आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात से जुड़ी बातें, जिसे लिख रही हैं विपिन चौधरी। आज पेश है आठवाँ भाग – त्रिपुरारि ========================================================
पिंजरे बदलते रहे, मैना वही रही
बचपन में मीना कुमारी अपने पिता के साथ दादर में रहती थी फिर शादी करके सायन आई. फिर कुछ समय के बाद दोनों युगल दम्पति आ गए. 1964 में कमाल अमरोही द्वारा अपने सेक्रेटरी अली बाकर को साये की तरह मीना कुमारी के साथ रहने का निर्देश था.
एक दिन जब युवा लेखक गुलज़ार को अपने मेकअप रूप के भीतर आने की मीना कुमारी ने जिद की तो बाकर अली ने मीना कुमारी को एक तमाचा मार दिया. इस घटना के बाद से मीना कुमारी ने अपने पति के घर पाली नाका लौट कर नहीं गयी और पुलिस थाने में अपनी जान को खतरा बताते हुए रिपोर्ट दर्ज की और अपने बहनोई के अंधेरी स्तिथ घर में चली गई.
बचपन में मीना को अपने पिता की सरपरस्ती में रहना था, बाद में पति की निगरानी में और जब वे अपने बहनोई के अंधरी वाले बंगले ‘पैराडाइज़’ में रहने लगी थी तब वहाँ मीना कुमारी अपने बहनोई के रिश्तेदारों की भेदी नज़रें उनपर रहती. तब वहां ढेरों सदस्यों द्वारा उन पर लगातार नज़र रखी जाती थी, उनसे मिलने वालों, टेलीफोन और पत्रों की जांच की जाती थी. स्टूडियो से आने के बाद वे अकेली अपने कमरे में बंद रहती। जब उनकी सहेलियों के फ़ोन आते तो कोई भी उन्हें मीना से बात नहीं करने देता और कोई न कोई बहाना बना देता था.
इन सबसे तंग आकर मीना ने तब मीना जी ने अपने सेक्रेटरी किशोर शर्मा जिनसे मीना की बहन मधु ( महमूद की पहली पत्नी थी) ने दूसरा विवाह किया, को एक बंगला देखने को कहा, थोड़ी खोज-बीन के बाद जुहू में ‘जानकीकुटीर’ नामक एक बंगला पसंद किया गया. बाद में कार्टर रोड, बांद्रा में लैंडमार्क नाम की इस बिल्डिंग की ग्यारहवी मंजिल पर उनका घर बना. मीना अकेली नहीं रह सकती थी सो उन्होंने अपनी बहन खुर्शीद और उनके बच्चों को बुलवा लिया. इस बार उन्होंने अपना बेडरूम अपनी पसंद से सजाया. जिसमें उन्होंने पत्थर से अपना नाम लिखवाया था.
मगर अब भी उनके करीब खुशियों को साँझा करने वाला कोई नहीं था. जब मीना कुमारी को ‘साहब बीवी और गुलाम’ की छोटी बहु के किरदार के लिए अवार्ड मिला था तब बाद में एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था, ‘यह अवार्ड पा कर मैं बहुत खुश हूँ मगर समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी यह खुशी किस्से बांटू”. अवसाद उन्हें घेर रहा था, रात-भर उन्हें नींद नहीं आती थी.
‘मेरी कहानी बे- लुत्फ़. ज़िन्दगी के किस्से हैं फीके- फीके’
प्रेम के शुरूआती दौर में कमाल अमरोही, रात के ग्यारह बजे मीना कुमारी को फ़ोन मिलाते और फिर दोनों की बातचीत सुबह के पांच बजे तक चलती रहती. इसी रात भर की वार्तालाप का खामियाजा दोनों को अपने जीवन के आखिर में भुगतना पड़ा. रात भर नींद न आने की बीमारी ने दोनों को धर दबोचा. ‘क्रोनिक इन्सोमिया’ की यह बीमारी अपने साथ चिडचिडापन, अवसाद साथ लायी.
अनिद्रा की रोकथाम के लिए मीना कुमारी के डॉक्टर ने थोड़ी सी ब्रांडी पीने की सलाह दी. थोड़ी-थोड़ी कर मीना कई पैग एक साथ लेने लगी. बाद में तो मीना कुमारी अपने साथ छोटी-छोटी शीशियों में शराब ले जाने लगी. एक दिन कमाल अमरोही ने मीना कुमारी के बाथरूम में डिटोल की बोतल में भी शराब देखी. अशोक कुमार, मीना कुमारी के पास शराब की लत छुड़ाने के लिए होम्योपैथी की छोटी छोटी गोलियां लेकर आये तब मीना कुमारी ने कहाँ , ‘ मुझे गोली नहीं शराब चाहिए’.
मीना कुमारी बहुत बचपन से ही दवा खाने लगी थी. कभी सिरदर्द, बदनदर्द तो कभी बुखार की. अपने एक लेख में उन्होंने लिखा भी कि दवाईयां उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गयी हैं. शराब पीने के परिणामस्वरूप उनका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था. शुरू में उन्हें लगा कि यह सिर्फ बुखार के कारण है. उनका पेट फूलने लगा था फिर भी दिन-रात अभिनय का नियम जारी था. अनिद्रा के कारण चिड़चिड़ापन, अवसाद, चिंता, संताप, आवेग, रूखापन,उग्रता, आतुरता, क्रोध, झल्लाहट बढती जा रही थी।
मीना कुमारी, एक ऐसा चेहरा, जो दुःख की हजारों अभिव्यक्तियों को दर्शाता रहा, खुद भी दुःख में डूबा रहा. अपनी अभिनय क्षमता से मीना कुमारी फिल्मों को सफल करती रही और खुद को अवसाद की चपेट में धकेलती रही. अब उनकी दोस्ती शराब से हो गयी थी. तीन साल, यानी 1965 से 1968 तक उन्होंने खूब शराब पी और शराब ने इन्हीं तीन सालों के भीतर ही उन्हें भीतर से खत्म कर दिया. इन तीन वर्षों में मीना कुमारी ने काजल, भीगी रात, फूल और पत्थर, बहु बेगम, मंजली दीदी, चन्दन का पालना, बहारों की मंजिल,पूर्णिमा में अभिनय भी किया.
उन्होंने न केवल उन्होंने ज्यादा पी बल्कि इस दौरान वे ख़राब किस्म की शराब का सेवन करती रही. उनका लीवर ठीक से काम नहीं कर रहा था, जिससे शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा था. खून, पेट में इकट्ठा होने लगा था. स्विट्ज़रलैंड में उनका इलाज चला फिर 1968 में उन्हें लंदन के इस्लिंगटन में रॉयल फ्री इनफर्मरी में दाखिल करवाया गया था. वहां उनका इलाज़ कर रही लेडी डॉक्टर शीला शर्लाक ने लगातार दो महीने तक मीना कुमारी को लीवर बायोपसी पर रखा. जून 1968 में उन्हें लन्दन और में डॉ शीला शर्लाक की देख-रेख में रहीं. अस्पताल से डिस्चार्ज करती समय डाक्टर ने साफ कहा “यदि तुम मरना है, तो तुम शराब पी सकती हो.”
‘अंगारे पे लेटी रात’ मीना कुमारी यानी नाज़ की शायरी
मीना कुमारी जिस तरह अपनी अभिव्यक्ति के घनत्व से किरदारों में साँसें भरती थी, ठीक उसी तरह उनकी लेखनी उस अहसासों को जुबान देती थी जो उनके किरदारों की जुबान बनने से रह गए थे. मीना कुमारी को प्रेम के अहसास से प्रेम था. यह अजब एतेफ़ाक है कि जो प्रेम की इतनी शिद्दतता से महसूस करता है उसके करीब ही प्रेम नहीं ठहरता। मीना कुमारी के प्रेम का अहसास को उनकी 250 निजी डायरियों में महसूस किया जा सकता है। मीना कुमारी अपने आस-पास के हज़ारों लोगों से दूर जाकर, जब खुद में उतरती थी तो वह खुद के इतने करीब होती थी कि जीवन की सारी फांकें गिन सके. लेकिन भीतर का रास्ता भी इतना आसान नहीं था क्योंकि मन-भीतर वे बेल-बूंटे उगे हुए थे, जिन्हें कभी मीना कुमारी ने बड़े जतन से संवारा था लेकिन अब वे कंटीली-झाड़ बन गए थे. वह अपने दुखों के पलो को भी उसी शिद्दत से जीती थी. वे अक्सर सफ़ेद सेहरा, कोहरे से भरी नदी में डूबती हुई कश्ती देखती. रात, अँधेरा, उदासी उनके लेखन का आभूषण थे. मीना कुमारी ने कई चरित्रों को अपने बदन पर उतारा. हर किरदार अपनी कुछ किरचें उनके भीतर छोड़ गया जिसे मीना ताउम्र संभाले रही, उन्हें अपने जिए सभी किरदारों से अथाह प्रेम जो था.
वे जानती थी कि गम ही अंत तक उनके साथ जाने वाला है, गम ही है जिसने उनका साथ दिया है और उनकी तकलीफों को कायदे से सुना है.
‘खुदा के वास्ते गम को भी तुम न बहलाओ
इसे तो रहने दो, मेरा यही तो मेरा है’
वे लगातार यही सोचती रहती कि इस दुनिया ने उनका सब कुछ ले लिया है कहीं उनके ग़मों पर भी यह हावी न हो जाएँ. उनके पति ने उन्हें अनेकों बार मानसिक और शारीरिक चोट पहुंचाई थी. तब उनके कई शुभचिंतकों ने तलाक लेने के सलाह दी. इसपर मीना कुमारी ने कहा, “वे अपनी पति ने नाम के सिंदूर के साथ ही जीवन से विदा होंगी”.
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