणाम बताया है। यानी उनके लिए खास तरह से मुक्ति का दस्तावेज है। रुश्दी के वक्तव्यों से प्रतीत होता है कि उनकी लेखकीय चेतना पश्चिमी आधुनिकता से प्रभावित रही है जिसमें आत्मनिर्वासन (Self-Exile) को लेखकीय चुनाव के रूप में काफी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता रहा है। यह वास्तविक निर्वासन से भिन्न एक तरह की यायावरी होती है जिसमें लेखक अपने लेखन के साजोसामान को उस देश को ध्यान में रखकर नहीं जुटाता है जहां से वह आया है बल्कि उस देश के पाठकों को ध्यान में रखता है जहां वह स्वेच्छा से रह रहा है। पर जो भी हो, आत्मनिर्वासन से जुड़े ‘अनबिलांगिंग’ के अनुभव व आधुनिकता के प्रभाव से लेखक अपने लिए दोहरी परिस्थितियां तैयार करता था जिसमें एक ओर वह आत्मनिर्वासन को आधुनिकता के सबसे प्रामाणिक रूपक के रूप में चुन लेता था और दूसरी ओर वह अपने ही उसे देश और परिवेश के बारे में रचना करता था जिसे वह घुटन से भरा मानने के कारण छोड़ देता था। लेकिन जब पश्चिमी आधुनिक जगत के बीच वे पूरब के बारे में रचते हैं तो पूरब को एकरूपता के साथ प्रस्तुत करते हैं जो पूरब के बारे में यानी एशियाई देशों के बारे में पश्चिम की पारंपरिक कल्पना को ही मजबूत करता है। पाकिस्तानी समाज के आंतरिक अंतर्विरोधों, प्यार, जीवंतता या नायकोचित संघर्षों को दिखाने के स्थान पर उस समाज को तानाशाहों से भरा बंद, घुटन से भरे समाज के रूप में दिखाते हैं जहां स्त्रियां या तो कामुक व हिंसक हैं अथवा केवल उत्पीड़ित हैं। एजाज ने रुश्दी के उपन्यास में व्यक्त चरित्र चित्रण खासकर महिलाओं के चित्रण की समीक्षा करते हुए दिखाया है कि किस प्रकार रुश्दी कामुक-हिंसक स्त्रियों को चरित्र के रूप में पेश करते हैं और वे चरित्र इस साम्राज्यवादी मान्यता या स्त्रीद्वेषी मनोदशा के अनुकूल है कि आजादी की आकांक्षा जताने वाले लोग कितन असंतुलित एवं पागल है। औरतें यहां दुष्ट चुड़ैलों की तरह हैं जिन्हें स्वतंत्रता मिली तो वे पुरुषों को निगल जाएंगी। पाकिस्तानी समाज का यह चित्रण रुश्दी की अपनी स्थितियों की देन है जिसमें वे स्वयं जड़ों से कटे, निराधार हैं तो दूसरी ओर वे अपने उपन्यास को राष्ट्रीय रूपक की तरह प्रस्तुत करने की चिंता में पाकिस्तान के वास्तविक प्रश्नों व संघर्षों से मुंह फेर लेते हैं। एजाज के अनुसार- ‘इस किताब में वह बार-बार देश का चित्रण करने की बात कहते हैं पर वे केवल क्रूर और संकीर्ण घुटन से भरे शासक वर्ग का ही चित्रण करते रहते हैं। शासक के चित्रण को ही देश के चित्रण का पर्याय मानना स्वयं में बहुत बड़ी भूल है।‘

एजाज अहमद ने एक अन्य क्लासिक रचना ‘ओरियंटलिज्म’ (1978) के बारे में भी अंतर्दृष्टिपूर्ण आलोचनाएं प्रस्तुत की हैं जो इस पुस्तक के उन प्रशंसकों को बेचैन कर सकती हैं जो इसे तीसरी दुनिया विशेषकर अरब देशों के बारे में खड़ी की गई पश्चिमी ज्ञानमीमांसा का सबसे जोरदार खंडन मानकर इस किताब की प्रशंसा करते रहे हैं। इसे क्लासिक मानकर दुनिया के समाज विज्ञान की शाखाओं में गैरआलोचनात्मक तरीके से पढ़ाया भी जाता है। एडवर्ड सईद पश्चिमी ज्ञानमीमांसा की निंदा करने के लिए ग्रीक साहित्य के समय से उसकी अखंड लकीर खींचते हैं जो आधुनिक काल तक आती है। यानी सारा पश्चिमी बौद्धिक उत्पादन अनिवार्यतया तीसरी दुनिया खासतौर पर मुस्लिम अरब मुल्कों के खिलाफ षडयंत्ररत रहा है। इसी झोंक में मार्क्सवाद को भी पश्चिमी ज्ञानमीमांसीय साम्राज्यवाद का प्रतीक भी घोषित कर दिया। एजाज ने ‘ओरियंटलिज्म’ पुस्तक की व्यापक सराहना और स्वीकृति को भी प्रव्रजन की स्थितियों से संबंद्ध किया है। उन्होंने तत्कालीन विश्व की विभिन्न घटनाओं की सूचनाएं एकत्र कर निष्कर्ष निकाला है कि 80 के दशक में एशियाई तथा अरब मूल के लोग अमेरिकी समाज में तेजी से प्रवेश कर रहे थे और यूनिवर्सिटियों में बतौर प्रोफेसरों के भी उनकी संख्या बढ़ रही थी। जब यह परिवर्तन चल रहा था तब उनके भीतर अमेरिकी और यूरोपीय समाजों में अपने लिए ज्यादा सम्मानजनक तथा बड़ा स्थान प्राप्त करने की चिंता भी थी। अपने उत्पीड़न व बुरे ढंग की नस्लीय नुमाइंदगी के सवाल को उठाने वाले बौद्धिक कृतित्व की आवश्यकता भी उन्हें पड़ने लगी थी। पूरबी देशों में पश्चिम के उच्च संस्थानों में पहुंचे लोग प्रायः अपने ही देश में वर्ग-क्रांति व विषमता प्रश्नों पर मौन रहते थे पर पश्चिम में आकर वे पश्चिम व पूरब की दुनिया के टकरावों में रुचि प्रकट करते थे ताकि उन्हें पश्चिम में अधिक सुविधाजनक स्थितियां प्राप्त हो सकें। बहुत ही दो टूक शब्दों में एजाज लिखते हैं- ‘अमेरिका व यूरोप के विश्वविद्यालयों में जो लोग भी ग्रैजुएट विद्यार्थी के रूप में आए और बाद में शिक्षक बने, खासतौर पर मानविकी तथा समाज विज्ञान में, वे प्रायः अपने देश के उच्च वर्गों से संबंधित थे। अपने मुल्कों से उखड़ने के बाद विकसित मुल्कों में खुद को फिर जमाने के लिए उन्हें ऐसे बौद्धिक दस्तावेज और प्रमाणों की आवश्यकता पड़ी जो नई जगहों में उत्पीड़ित होने के उनके दावे को पुष्ट कर सकें। वे किसी भी प्रकार के संभावित दमन से बचने के लिए पहले से तैयार रहना चाहते थे। इसीलिए लगातार खुद को असुरक्षित, अपमानित और भेदभावों के शिकार समुदाय के रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा करते थे। ‘ओरंयटलिज्म’ उनके इस दावे को सही ठहराती थी कि पश्चिम हमेशा ही अरब मूल के लोगों के खिलाफ रहा है। लेकिन ऐसी पुस्तकें जो उत्पीड़न को वर्ग (class) से जोड़ती थीं, वे उनके लिए विशेष काम की नहीं थीं। वह इसलिए भी क्योंकि वे स्वयं कामगार-किसान वर्ग से नहीं थे और जिस देश में रहने आए थे, वहां के किसी भी तरह सर्वहारा आंदोलन का हिस्सा बनने में उनकी दूर-दूर तक रुचि नहीं थी। उपनिवेशवाद की चर्चा होने पर यह तर्क भी आता था कि उपनिवेशवाद ने जिन देशों को लूटा, वहां एक खास वर्ग को लाभ भी पहुंचाया। पर एशिया, अरब या अफ्रीका से आए इन नए समुदायों को यह तर्क बिलकुल पसंद नहीं था। वे डटकर इसकी उपेक्षा करते थे। कारण यह कि वे स्वयं या उनके पूर्वज उन्हीं वर्गों से जुड़े हुए थे जो उपनिवेशवाद के लाभार्थी थे।’ एजाज अहमद का अपेक्षाकृत लंबा उद्धरण इसलिए दिया गया ताकि यह समझा जा सके कि पश्चिमी ज्ञानमीमांसा  के इतने विकराल विखंडन की भौतिक और सामुदायिक स्थितियां किस प्रकार की थीं। पश्चिम में 60 के दशक के बाद बसे लोगों को इस अवधारणा से विशेष संतोष मिलता था कि उनके अपने एशियाई, अफ्रीकी या लैटिन अमेरिकी मुल्कों में सभी समस्याओं की जड़ वे औपनिवेशिक देश रहे हैं जहां  वे अब बेहतर जीवन की तलाश में स्वयं आकर बस गए हैं।

उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम देख सकते हैं कि एजाज अहमद मुख्यतः सिद्धांतकार के रूप में हमारे सामने नहीं प्रस्तुत होते हैं बल्कि वे सिद्धांतों, अवधारणाओं और विचारधारा की भौतिक पृष्ठभूमि का कड़ा परीक्षण करते हुए सिद्धांतो का खंडन करने में रुचि लेते हैं। वामपंथी चिंतक होने के कारण वर्ग के सवाल को अलग रखकर साहित्य व राष्ट्र के संबंधों को हल करने, विचार करने या उनपर विषयसामग्री जुटाने के प्रयासों के कड़े आलोचक हैं। वे दिखाते हैं कि साहित्यिक सिद्धांत भी उत्पादन, वर्ग और वर्ग संबंधों के तंत्र से बंधे होते हैं और साहित्यिक सैद्धांतिकी का विश्लेषण विश्व की भौतिक स्थितियों व उत्पादन तंत्र में आते बदलावों को अलग करके नहीं किया जा सकता है।

फोन- 9711312374

 
      

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