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आदमी की निगाह औरत को क्या बनाती है?

युवा आलोचक वैभव सिह का यह लेख पढ़ने और चर्चा करने के योग्य है। उनके लगभग हर लेख की तरह सुचिन्तित और गहरी वैचारिकता से परिपूर्ण- मॉडरेटर

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भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्री-पुरुष के संबंधों के बारे में खुलकर बात करने की मनाही नहीं है, पर आज भी इसे एक ‘संदिग्ध कर्म’ की  श्रेणी में रखा जाता है। कई लोगों के लिए तो हांफने, झेंपने के लिए मजबूर करने वाला, संकोच में डाल देने वाला या बेचैन कर देने वाला अशोभनीय कृत्य होता है। पर सच यह है कि स्त्री-पुरुष के संबंधों की कथाएं भी बहुत सारी वासना, प्रेम, घृणा और आवेग से लिथड़ी हुई हैं। किसी गहरी काली शाम में जैसे किसी समुद्र के तट पर रहस्यमयी चट्टाने एक-दूसरे को देख रही होती हैं, कुछ उदास आंखों से, कुछ उसी तरह स्त्री और पुरुष बहुत पास होकर भी बहुत दूर होते हैं। उनकी देह और मन पर असंख्य आशंकाओं की परतें चढ़ी रहती हैं और उन परतों के नीचे उनके मन की कोमल गोपन दुनिया होती है। भारत जैसे पिछड़े समाजों में दुर्भाग्य से पुरुषों को बहुत जल्द चरित्रवान होने का अभिनय सीखना पड़ता है। यही अभिनय स्त्रियों को भी सीखना पड़ता है। चरित्र की पूरी धारणा ने पुरुषों व स्त्रियों, दोनों को सबसे ज्यादा ठगा है, नुकसान पहुंचाया है। पुरुषों के मामले में चरित्रवान होने का मतलब केवल औरतों से दूरी बनाकर रखना होता है। चरित्र यहां कोमल रुई के फाहे जैसा होता है जो जरा से स्पर्श से बिखर जाता है। चारा चरित्रवान होने का अभिनय करते-करते कई बार उस स्थिति में पहुंच जाता है जब स्त्री को अपने लिए अबूझ और रहस्यमय बना लेता है। उसकी बाहरी और भीतरी दुनिया में दरार पड़ जाती है। वक्त के साथ वह दरार फिर कभी नहीं भर पाती। चरित्रवान होने के बेवकूफी भरे दबाव के कारण ही वह बहुत सारे अवैध व अनुचित रास्तों से स्त्री तक पहुंचने का प्रयास करता है। कई बार ये रास्ते उसे खंडित रिश्तों, भटकाव, वेश्यालयों, विकृतियों व पोर्न सामग्री की दुनिया में ले जाकर छोड़ देते है। वह सत्य जो भरपूर उजाले में मिल सकता है, वह उसे ढूंढने के लिए अंधकार की तरफ चल देता है। अबूझ-रहस्यमय चीजों के साथ आम तौर पर मानवीय समता का व्यवहार नहीं किया जाता है। या तो उन्हें नष्ट किया जाता है, या दूर कर दिया जाता है या फिर उनकी मूर्तियां गढ़कर उन पर फूल-मालाएं चढ़ाई जाती हैं। गांवों में बहुत सारी स्त्रियों को रहस्यमय मानकर उनकी हत्याएं अगर की गई हैं, तो उसके पीछे स्त्रियों के पाप-अपराध नहीं बल्कि पुरुष दृष्टिकोण जिम्मेदार रहे हैं।

औरत हो या आदमी, वे एक-दूसरे के बारे में सब कुछ जान चुकने के अहसास से भरे होते हैं। पर फिर भी उनमें एक-दूसरे को जानने की अनंत जिज्ञासा का समुद्र लहराता रहता है। वे एक-दूसरे के प्रति सार्वजनिक उदासीनता का दिखावा करते हैं और निकट आने के लिए उतनी ही तीव्रता से सपने बुनते हैं। लगता है जैसे आकर्षण के अनगिनत बीज मन की नम-मुलायम दुनिया में दबे होते हैं जो हल्के से खाद-पानी का स्पर्श पाते ही लहलहा उठते हैं। विश्व साहित्य में ऐसे कितने ही चरित्र हैं जिनमें कई बार प्रेम पाकर भी प्रेम की तड़प से घिरे पात्र हैं। इनमें नायिकाएं हैं और नायक भी। बार-बार अन्ना कैरेनिना की नायिका याद आती है जिसका भरापूरा खुशहाल घर है, बेटा है, पर वह विवाहेतर संबंध की कल्पना से भरी हुई है। जब उसका पति कुलीनता व सामाजिक प्रतिष्ठा का हवाला देकर रोकता है तो वह कहती है- ‘देर हो चुकी है..देर हो चुकी है..देर हो चुकी है..।’ इसके बाद वह रात में देर तक अंधेरे में आंखें खोले लेटी रहती है और ताल्सताय के शब्दों में- ‘मानों अंधेरे में वह खुद अपने आंखों की चमक देख रही है।’ खुद को अपराधिनी व दोषी मानने की पीड़ा से घिर गई है। लेखक की दृष्टि में वह प्रेम की साकार प्रतिमा के रूप में उभरी है पर ताल्सताय बड़े लेखक होने के कारण प्रेम को लेकर उसके गहरे सामाजिक द्वंद्व को भी बखूबी उभारा है। प्रेम वहां अकेलेपन का चुनाव है और उस अकेलेपन की दहशत में एक त्रासद आत्महत्या की नियति छिपी है।

अगर पुरुषों की ही निगाहों की बात करें तो उन निगाहों ने कितनी ही तरह से स्त्रियों को देखा है, भोगा है और उसे अपने अनुसार ढाला है। आधुनिकता के आगमन से पहले पुरुष को स्त्रियों के बारे में अपने दृष्टिकोण को ज्यादा निद्वंद्व भाव से जीने की छूट थी। स्त्री के बारे में पुरुष की निगाह ही ‘शासक निगाह’ थी। लेकिन आधुनिकता ने दृष्टियों या दृष्टिकोणों को उनके सुरक्षित किलों से खींचकर बाहर निकाल लिया है। ठीक वैसे ही जैसे किला हारने के बाद सामंत को कैदकर बाहर लाया जाता था और उस पर मुकदमा चल सकता था। औरतों के बारे में आदमी की पुरानी निगाहें अब अदालत में खड़ी हैं। उन पुरानी, अकड़ से भरी दंभी निगाहों से जिरह की जा सकती है। उन्हें अपना पक्ष रखने की छूट है, पर खुद को सही सिद्ध करने की नहीं। पुरुष की निगाहें स्त्री के बारे में स्थिर नहीं रहती हैं, बल्कि वे बदलती हैं। लेकिन कुछ चीजें नहीं भी बदली हैं और उनमें से यह है कि आदमी की निगाह में वही स्त्री सही मायने में स्त्री होती है जो अवचेतन की दमित इच्छाओं के अनुकूल होती है। ये दमित इच्छाएं इतनी जटिल होती हैं कि खुद पुरुष को उनके सही रूप की ठीक जानकारी नहीं होती है। इन सारी दमित इच्छाओं के सामने पुरुष रह-रहकर शर्मिंदा होता है, पर उन्ही के सहारे वह जीवन को जीने लायक भी बनाता है। इन दमित इच्छाओं में अपना शासन थोपना, अपनी कल्पनाएं थोपना, अपनी फैंटेसी थोपना और अपनी शक्ति थोपने का पूरा खेल संचालित होता है। पितृसत्ता की कंडीशनिंग की उसमें बड़ी भूमिका होती है। ऐसा नहीं है कि आदमी को हमेशा इस खेल में विजय मिलती है। वह बहुत बार हारता और परास्त भी होता है, पर वह कहीं न कहीं इस उम्मीद से भरा रहता है कि खेल में उसे विजय दिलाने वाली स्त्रियों को वह तलाश लेगा। या फिर ऐसी स्त्रियां, जो पुरुष से हारने में सार्थकता देखती हैं, वे खुद चलकर उसके पास आ जाएंगी। पितृसत्ता उसे हिंसक, घृणित तथा आक्रामक बनाकर उसके व्यक्तित्व के पूरे सौंदर्य को नष्ट कर देती है। इसीलिए नारीवाद अगर यह कहता है तो ठीक ही कहता है कि पितृसत्ता केवल स्त्रियों के खिलाफ नहीं बल्कि पुरुषों के खिलाफ भी है। वह स्त्री को अगर स्वतंत्रता से वंचित करती है, तो पुरुष को उसकी मानवीयता से।

उर्दू लेखिका इस्मत चुगताई ने शायद अपनी कथाओं में पुरुषों के मनोविज्ञान का सबसे सफल तरीके से मजाक उड़ाया है। उनकी एक कहानी है ‘मुगल बच्चा’। कहानी में पुराने मुगल खानदान के एक सामंती अकड़ से भरे काले-कलूटे लड़के की शादी एक खूबसूरत गोरी-चिट्टी लड़की से हो जाती है। उसके घर वाले चिढ़ाते हैं कि उसकी बदसूरती से उसकी दुल्हन भी काली पड़ जाएगी। उसके अहं को ठेस लग जाती है और वह सुहागरात के दिन दुल्हन का अपने हाथ से घूंघट उठाने से इनकार कर देता है। हालांकि उस मुगल खानदान का होने के कारण बदचलनी, वेश्यावृत्ति, लौंडाबाजी आदि के सारे अनुभव होते हैं। उसकी जिद है कि उसकी बीवी को अपना घूंघट खुद उठाना होगा। भारत में लड़कियां शादी के बाद कभी अपने हाथ से अपना घूंघट नहीं उठाती हैं। यह लड़की के लिए अपमानजनक व असंभव है। वह भी नहीं उठाती। इस कारण वह लड़का शादी की रात गुस्से में घर छोड़कर चला जाता है। कई साल बाद उसे ढूंढ कर लाया जाता है तो फिर वही किस्सा दोहराया जाता है। फिर लड़की घूंघट अपने हाथ से नहीं उठाती। वह फिर घर छोड़ देता है। कई जगह भटकता है, आवारा हो जाता है, बीमार पड़ जाता है। अंत में साठ साल की उम्र में वह घर लौटता है तो बीबी भी वृद्ध हो चुकी है। वह हार मानकर सोचती है कि वही अब घूंघट उठा देगी। अब तो जिंदगी लगभग बीत चुकी, अब क्या लज्जा! उसका पति उसके पास बीमारी की हालत में लेटा कराह रहा होता है। जैसे ही वह घूंघट हटाती है तो देखती है कि उसका पति मर चुका है। अकड़, घमंड और जिद से भरे पुरुष की मृत देह उसके पास पड़ी होती है पर वह पुरुष मरते-मरते मर जाता है पर औरत को लेकर अपने मिथ्या अभिमान को कभी नहीं छोड़ पाता है। कहने का मतलब है कि अगर इश्क में शीरी-फरहाद व लैला-मजनूं के दसियों किस्से हैं जिसमें आदमी व औरत का अहं पूरी तरह से प्रेम में विलीन हो जाता है तो दूसरी ओर उनके बीच खड़ी अहं तथा गलतफहमी की दीवारों का बयान करने वाली सैकड़ों कहानियां भी हैं। आदमी केवल प्रेम से नहीं बल्कि बलपूर्वक स्त्री को पाने में अपनी मर्दानगी की जीत देखता है। इसीलिए प्रेम करने वाला आदमी आज भी ज्यादा सम्मान नहीं पाता जबकि औरत को जबरन जीत लेने या हथिया लेने वाले लोग स्वयं को ज्यादा काबिल व योग्य मानते हैं। लोकतांत्रिक सोच के निर्माण के लिए मर्दानगी के बहुत सारे मिथ को ध्वस्त करना बाकी है। आधुनिक समाज में ठीक से जीने लायक बनने के लिए पुरुष-ग्रंथियों के लिजलिजे दलदल से बाहर आने की अधूरी चेष्टाओं से भी काम नहीं चलने वाला।

आदमी कि निगाह में औरत कभी संपूर्ण मनुष्य का दर्जा नहीं हासिल कर पाती है क्योंकि आदमी के मन में संपूर्ण होने की कोई दबी लालसा होती है। यह दबी लालसा सदा अधूरी रहती है क्योंकि वास्तविकता में ‘संपूर्ण पुरुष’ बन जाने जैसी कोई स्थिति कभी होती नहीं है। न डमरू होगा, न वृंदावन, न क्षीर सागर। वह बहुत ही करुण ढंग से समर्पित स्त्री के सामने ही संपूर्ण पुरुष बन सकता है। स्त्री पर उठा हाथ या लात उसे संपूर्ण बनने का अहसास देती है। स्त्री को दुनिया का आखिरी उपनिवेश भी इसी कारण माना जाता है। पर उसे स्त्री से डर भी लगता है कि कहीं वह उसके त्रस्त, क्षरित और दुर्बल पुरुषत्व को, जिसे वह छिपाकर रखता है, अपनी आंखों से देख न ले। इसलिए वह स्त्री को पहले से ही शाश्वत रूप से कमजोर-दुर्बल घोषित कर देता है। आदमी यह भी जानता है कि वह दब रहा है, टूट रहा है, समझौते कर रहा है। चेतना पर भयानक जख्म और रिसते हुए घाव लेकर जीता है। उसका अहं भेदभाव व ऊंचनीच से भरी दुनिया में हर क्षण या तो आहत होता है, या आहत होने की संभावना से घिरा रहता है। स्त्रियां निजी बातचीत में बताती हैं कि उनके पति जब असुरक्षित होते हैं, खासतौर पर रोजगार व आर्थिक सुरक्षा के मोर्चे पर, तो उनके व्यवहार बेहद अटपटे और पीड़ादायक हो जाते हैं। यानी इस व्यवस्था में आहत अहं वाला पुरुष स्त्री से बराबरी के व्यवहार की क्षमता खो देता है। वह स्त्री के साथ संबंध को अपने अहं की सुरक्षा के आखिरी मोर्चे के रूप में देखने लग जाता है। खासतौर पर उम्र के साथ जब रोमांस की भावना घटने लगती है तो यह समस्या गंभीर होती जाती है। चूंकि बाहर की दुनिया पुरुष के अहं पर हर वक्त हमले करती है तो वही पुरुष स्वयं व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है। इसके बाद वह स्त्री को अधीन बनाने के अपने पारंपरिक अधिकार को ‘रिक्लेम’ करता है या फिर वह स्त्री की उपेक्षा कर उसे दंडित करता है। वह जानता है कि स्त्री सबसे ज्यादा उपेक्षा से डरती है, और वह उसी हथियार का सबसे ज्यादा सहारा लेता है।

आदमी की निगाह में औरत के अक्सर दो आयाम होते हैं। एक ओर तो वह औरत को परिवार, संस्कृति के अनुसार जीते देखना चाहता है और इस इच्छा का विकास औरत को पत्नी, मां या बहन बनाने के रूप में होता है। दूसरी ओर वह औरत को परिवार, संस्कृति से विच्छिन्न असहाय दशा में देखना चाहता है जहां वही औरत उसके लिए तवायफ, बदचलन या रंडी बन जाती है। पुराने समाजों में ही नहीं आज भी ऐसा होता है कि छह गज की साड़ी लपेटे आदर्श नारी की छवि वाली पत्नी के साथ वह सवेरे उठकर भगवान के हाथ जोड़ता है और शाम ढलते-ढलते किसी फ्री सेक्स की शौकीन आधुनिक स्त्री या किसी हाई सोसायटी गर्ल के साथ वह जिंदगी को रंगों से नहला रहा होता है। अपनी ऊब और मनहूसियत सी भरी जिंदगी से मुक्ति की तलाश सभी को होती है उस तलाश में औरत व आदमी दोनों ही किसी का साथ चाहते हैं। पर साथ चाहने या रोमांस करने की भावना में पुरुष किसी जिम्मेदारी या बंधन के नाम से बिदकता है और वह औरत की देह के साथ एक ज्यादा अस्थायी, मौकापरस्त रिश्तों के गढ़न की कल्पना में अपने सुख को देखता है। एक निजी अनुभव बांटना चाहता हूं। बहुत पहले की बात है। उन दिनों मैं एक विश्वविद्यालय में पढ़ा करता था और पास में एक कमरा लेकर रहता था। कमरे के पास ही एक परिवार था जिसमें लगभग मेरे ही उम्र की लड़की थी। परिवार की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। मैं कमरे पर बैठकर पढ़ता था तो वह लड़की हर दूसरे या तीसरे दिन कमरे में सकुचाती सी आती थी और सामने रखी तेल की शीशी से कुछ तेल मांगती थी। हाथ में तेल भरकर वह चली जाती थी, शायद बालों में लगाने के लिए। मैं उसकी उपस्थिति की भी खास नोटिस नहीं लेता था और बस हल्का सा चेहरा घुमाकर उसे देखता था और अपनी पढाई में लग जाता था। यह करीब तीन महीने चला और एक दिन उसका परिवार अचानक कहीं चला गया। आखिरी बार वह आई थी तो हाथ से बना सस्ते कागज का ग्रीटिंग था जिसपर अंग्रेजी में थैंक यू लिखा था। मैंने उसपर भी ध्यान न दिया। यह तो बहुत बाद में, कई साल के बाद लोगों ने इस अनुभव की व्याख्या तरह-तरह से करनी शुरू की तो मुझे लगा कि उस दिन तो मैं वहां पुरुष था और वह एक किशोर वय की लड़की। बहुत बाद में मुझे इस बात का पछतावा होना आरंभ हुआ कि मैंने उस संबंध को गंभीरता से क्यों नहीं लिया! मैं क्यों नहीं जवानी की दहलीज पर खड़े मर्द की तरह उसके साथ पेश आया। या हो सकता है वह लड़की भी कहीं इसी बात को याद करके सोचे कि वह उन दिनों किसी स्त्री की तरह क्यों नहीं पेश आई। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन के कई प्रसंगों में पुरुष कई बार अपने पुरुष होने को भूला रहता है। वह स्त्री को कमनीया भोग्य वस्तु की तरह देखने के ख्याल से भी दूर होता है। मर्दानगी का पंजा उसकी चेतना को नहीं झिंझोड़ पाता है। पुरुष निगाह हर बार दोषपूर्ण निगाह नहीं होती है और हम चाहें तो उन निगाहों के निर्दोषपन को बचा सकते हैं।

पर हमारी मीडिया और विज्ञापनों ने आदमी-औरत को ज्यादा विभाजित किया है। दोनों में एक-दूसरे के साथ मनुष्य की तरह बर्ताव करने की सहज प्रेरणाएं होती हैं, पर उन सहज प्रेरणाओं को पहले तो परंपरागत विश्वासों ने और अब फिल्म-मीडिया आदि ने कुचल डाला है। करोड़ों पुरुषों ने औरतों के बारे में अपने दृष्टिकोण साहित्य से नहीं बल्कि टीवी पर प्रसारित होने वाले धारावाहिकों से विकसित किए हैं। पर अभी भी यह संभव है कि स्त्री के प्रति जिन विचारों के कारण आदमी खुद परेशान है, वह उनसे मुक्त हो जाए। वह संतुलन और वैचारिक परिपक्वता को प्राप्त कर ले। उन बेड़ियों को काट दे जिनसे वह औरत को बांधने चलता है, पर खुद उसके बंधन में पड़कर छटपटाता व तड़पता रहता है।

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5 comments

  1. मनोज कुमार पांडेय

    सुविचारित आलेख। यह पितृसत्ता की तमाम परतों की चीरफाड़ करता हुआ अपनी बात कहता है। वैभव जी का शुक्रिया इसके लिए। जानकीपुल का भी बहुत बहुत शुक्रिया कि तमाम पापुलर विमर्श के बीच आपने इस तरह की सामग्री के लिए भी जगह बनाई।

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