बाल कवि अमृत रंजन की कविताएँ करीब चार साल से पढ़ रहा हूँ, जानकी पुल पर साझा कर रहा हूँ. 14 साल के इस कवि में प्रश्नाकुलता बढती जा रही है, जीवन जगत के रहस्यों को लेकर जिज्ञासा भी. कविताई भी निखर रही है. कुछ नई कविताएँ पढ़िए. आज कवि का जन्मदिन भी है बधाई दीजिये- मॉडरेटर
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और मैं?
आसमान बादलों से भाग रहा था,
बादल भी पीछे खिसकते जा रहे थे।
बहुत शक्ति है उन बादलों में
और वो नीले सितारों से भरा आसमां बहुत लालची है।
पीछा कर रहा है हमारा,
अपनी ख़ूबसूरती पर गर्व करता है।
बगल में पानी आसमां की सहायता कर रहा है
ऐसा लगता है मानो हीरे चमक रहे हों।
वक़्त भी तेज़ हो गया है,
हवा भी उसी दिशा में चलती है
जहाँ तुम्हारा चेहरा दिखे।
और अब बादल भी मंडरा रहे हैं तुम्हारे ऊपर।
पत्ते बिछ रहे हैं रास्ते पे,
और हमारे क़दमों की किसी को आवाज़ नहीं आती।
सन्नाटा भी इतना ख़ुशहाल है कि
मैं कुछ बोल नहीं पा रहा।
सूरज का क़त्ल चाँद ने कर दिया।
बहुत लालची हैं सब!
और मैं?
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समय
बचपन में मन ने समझाया,
समय घड़ी है,
घड़ी ही समय है।
फिर वक्त क्या है?
पर्याय?
नहीं।
समय संसार के लिए आगे बढ़ता है।
और वक्त एक जीवन का समय होता है।
बस आगे जाने की जगह
पीछे।
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प्रतिधारा
वह लहरें पानी को डुबा रही हैं।
देखो — कैसे कूद रही हैं
बार-बार पानी के ऊपर!
पानी मर जाएगा,
कोई कुछ करो!
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मेल
कहा जाता है
कि जब पानी और रात टकराएँगे,
तब सूरज रात में डूब जाएगा।
क्योंकि ऐसी कोई ताक़त नहीं
इस संसार में जो रात और पानी के
प्रेम को रोक सके।
और इन दोनों का मेल,
संसार में किसी को नहीं छोड़ेगा।
तब फिर ये मिले क्यों नहीं?
कोशिश जारी है।
ये एक-दूसरे के पीछे
एक ही दिशा में भाग रहे हैं।
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असंभव
दुनिया तुम्हें खींच रही थी,
मैंने अपने बदन को
तुम दोनों के बीच फेंक दिया।
धरती बस तुम्हारे
पैर ही चूम पाई थी।
तुम्हारे जिस्म का हक़दार मैं हूँ,
तुम्हारे लिए धरती से
लड़ जाने वाला।
असंभव!
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लापता
तुम्हारा फर्ज़ बनता था,
हाँ। तुम्हारा।
कितनी देर तक भागा मैं।
और मंज़िल कबकी पार हो चुकी थी।
फिर भी मैं दौड़ता रहा।
फुसलाया गया था मुझे,
बोला गया था, “भागते रहो
जब तक मौत न तुमसे आगे निकल जाए।”
यह नहीं बताया गया कि
मौत स्थिर है और मैं
उनकी तरफ़ भागा जा रहा हूँ।
मेरी एक आँख बंद करवा दी,
ताकि ना दिखे कि बग़ल में कोई नहीं है।
मंज़िल तो काफ़ी पीछे छूट गई,
या फिर मौत ही मंज़िल है।
लापता।
अरे वाह अमृत, दो-तीन कविताएँ निहायत ख़ूबसूरत बन पड़ी हैं! ऐसे ही लिखते रहो…
रविकान्त
Bahot badiya likhte hai sir AAP
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