स्कूली लेखक अमृत रंजन जैसे जैसे बड़ा होता जा रहा है उसके लेखन-सोच का दायरा बड़ा होता जा रहा है. उसके लेखन में गहरी दार्शनिकता आ गई है. सबसे बड़ी बात यह है कि हिन्दुस्तान से आयरलैंड जा चुका है लेकिन हिंदी में लिखना नहीं छूटा है. इस बार पढ़ते हुए उसके लेखन में बड़ी सम्भावना दिखाई दी. आप भी पढ़कर बताइयेगा- मॉडरेटर
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असीमोव ने अपनी किताब ‘असीमोव्स न्यू गाइड टू सायंस’ की शुरुआत सब सवालों का जवाब देते हुए की है। उन्होंने कहा कि एट फ़र्स्ट देयर वॉज़ क्यूरिओसिटी यानी सबसे पहले जिज्ञासा थी।
एक पेड़ या पंछी को फ़र्क नहीं पड़ता कि उनके चारो तरफ़ दुनिया कैसे घूमती है। पंछियों ने तभी सोचना छोड़ दिया जब उन्हें मालूम हुआ कि कीड़े खाने से उनका पेट दुखना बंद होता है। मानव के पैदा होते समय क्या ग़लती हो गई? क्यूँ हमलोग सोचने लगे कि संसार कैसे जन्मा?
मुझे नहीं लगता है कि हम ग़लती के बजाय और कुछ हो सकते हैं। ज़रा सोचिए, हमको सोचने की इजाज़त किसने दी? जिज्ञासा का अंत नहीं कर सकते। जिज्ञासा व्यक्ति की आदत है। तो क्या हमारा कुछ मक़सद है? और फिर ये पेड़-पौधे हमारी सेवा के लिए बने हैं? जानवरों का मक़सद क्या है? क्या वे इंसानों की दिलचस्पी के लिए बने थे? उनकी मौत के बाद क्या वे कहीं दफ़नाए जाते हैं? लेकिन हमारे पास उनको इत्र में बदलने का, दीवारों पर टाँगने का अधिकार है। क्योंकि हम सोच सकते हैं?
अनगिनत सवाल-जवाब आते-जाते हैं। क्या मछलियाँ हवा देख सकती हैं, और पानी नहीं जैसे हम पानी देख सकते हैं हवा नहीं? क्या केकड़ों के लिए मछलियाँ उड़ रही होती है? क्या मरने बाद ज़िंदगी से डर लगता है, जैसे ज़िंदा रहते हुए मौत से डर लगता है?
हमें या हमारी ज़िंदगी को क्या लाभ होगा जानकर कि दुनिया शुरू कब हुई थी? दुनिया ख़त्म कब होगी? क्या यह कुछ नहीं से बन कर आई है? क्या बस एक चीज़ इतनों में बदल गई? क्या दुनिया समय के साथ बनी है? क्या समय ही दुनिया है? क्या समय जिज्ञासा के बाद बना था? क्या ब्रह्मांड बढ़ता जा रहा है? क्या मृत्यु फैलेगी जब ये छोटा होने लगेगा?
इतने सवाल-जवाबों से लेकिन एक सवाल उभरता है, क्या दुनिया ख़त्म भी जिज्ञासा के कारण होगी? क्या हम सब कुछ जानने के बाद उसे बदलने की कोशिश करेंगे? क्या हमें इन सवालों से सोच लेना चाहिए कि ज्ञान के साथ कयामत आएगी? या फिर यह इंसानी स्वभाव है जो तबाही मचाता है?
मुझे लगता है कि विज्ञान और जिज्ञासा पर्याय हैं। जिज्ञासा से जितना हमें मिलता है, उतना हम खोते भी हैं। कुछ ही समय में इतिहास इतना बड़ा हो जाएगा कि समय के बग़ल में चलने लगेगा। अभी तो एक क़दम पीछे है।
हर सवाल के साथ कुछ बढ़ता है लेकिन उतना ही घटता है। हर पहेली सुलझने पर दो सवाल और रहेंगे। कब तक पूछने की क्षमता है हममें? लेकिन जिज्ञासा भी आदत हो गई है मनुष्यों की। और यह नशा शुरुआत से है। न जाने कब छूटेगा? हम कहते हैं कि हम आगे बढ़ रहे हैं लेकिन हम यह नहीं जानते कि जितने जवाब हैं उससे कहीं ज़्यादा सवाल हैं। बहुत लोग इस दुनिया में वेबकूफ़ हैं, जो आलस कर सोचते हैं कि यह ब्रह्रांड एक हाथ फिराने से बन पड़ा। कुछ लोग ख़ुद को समझदार मानते हैं (लेकिन होते वेबकूफ़)। दूसरी वजहों की तलाश करते हैं। जिज्ञासा कुछ नहीं है, बस एक सोच है हमारे दिमाग की किसी कोने में जो हमारी ज़ल्दी मरने में मदद करती है और फिर जब ज़िंदगी ख़त्म हो जाती है, तो हम कहते हैं कि ज़्यादा समय नहीं मिला।
हम वही बेवकूफ लोग हैं, जो इतिहास लिखते हैं, बिना उसे समझे हुए। और शायद वैज्ञानिक भगवान में विश्वास करते हैं। नहीं तो कौन जानना चाहेगा कि यह सब कैसे शुरू हुआ? विज्ञान और भगवान का मक़सद है दुनिया को जल्द से जल्द से ख़त्म कर बैठना। दुनिया जिज्ञासा से बनी थी, जिज्ञासा के चारो और घूम रही है, जिज्ञासा से भरी है।
तो जब क़यामत आएगी तो हमारी ग़लती थोड़े ही न होगी। यह सब तो जिज्ञासा का किया-धरा है।
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वाह ! खूबसूरत लेख मानो किसी परिपक्व वय के व्यक्ति ने लिखा है। बवाला एक नयी सोच के साथ आने के लिये।
दार्शनिकता से सराबोर यह लेख थोडा और पढने की जिज्ञासा को बढा रहा है |लेख किसी व्यस्क लेखनी सा प्रभाव डालता है | आगे और लेखों की प्रतीक्षा रहेगी …वंदना बाजपेयी