विजया सिंह चंडीगढ़ के एक कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाती हैं. सिनेमा में गहरी रूचि रखती हैं. कविताएँ कम लिखती हैं लेकिन ऐसे जैसे भाषा में ध्यान लगा रही हों. उनकी कविताओं की संरचना भी देखने लायक होती है. उनकी कुछ कवितायेँ क्रोएशियन भाषा में हाल ही में अनूदित हुई हैं. जानकी पुल के लिए उनकी कुछ नई कविताएँ- मॉडरेटर
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१
पार्क में हाथी
महापुरुषों की माताओं के स्वप्नों
अजंता के भित्ति चित्रों
और पौराणिक कथाओं से उठ कर
श्वेत हाथी चंडीगढ़ के सार्वजनिक पार्कों
में आ बैठे हैं
कोई सूंड उठाये बैठा है, तो कोई फुटबॉल लिये
बच्चे जो उनकी पीठ पर फिसलने के करतब दिखा रहे हैं
वे नहीं जानते इनकी सूंड सलामी के लिये नहीं
सूक्ष्म और स्थूल की पड़ताल के लिये बनी है
जैसे मूंगफली को छीलने और केले के गुणों की व्याख्या के लिए
हम यह भूल चुके हैं पर करीब सत्तर हजार साल पहले
जब आदिमानव अफ्रीका के महाद्वीप पर भटक रहा था
हाथी सामाजिक हो चुके थे
बुजुर्ग हथिनियां परिवार नाम की इकाई गढ़ चुकी थीं
बच्चों की परवरिश को सामुदायिक रूप दे चुकी थीं
मृत्यु के संस्कार रच चुकी थीं
और शोक सभाएं बुलाना शुरू कर चुकी थीं
एशिया, यूरोप और अफ्रीका में उपनिवेश स्थापित कर चुकी थीं
हालाँकि राष्ट्र नाम की इकाई से वे बची रहीं
बिना पासपोर्ट, वीसा के एक महाद्वीप से दूसरे विचरना उन्हें अच्छा लगता था
नदियों की गहराई उन्हें विचलित नहीं करती थी
और ना ही दूसरी प्रजातियों के जीव
खुश मिजाज़ होने की वजह से वे होलोकॉस्ट और जेनोसाइड जैसी चीज़ों से बचे रहे
कांगो के विशाल जंगल, ऊँचे रबड़ के दरख़्त उनके लालच का सबब कभी नहीं बन पाए
छाल पहने, हाथ में भाला लिये मनुष्य को वे पहचान तो तभी गए थे
पर उन्हें अपनी करुणा और ताकत पर भरोसा था
यह कोई संयोग नहीं कि बुद्ध जब बुद्ध नहीं थे तब वे हाथी ही थे
कुर्त्स* और छदंत का आमना-सामना हुआ होता
तो क्या संभव था कि कुर्त्स भिक्षु हो जाता?
या छदंत जातक कथाओं का पात्र नहीं
आनुवंशिक उत्परिवर्तन का एक नमूना मात्र?
यूँ हाथी चाहते तो डील-डौल के हिसाब से
क्रम-विकास की दौड़ में आगे निकल सकते थे
पर वे संतुलन और ख़ुशी का मर्म जान गए थे
मनुष्य, जो हमेशा ही से दयनीय और दुखी जान पड़ता था
को उन्होंने आग और पहिये का खेल खेलने से नहीं रोका
इसे याद कर छतबीर के चिड़ियाघर का इकलौता हाथी
रस्सी से बंधा, बार-बार अपने पैर पटक रहा है
*कुर्त्स : जोसेफ़ कोनराड के उपन्यास हार्ट ऑफ़ डार्कनेस का मुख्य पात्र
२
९ दिसम्बर २०१६
आज ९ दिसम्बर २०१६ की सुबह चार बजे
रसोई की खिड़की के ठीक पीछे
आम के पेड़ के पास का लैंपपोस्ट, एकाएक
पूरणमासी के चाँद में तब्दील हो गया
कुछ दूरी पर इंद्र का ऐरावत
सूंड ऊपर किये चिंघाड़ने लगा
किसी ने उसका पैर कील से धरती में ठोक दिया
दूसरा हवा में उठा
अभी तक नीचे नहीं आया
उसकी बगल में जो जिराफ़ है
उसका चेहरा पत्तियों से ढका है
धुंध से घिरा वो वाष्प में बदल रहा है
अब सिर्फ उसके कान रह गए हैं
और पूंछ पर कुछ सफ़ेद फूल
समुद्री सीलें, पोलर भालू, पेंगुइन पानी में बहे जा रहे हैं
कुछ मेरी बालकनी में इकठ्ठा हो गए हैं
और दरवाज़ा पीट रहे हैं
कोई है जो अंटार्टिका से बेहिसाब बर्फ चुरा रहा है
मैं उनके गुस्से का सामना नहीं कर पाऊँगी
उनके प्रश्नों के जवाब मेरे पास नहीं ही होंगे
उनसे आँखें नहीं मिला पाऊँगी
और यह तो कतई नहीं समझा पाऊँगी कि
कैसे मेरा घर सलामत है, जबकि उनके रहने की हर जगह जा चुकी है
३
हम कहाँ-कहाँ, क्या-क्या हटा सकते हैं
कि जीवन की सम्भावना बनी रहे
८५ % या उससे कुछ अधिक ?
मसलन क्या आप अपने स्तन कटवा सकते हैं
या हटवा सकते हैं अंडकोष
कैंसर की आशंका से ?
जो कोशिका दर कोशिका, ऊतक दर ऊतक
आपके जीवन की शक्यता को ले देकर ५% या उससे कुछ कम
किये दे रहा है
यूँ हमारे युग में हमारी चटोरी जीभ निगल रही है १२० %
धरती के हर ऊतक, हर कोशिका, हर स्नायु को
बढती जा रही है JCB मशीनों और पीले बुलडोज़रों की संख्या
सिमट रहे हैं पहाड़ , जंगल , नदियाँ
बिछ रहे हैं सड़कों के जाल
नूह की नाव उलट चुकी है
टुन्ड्रा की पिघलती बर्फ में
लौट रहे हैं शव बिना शिनाख्त के
हजारों, हजारों सालों के इंतज़ार के बाद
आने को बेताब हैं सूक्ष्मधारी
अपने कंटीले बदन और तीखे ज़हर लिये
४
२६ जनवरी २०१७
गणतंत्र ने बारिश को माफ़ कर दिया
माफ़ कर दिया घने काले मेघों, सर्द हवाओं को
राजधानी के पेड़: चुक्का, पनिया, कंजु, चमरोड़
शोर करते, हवाओं को राजपथ की और धकेल रहे हैं
पर उसके सिपाही कदम से कदम मिलाते बढ़ते आ रहे हैं
टैंकों पर बैठे जवान सलामी लेते बारिश पी रहे हैं
बूटों की कदमताल, ज़हाजों की उड़ानें, घोड़ों की टापें
राज्यों की झांकियां, बच्चों के नाच , जांबाजों के करतब
हजारों, हजारों बंदूकें सलामी देती हुई
राष्ट्र के कोने-कोने पहुंचेंगी
हजारों जो परेड देखने आये हैं,
और वे जो उसे टीवी पर देख रहे हैं
रोमांचित होते बूझ रहे हैं
यह ही राष्ट्र है
फिरन, रोगनजोश, यखनी
ये कुछ ख़ास मायने नहीं रखते
और न ही चिकनकारी, दस्तकारी और गोंड चित्र
राष्ट्र की नज़र तीक्ष्ण तो है, पर ख़ुदपरस्त
मणिपुर में दुनिया का सबसे पुराना नाट्य समारोह
AFSPA की जहानत से परे है
तमाम इंतज़ामात के बावज़ूद
यहाँ-वहाँ एकाध तिरंगा भीग गया और खुल नहीं पाया
५
धरती को थामे शेषनाग
एक विशाल केकड़े की जकड़ में आ चुका है
एक-एक कर वो अब तक ५६ सिर गंवा चुका है
स्वयं विष्णु उसकी सहायता नहीं कर पा रहे
आधार के अभाव में सुदर्शन चक्र का पासवर्ड लॉक है
और उनकी तर्जनी पर बेसुध पड़ा है
इसे कलयुग का प्रकोप जान वे चौंक कर उठ खड़े हुए
तो ब्रह्मा लड़खड़ा कर उनकी नाभि के कमल से गिर पड़े
शिव की योगनिद्रा चंडीगढ़ के कामदेवों ने भंग कर दी
उनका तीसरा नेत्र फ़िलहाल प्रशासन ने ब्लाक किया हुआ है
वे डमरू उठा त्रिलोक की ख़ोज खबर को जाना चाह रहे हैं
पर नंदी नदारद हैं
उसे ढूंडते हुए वे जम्बुद्वीप में गौ रक्षकों से बाल –बाल बचे
उधर पहलु खां को गाय की पूंछ पकड़ा वैतरणी पहुंचा दिया गया है
इस बीच खबर यह भी है कि सावरकर कश्मीरी गेट पर टोल लेने खड़े हैं
मौलिक और अपूर्व शिल्प में रचा बसा सहज,सरल कथ्य…
इन कविताओं में डूब कर देर तक आनंद लिया…
Sundar Rachna