आज जन्माष्टमी भी है. युवा लेखक विमलेन्दु का एक अवश्य पठनीय टाइप लेख इस मौके पर पढ़िए- मॉडरेटर
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ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास न होने के बाद भी कृष्ण मेरे प्रिय पात्र रहे हैं. कई बार जब किसी प्रश्न का जवाब ढूढ़ना मेरी सामर्थ्य के बाहर हो जाता है तो मैं कृष्ण की शरण में जाता हूँ. ज़्यादातर ऐसा हुआ है कि बियाबान में कोई राह चमक गई है. कृष्ण से भी ज़्यादा मुझे उन लोगों पर श्रद्धा है जिन्होंने कृष्ण जैसा पात्र रचा है. मुझे नहीं लगता कि कृष्ण किसी एक आदमी की रचना हैं. पौराणिक ऋषियों से लेकर, व्यास, सूर, रसखान और इस देश की जन-जातियों तक ने कृष्ण को गढ़ा है, और कितना अद्भुत गढ़ा है ! कृष्ण के व्यक्तित्व के इतने आयाम हैं कि उसमें हर किसी के लिए कुछ न कुछ है.
जीवन से थक चुके लोगों के लिए वहाँ वैराग्य है, लड़ने के लिए निकले व्यक्ति के लिए उत्साह है, गृहस्थी के नुस्खे हैं तो प्रेम और विवाह करने वालों के लिए अनुपम दृष्टान्त….सुभद्रा और अर्जुन की प्रेम कहानी बीच में ही खत्म हो जाती अगर भैया कृष्ण उनके भागने का प्रबन्ध न करते. प्रेम की अव्यक्त और विडम्बनात्मक स्थितियों में घिरे लोगों के लिए द्रौपदी-कृष्ण का सम्बन्ध ग्रंथियों को खोलने वाला है.
भारतीय मान्यताओं में कृष्ण अकेले ऐसे देवता हैं जो मनुष्य की तरह जीते-मरते हुए दिखते हैं. लोगों को उनमें सखा-बन्धु-गुरु, सब दिखते हैं. कोई भी व्यक्ति जितनी सहजता से कृष्ण के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है उतना किसी और देवता से नहीं कर पाता. कृष्ण अकेले ऐसे देवता हैं जिनकी उत्पत्ति भय से नहीं, बल्कि प्रेम और साख्य-भाव से हुई है. कृष्ण प्रकट नहीं होते, पैदा होते हैं. उनके जन्म के समय जो स्थितियाँ थीं, वह विशुद्ध रूप से मानवीय धरातल पर थीं. आप आज की उन प्रसूताओं का ध्यान करिए जिनके पास प्रसव की सुरक्षित परिस्थितियाँ ही नहीं हैं.
पैदा होने के साथ ही माता-पिता से वियोग के बाद जो बालक नन्द और यशोदा के संरक्षण में बड़ा हुआ, उसके पास जीवन को समझने और जीने की कुछ विशिष्ट पद्धतियाँ तो होनी ही थीं. मथुरा में गोपियों का जो साथ मिला, उसने कृष्ण को जीवन के अधिकतम विस्तार तक पहुँचाया. कृष्ण का जीवन उत्सव का संदेश बन गया. कृष्ण की लीलाएँ मनुष्य की सहज और संभाव्य आकांक्षाएँ बन गयीं.
कृष्ण और अर्जुन की मित्रता भी बड़ी गहरी है. दरअसल, मैत्री-भाव को जो ऊँचाई कृष्ण ने दी है, वैसा कोई भी दूसरा उदाहरण दुर्लभ है. बाल्यकाल में गोकुल के ग्वालों के साथ उनके मैत्री-भाव का उत्कर्ष तब दिखता है जब वो मथुरा के राजा हो गये. सुदामा के लिए उनके हृदय में जो भाव उमड़े थे, वह मित्रता का शिखर तो है ही, साथ ही उसमें सामाजिक बराबरी, करुणा, और शासक वर्ग के लिए आदर्श भी अन्तर्निहित हैं.
कृष्ण-अर्जुन की मित्रता, सुदामा-कृष्ण की मित्रता से अलग है. अर्जुन के साथ कृष्ण की मैत्री ऐसी है जो अर्जुन के व्यक्तित्व का परिष्कार करती है. अर्जुन के साथ कृष्ण सारथी बने. यह निर्णय कृष्ण ने बहुत सोच समझ कर किया था. लम्बे समय की मित्रता के बाद कृष्ण, अर्जुन के व्यक्तित्व की कमज़ोरियों को जानते थे. बेशक अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, लेकिन जीवन और संसार की उनकी समझ गहरी नहीं थी. भयभीत होने का उनका स्वभाव था. एकलव्य को देख कर भी डर गये थे अर्जुन. ऐसे में कृष्ण यह समझ गये थे कि महाभारत जैसे निर्णायक युद्ध में अर्जुन को रास्ता दिखाने वाला कोई साथ में चाहिए. कृष्ण नहीं चाहते थे कि अर्जुन का पराक्रम उनकी मनोदुर्बलताओं के कारण व्यर्थ चला जायें. इसीलिए कृष्ण ने अर्जुन का रथ हाँकने का विकल्प चुना. वो सिर्फ अर्जुन के पास ही नही रहना चाहते थे, बल्कि वो चाहते थे कि अर्जुन पूरी तरह से उन पर निर्भर रहें और उसी रास्ते पर चलें जिसे कृष्ण बता रहे थे.
महाभारत में कृष्ण अर्जुन के सखा भी हैं और गुरु भी. एक सच्चा मित्र एक सच्चा गुरु भी होता है किन्हीं बिन्दुओं पर. ज्ञान की गति भी अजब होती है. ज्ञान वहीं जा सकता है जहाँ अहंकार न हो. ज्ञान वहीं टिक सकता है जहाँ अहंकार न आये. यह सोचने की बात है कि श्रीकृष्ण ने गीता का दिव्य ज्ञान देने के लिए पाचों पाण्डवों में अर्जुन को ही क्यों चुना ? युधिष्ठिर तो बड़े ज्ञानी थे. तो ज्ञान और कर्म की ये गूढ़ बातें उन्हें बताई जा सकती थीं. युधिष्ठिर की मेधा प्रखर थी. शिक्षक तो मेधावी छात्र ही ढूढ़ते हैं पढ़ाने के लिए. छात्र जब कोई बड़ी परीक्षा उत्तीर्ण कर लेता है तो शिक्षक की कीर्ति भी बढ़ती है !
फिर कृष्ण ने गीता का ज्ञान देने के लिए अपेक्षाकृत कमज़ोर छात्र अर्जुन को क्यों चुना ? कारण है. पाण्डवों में अर्जुन के अलावा चारों भाइयों से कृष्ण के सम्बंध मित्रता के नहीं थे. बुआ के पुत्र होने के नाते युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव उनके लिए सम्मानीय और प्रिय थे, लेकिन अर्जुन के साथ बात दूसरी थी. अर्जुन, कृष्ण के सखा थे. दोनों के बीच कोई अहंकार नहीं था. अर्जुन, कृष्ण के सामने अपना मन खोल कर रख सकते थे. अर्जुन ही ऐसा कर सकते थे कि कुरुक्षेत्र में दोनो ओर की विशाल सेनाओं के बीच कृष्ण के सामने घुटनों के बल बैठकर कहें कि मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है मित्र, मुझे राह दिखाओ. कल्पना कीजिए, कि ऐसी भीड़ के सामने जब आपकी छवि एक परम प्रतापी की हो, हम अपने पिता के सामने भी हाथ जोड़ने में संकोच कर जायेंगे. अर्जुन तो घुटनों के बल बैठ गये थे मित्र के सामने.
तो, इसीलिए कृष्ण ने अर्जुन को चुना दिव्य ज्ञान देने के लिए. क्योंकि अर्जुन ही खाली थे उसे लेने के लिए. और यह खाली जगह बनी थी मैत्री-भाव से. अहंकार का लोप कृष्ण की मित्रता से हुआ था. और फिर अर्जुन पात्र हो गये थे. युधिष्ठिर तो पहले से ही भरे हुए थे. पूरे महाभारत में, अर्जुन जब-जब हताश और दुर्बल हुए, कृष्ण ने उन्हें उबारा. कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करके, देश की राजव्यवस्था में एक ऐतिहासिक और अभूतपूर्व परिवर्तन का उन्हें वाहक बनाया.
कृष्ण, जीवन को उसके पूरे आयतन में देखने का आग्रह करते हैं. एक साधारण मनुष्य की तरह लीला करते हुए वो चमत्कारों का बहुत कम सहारा लेते हैं. अगर कोई चमत्कार किया भी तो उसकी व्याख्या लौकिक धरातल पर करने की कोशिश करते हैं. जब ऐसा करना मुश्किल हो जाता है तो योगेश्वर रूप बना लेते हैं. अपने किसी भी कौतुक को नकारते हुए यह बताने लगते हैं कि ये शक्तियाँ सबके भीतर हैं, जिन्हें जागृत किया जा सकता है.
कृष्ण का जन्म कारागृह में हुआ. अँधेरे में हुआ. दुनिया में हर जन्म अँधेरे में ही होता है. बीज से अंकुर को फूटते कभी देखा है किसी ने ? हमारे भीतर भी जो चीज़ें पैदा होती हैं, वह सब गहरे अंधकार के भाव में ही होती हैं. एक कविता, एक चित्र या एक राग का जन्म मन की जिन गहराइयों में होता है, वहाँ गहन अंधकार ही है. यह अचेतन का अंधकार होता है.
कृष्ण एक ऐसा जीवन हैं जिनके सामने मौत बार-बार और अनेक रूपों में आती है, लेकिन हर बार हार कर लौट जाती है. कभी पूतना बन कर तो कभी कालिया नाग की तरह. कृष्ण के जन्म के साथ ही उनके मारे जाने का डर है. मृत्यु की आवश्यक शर्त है जन्म. जन्म के बाद का एक-एक क्षण मृत्यु की यात्रा है. यही जीवन है. मृत्यु कृष्ण को रोज़ घेरती है. और कृष्ण जीवन की तरह रोज़ जीतते चले जाते हैं. कृष्ण का जीवन मृत्यु को पराजित किए जाने का आख्यान बन जाता है. और इसी बिन्दु पर हमारा जीवन, कृष्ण का जीवन बन जाता है. यही सिरा है जहाँ से हमारा तादात्म्य कृष्ण के साथ शुरू हो जाता है. कृष्ण जैसा व्यक्तित्व जब हमें मिल गया तो उस व्यक्तित्व में हमने अपने आपको खोजना और पहचानना शुरू कर दिया.
हमारी इस आत्म-खोज को कृष्ण थोड़ा सरल बना देते हैं, जब वो कहते हैं—“ सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज “ . यह एकाग्र होने की बात है. जब तक हम दस रास्तों पर नज़र रखेंगे, तो जहाँ हैं वहीं खड़े रह जायेंगे. जड़ हो जायेंगे. गति जीवन है. जड़ता मृत्यु है. कृष्ण इस जड़ता को खत्म करने की बात करते हैं. सभी धर्मों को छोड़कर तू मुझ एक की शरण में आ….सब को छोड़कर एक पर एकाग्र हो जा…यहाँ कृष्ण व्यक्तिवाची नहीं रहते, भाववाची हो जाते हैं—यह द्वैत से अद्वैत की ओर आमंत्रण है.
यह किसी और की शरण में जाने की भी बात नहीं है. यह आत्मशरण में होने की बात है. कृष्ण कहते हैं कि अपने ‘ स्वभाव ‘ में स्थिर होना है. सारी चेतना और शक्तियों का केन्द्र यही ‘स्व’ है. इसी को ठीक-ठीक पहचान लेना है.
बहुत आश्चर्य होता है कि जो कृष्ण माखन चुराता है, गोपियों के वस्त्र लेकर छुप जाता है, वह गीता का गंभीर योगी कैसे हो जाता है ! यही कृष्ण के व्यक्तित्व की निजता है. यही वह विशेषता है जिससे कृष्ण हमारे इतने नज़दीक लगते हैं. विरोधों का समागम हैं कृष्ण. हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी—निदा फाज़ली की इस पंक्ति को कृष्ण के जीवन से भी समझा जा सकता है. हमारा सारा जीवन ही विरोधों पर खड़ा है. लेकिन इन विरोधों में एक लय है. एक प्रवाह है. सुख-दुख, बचपन-बुढ़ापा, रोशनी-अँधेरा, जन्म-मृत्यु—-ये सब विरोधी प्रत्यय हैं, लेकिन एक लय में बंधे होते हैं. इसी लय में जीवन संभव होता है.
गोपियों के साथ कृष्ण की काम-लीला से बहुत से शुद्धतावादियों को आपत्ति रही है. कृष्ण के जीवन में काम की सहज स्वीकृति है. मनुष्य के जीवन में ही नहीं, सारी सृष्टि के सृजन में काम-ऊर्जा केन्द्रीय तत्व है. फ्रायड इसे ‘लिबिडो’ कहते है. पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा ने काम से पीड़ित होकर ही जगत् को बनाया है. जीवन के हर उद्यम, हर रचना, हर अभिव्यक्ति के पीछे काम की ऊर्जा होती है. कृष्ण के जीवन में काम का कहीं निषेध नही है. कहीं कोई दमन नहीं है. काम एक निर्बाध प्रवाह है. काम का दमन हमें रोगी बनाता है. पोखर के पानी और नदी के पानी में फर्क देखा होगा आपने ! पोखर में पानी को बांध दिया गया है. नदी में प्रवाह है, उन्मुक्तता है. पोखर का पानी रोग और बीमारियाँ देता है, नदी का पानी जीवनदायी है.
कृष्ण जीवन को एक उत्सव की तरह देखते हैं. वे खुद को जीवन की तरफ मुक्त करते हैं. बौद्धिकों ने संसार और जीवन को बहुत जटिल कर दिया है. कृष्ण सरलता का संदेश देते हैं. कृष्ण हँसते हैं, गाते हैं, नाचते हैं
रास करते हैं. रास उनके लिए, उस केन्द्रीय काम-ऊर्जा का विखंडन है. कृष्ण एक-एक क्षण को उसकी अधिकतम लब्धता में जी लेने के हिमायती हैं. कृष्ण हमारी आदिम और मौलिक आकांक्षाओं के प्रतिबिम्ब हैं.
- विमलेन्दु
- पी.के. स्कूल के पीछे, गली नं.-2
रीवा, म.प्र.
8435968893
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धन्यवाद कृष्ण के इष्ट को इतने सरल शब्दों में स्पष्ट करने के लिए. बहुत ही सुन्दर आलेख. कृष्ण क्लिष्ट लगते थे अब सरल हो गए, मित्र हो गए.
अद्भुत आलेख!इतनी सरलता !लेखन का ऐसा सरस् प्रवाह!आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के लेखन का बिम्ब दिखता है।हाथी चढिये ज्ञान को सहज दुलीचा डारि! भाव और भाषा का ऐसा मणि-काँचन संयोग विरल लेखकों में मिलता है। मनस्वी आप धन्य हैं!!
Bahu hi shundat
सादर धन्यवाद !