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‘छबीला रंगबाज का शहर’ की एक कहानी: एक अंश

‘छबीला रंगबाज का शहर’ नाम ने मुझे बहुत आकर्षित किया. आज के दौर में जिस तरह से छोटी छोटी कहानियां लिखी जा रही हैं इस संग्रह की कहानियां उससे अलग हैं लेकिन उस तरह की हैं जो हिंदी के दोनों तरह के पाठकों को अच्छी लगेंगी- गंभीर और मनोरंजक साहित्य पढने वाले पाठकों को. अच्छा है इस तरह के लेखन की जमीन कमजोर पड़ती जा रही थी. प्रवीण कुमार के इस संग्रह की कहानियों की भाषा, उसकी जमीन सब बहुत ताजा लगती हैं. राजपाल एंड संज से प्रकाशित इस किताब की अमेज़न पर प्री बुकिंग शुरू हो चुकी है. आप फिलहाल एक अंश पढ़िए और मन करे तो किताब बुक कीजिये- मॉडरेटर

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ऋषभ  झटका खाकर बिस्तर से उठ बैठा। उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे-ताज़े और गर्म। उसके बिस्तर की सलवटें उस भयानक सपने की गवाही दे रही थीं। उसकी आधी चादर बिस्तर से नीचे झूल रही थी। ऋषभ लगभग हाँफ  रहा था ‘क्या भयानक सपना था? हद है?।’ वह उठा और तेज़ी  से गुसलखाने में घुस गया।

उसे गुसलखाने के झरोखे से पता चला कि सूर्योदय में अभी वक्त है पर शहर जग चुका था। पड़ोस का चार साल का स्कूली बच्चा दहाड़ मार-मार कर स्कूल नहीं जाने के लिए रो रहा था। स्कूली बच्चे की मां उसे कभी पुचकारतीं तो कभी गालियां बकतीं। बीच-बीच में स्कूली बच्चे का बाप बच्चे को उठा कर स्कूल कैब में पटकने की धमकी दे रहा था। जबकि उस बच्चे की दादी बच्चे को स्कूल नही भेजने के पक्ष में दलीलें दे रही थी “आज स्कूल ना जाई त पहाड़ न टूट जाई ! दादी  की बात से स्कूली बच्चे को बल मिला, वह दुगनी शक्ति से रोने लगा ” दादी  हो… बचा लअ।” मानो उसे स्कूल नहीं जेल भेजा जा रहा हो। इधर स्कूल-कैब का ड्राइवर चीखते-गरजते हुए रोज लेट हो जाने की शिकायतें दर्ज कर रहा था।

यह शहर कभी भी सुकून से नहीं जगता ? ऋषभ  ने सोचा ,’यह शहर  ऐसे जगता क्यों है,झगड़ते हुए?’ इतने दिनों में आज तक शायद ही कोई सुबह रही हो जब इस मोहल्ले में शोर न हुआ हो। ऋषभ अपने अंग्रेज़ी कमोड पर बैठे-बैठे शहर का चरित्र-चित्रण करने लगा। मास्टरों की यही बुरी आदत है, क्लास नोट्स की तैयारी जैसी हरकतें वे कहीं भी करने लगते हैं। उसे अरूप की बात याद आ गई। उसने कहा था कि यह शहर ऐसे ही जगता है। यहां पर सड़क के रोड़े भी आपस में लड़ते हुए जगते हैं। यही यहां का नियम है। जब तक वे एक दूसरे को अनुकूलित नहीं कर लेते लड़ते रहते हैं, अरूप ने यह बात आँखें मार कर कही थी कि ‘यही  यहां का द्वन्द्ववाद है।’

वैसे भी यहां की जीवन-स्थितियों ने ऋषभ को दार्शनिक स्तर पर एहसास करा दिया था कि सत्य सदैव सापेक्षिक होता है। प्रत्येक मत सापेक्ष रूप में ही सत्य है , कोई निरपेक्ष रूप से सत्य नहीं। इस तरह कोई भी वस्तुस्थिति इंद्रिय संवेदना द्वारा ही जानी जा सकती है। परंतु वस्तु और इंद्रियों के बीच संपर्क हुए बिना प्रत्यक्ष असंभव है।

सापेक्षिक सत्य के कुछ फ़ार्मूले ऋषभ को उसके प्रिंसिपल माहवीर जैन ने भी समझाया था ” कि इस शहर में कोई भी झुक कर नहीं चलता, जिसका सीना बकरी की तरह उठा होता है वह भी नहीं। सब तने रहते हैं। छोटा हो या बड़ा, कमजोर हो या पहलवान, सबके पास फन है जो बिना बात के फनफनाता रहता है।”  उन्होंने कहा कि  शहर में जब चलो तो अपनी चाल में अकड़ रखो। यदि कोई परिचय जानना चाहे तो तुम अपने को राजपूत, भूमिहार या यादव कह देना। इससे रौब बना रहता है। ऋषभ को हैरानी हुई। वह चौंका भी। पर प्रिंसिपल साहब उसके भावों का शमन करते गए, बोले “अपनी जाति का मोह त्यागना कठिन होता है-स्वजातिर्दुरतिक्रमा।” पंचतंत्र की कोई पंक्ति थी जो शहर-तंत्र पर लागू होती है। ऋषभ ने मन ही मन सोचा कि वह पैदा हुआ था तब जैन था पर अब उसे जीना है राजपूत, भूमिहार या यादव बनकर, पता नहीं वह मरेगा क्या बनकर? पर महावीर जैन द्वार निर्दिष्ट सम्यक् चरित्र का यह तकाजा था कि सभी बुराइयों को दूर रखने और दैनिक जीवन में कठोर अध्यात्मिक अनुशासन बनाए रखने के लिए यह सब जरूरी है और सही रास्ता वही है जैसा प्रिंसिपल साहब कह रहे हैं।

जाते-जाते ऋषभ को उन्होंने यह भी नैतिक दृष्टि दी कि कोई भी समाज एकदम मूल्यहीन नहीं होता। अगर वह बिल्कुल मूल्यहीन है तब वह समाज नहीं जंगल होगा। चूंकि उनके और ऋषभ जैसे लोग यहां रह रहे हैं तो इसका मतलब है कि यहां समाज है। यह दीगर बात है कि अन्य समाजों की स्थिति यहां थोड़ी मजबूत है-यहां जातियों का संगठन भी है, जातिगत सेनाएं भी हैं,कुँवर सेना -रण सेना, फिर प्रगतिशीलों का संगठन है, नक्सलियों का भी ,शराबियों-जुआरियों और गांजे के तस्करों का भी। उन्होंने यह भी जानकारी दी कि समाज में विभेद है पर भाषा के स्तर पर लगभग साम्यवाद है। ‘गोली मारकर खोपड़ी खाली’ कर देने की बात सब करते हैं-प्रोपफेसर और पत्राकार भी,डाक्टर भी-मरीज  भी, रिक्शेवाला भी-बस ओनर भी, किरायेदार-मकानमालिक सब। एक लंबी सांस लेकर उन्होंने कहा कि देशी-विदेशी हथियारों की यहां भरमार है और उसकी राजधनी मुंकेर है।

पचास पार के प्रिंसिपल साहब शरीर से जैसे उंचे-लंबे और तगड़े थे वैसा ही उनका अनुभव, दर्शन और शिक्षा भी थी। ऋषभ उस दिन कोई प्रतिवाद नही कर पाया। उनके केबिन से बाहर आ गया, बस। ऋषभ को अब जाकर एहसास हुआ कि उस दिन स्टेशन पर पानबाज उस पर क्यों नाराज हो गया था। सापेक्षिक सत्य का सिंद्धांत  ही कुछ ऐसा है !

आज ऋषभ ने छुट्टी ले रखी थी। आज का पूरा दिन उसका था। ताजे मन से वह कुर्सी पर बैठ गया। झरोखे से छनकर आती हुई सूरज की किरणें उसके माथे को नर्मी से सहला रही थीं। अपनी आराम कुर्सी से वह उठा और याद से ‘राम की शक्ति पूजा’ की प्रति उठा ली। कल की क्लास के लिए उसे फुटनोट्स तैयार करने थे।

उसने पढ़ना शुरू किया कि स्थिर राघवेंद्र को संशय फिर-फिर  हिला रहा है। ‘रावण  जय-भय’ और ‘दृढ़  जटा-मुकुट हो विपर्यस्त’ से बेपरवाह ऋषभ जैन की नजरें केवल आठ पंक्तियों पर अटक गईं। वह बार-बार उन्हें पढ़ रहा था।

“ऐसे क्षण अंधकर-घन में जैसे विद्युत, जागी पृथ्वी-तनया-कुमारिका छवि अच्युत’ से लेकर ‘कांपते हुए किसलय, झरते पराग समुदय’ उसने कई बार पढ़ डाला, बल्कि जोर-जोर से मन मे पढ़ा।

पढ़ते वक्त वह मन ही मन मुस्कुराने लगा। फिर  कुछ याद करते हुए उसने अपनी डायरी उठा ली। उसके डायरी उठाते वक्त कोई भी सहज ही अंदाजा लागा सकता था कि वह मुद्रा वही थी जो शिव-धनुष  ‘पिनाक’ उठाते वक्त राम की रही होगी। डायरी के पहले पन्ने पर उसकी ‘तनया-कुमारिका’ यानी तन्वी ने बड़े-बडे अक्षरों में लिखा था ‘ऋषभ माने बैल।” ऋषभ ने उस लिखे को सहलाया, तभी एक हंसी कमरे में दौड़ गई “तुम बैल हो ऋषभ… हाहाहा।” पर आवाज कमरे से नही डायरी के पन्ने से आ रही थी। झरोखे से छनती हुई ताजी रोशनी अब ऋषभ के सीने पर गिर रही थी, सीना मखमली एहसास से भर गया। एक बार फ़िर उसने उन शब्दों पर हाथ फेर लिए। पर अचानक बिजली गुल हो गई। कमरे में झरोखे से आती रोशनी जितनी बची थी अब उतना ही उजाला बच गया। शेष अंधकारमय हो गया। ‘ऐसे क्षण में अंधकार-घन में जैसे विद्युत’ राम की तरह ऋषभ उठा। उसने डायरी को बंद करके एक हाथ से दबा लिया और दूसरे ही क्षण कमरे में ताला मारकर गली में खडे खाली रिक्शे पर बैठ गया। इससे पहले रिक्शेवाला चलने के लिए ना-नुकूर करता ऋषभ ने भारी आवाज में आज्ञा दे डाली “रमना मैदान, चर्च…जल्दी।” रिक्शेवाला कसमसा कर रह गया, शायद उधर  जाना नहीं चाहता हो, पर ऋषभ की आवाज और बनावटी पथरीली आँखों के आगे वह झुक गया। रिक्शा चल पड़ा। ऋषभ बदल रहा था। सचमुच।

सुबह के दस बज गए थे। वह इस समय जहां बैठा था वह जगह शहर के बीचो-बीच स्थित थी। पर आश्चर्यजनक रूप से वहां सन्नाटा पसरा था। सड़क के किनारे हरी भरी जमीन पर विशाल ऐतिहासिक चर्च अब भी खड़ा था। कहते हैं कि किंग जार्ज उन्नीसवीं सदी में पहली बार भारत आये थे तब अचानक उनका कार्यक्रम इस शहर को देखने का बना। चौबीस घंटे में यह चर्च तैयार किया गया था, ताकि युवराज पूजा अर्चना कर सकें। किंग जार्ज जिस रास्ते से आये उसे यहां के लोग आज भी के.जी.रोड के नाम से जानते हैं। लंबी हरी घास, चर्च और यहां की नीरवरता यूरोप के किसी शहर का आभास दे सकती थी, बशर्ते सड़क से गुजरने वाले राहगीर भोजपुरी गाने न सुनते और रिक्शेवाले आपसदारी में मां-बहन का रिश्ता न जोड़ते।

सुकून के पल काटते हुए घास पर बैठा ऋषभ चर्च की नक्कासियों को गौर से देखने लगा। चर्च के एक दरख़्त में कबूतर का जोड़ा एक दूसरे को प्यार से चोंच मार रहा था। अपेक्षाकृत ज्यादा चोंच मारने वाला नर कबूतर होगा। मादा कबूतर बिदक गई। वह उड़कर दूसरे दरख़्त पर जा बैठी। नर उड़ान भरते हुए फिर उसी के पास आ गया। मादा कबूतर गुस्से से उसे लगातार चोंच मारे जा रही थी। नर बेपरवाह प्रेम-निवेदन किये जा रहा था। फिर मादा उड़ गई, नर उसका पीछा करने लगा। दोनों नीले आसमान में विलीन हो गए। फिर वही सन्नाटा पसर गया।

अचानक ऋषभ को अकेलापन घेरने लगा। उसने अपनी डायरी निकाली। पुरानी यादों से लगभग भरी हुई डायरी के पहले पन्ने को उसने सहलाया जिस पर लिखा था “ऋषभ  माने बैल, ऋषभ तुम बैल हो।” एक हल्की हवा का झोंका चर्च के पास वाले तालाब से उठा और घास की खुशबू को ऋषभ पर उड़ेलने लगा। वह लगातार उन शब्दों पर हाथ फेर रहा था और हवा उसके उपर। हवा के ठंडे झोंके तलाब के शांत पानी में हल्की हिलोर पैदा कर रहे थे। इस तालाब का नाम डैंस तालाब था। कहते हैं कि अठ्ठारह सौ सत्तावन के समय में एक अंग्रेज अधिकारी  डैंस धरमन  बीबी के प्यार में पड़ गया था। धरमन  जगदीशपूर के बाबू कुँवर सिंह की प्रेमिका था। धरमन  बीबी के मार्फ़त  कुँरसिंह उस अंग्रेज अधिकारी  की सारी गुप्त योजनाओं का पता कर लेते थे। बलवे के समय में कुँवर सिंह के लंबे समय तक टिके रहने की एक बड़ी वजह ये गुप्त सूचनाएं थीं। तब लार्ड कैनिन इस इलाके में  चले लंबे संघर्ष  लेकर बेहद चिंतित था, उसने अपनी यह चिंता अपनी डायरी मे दर्ज की थी। खैर, डैंस मारा गया पर मरने से पहले अपनी प्रेमिका के लिए यह तालाब बनवा गया। पता नहीं क्यों तब भी लोग इसे डैंस तालाब ही कहते हैं, धरमन  तालाब नहीं। आश्चर्य इस बात को लेकर है कि कोई अपनी फरेबी प्रेमिका के लिए तालाब क्यों बनवायेगा? प्रेम को समझना असंभव है। दुनिया में शायद ही कोई विधा होगी जो इस मर्ज़ को समझ पायी हो? हालांकि कुँवर सिंह अपने इस रकीब से प्रेम करने में आगे निकले- ऐसा लोगों को लगता है। उन्होंने अपनी दो प्रेमिकाओं धरमन बीवी और करमन बीवी के नाम से मस्जिदें बनवायीं और मोहल्ले भी। लोग आज उसे सदर के धरमन- टोला और करमन-टोला के नाम से जानते हैं। इस तरह ऋषभ धुर पुराने प्रेमी-प्रेमिकाओं और धुरंधर रकीबों वाले शहर में था।

वह हरी घास पर लेट गया। हवाएं उसका साथ देने लगी। स्मृतियों में तन्वी कौंधी। उसे याद आया कि इसी जगह पर अरूप के साथ वह बैठा ठहाके लगा रहा था और बगल की सड़क पर रिक्शे पर बैठी,पीतांबर में लिपटी कोई मासूम सी चीज जा रही थी। अरूप हड़हड़ाकर उठा और बेशर्मी से सिटी बजाई। लड़की ने उसकी ओर घूरा तो अरूप ने हाथ से आने का इशारा कर दिया। रिक्शा रुक गया। डर के मारे ऋषभ की सांसे भी रुक गईं। उसे लगा कि बखेड़ा होने वाला है। पिंताबर ओढे वह काया धीरे धीरे  पास आ गई। कुछ दूरी पर वह रुक गई और जब लड़की ने मूँह खोला तब ऋषभ जान गया कि यहाँ कोई मासूम नहीं। उस लड़की ने अरूप से कहा “कमीनेपन की कोई हद होती है कि नहीं?” अरूप जवाब में बेशर्मों की तरह हंस पड़ा। उधर लड़की  बोले जा रही थी फ्

“आइंदा इस अंदाज से कभी बुलाया न अरूप, तो नंगा करके इसी  मैदान में दौड़ा दूंगी।” अरूप ‘हद बेहद दोनों तजै’ की तर्ज पर मुख़ातिब हुआ “अरे यार,बी मेच्योर, दोस्त हूँ, पूर्व सहकर्मी भी… इतना तो बनता है।य” जवाब में “शटअप”  गूंजा और वह आकृति ऋषभ की ओर मुड़ी। ऋषभ चुपचाप से निहार रहा था। लड़की ने बिना लागलपेट के सवाल किया “आपका परिचय?” ऋषभ तैयार नहीं था, हड़बड़ा गया। अरूप ने बात संभाली और ऋषभ की ओर मुड़ कर कहा “परिचय  बता दो दोस्त नहीं तो इन्क्वाईरी बैठ जाएगी। ये बरखा दत्त हैं यहां कि मशहूर पत्राकार।” फिर छिछोरी हरकत करते हुए अरूप ने अंतिम बेहूदा लाइन जोड़ी ” ये सेक्स एंड द सिटी’ मे काम करती हैं।” लड़की की भृकुटियां तन गईं अरूप को वह “भाग -पागल” कह कर ऋषभ की ओर मुड़ गई “एनी वे, मैं तन्वी, इस शहर के द सिटी चैनल की वरिष्ठ संवाददाता” और उसने ऋषभ की ओर आत्म- विश्वास के साथ हाथ बढ़ा दिया। ऋषभ उसके ‘टफनेस’ पर मुग्ध हो  गया। इस शहर की तो लगती ही नहीं। उसने भी मुस्कुराते हुए हाथ को बढ़ा दिया ” मैं ऋषभ , हिन्दी का अध्यापक।”

‘अध्यापक?’ तन्वी के मुँह से चौंकने जैसी आवाज निकली और हंसने लगी। ऋषभ झेंप गया। उसने पिफर ‘टिपिकल’ दाग दिया था। उप्फ! तुरंत उसने अपने को संभाला और तन्वी से पूछा “क्यों  अध्यापक कोई वल्गर शब्द है?” सवाल पूछते वक्त ऋषभ में एक कठोरता आ गई थी। तन्वी थोड़ा सा हिल गई, फिर  बोली न  नही… पर मुझे लगता है कि प्रचलित शब्दों का इस्तेमाल करना चाहिए।” तन्वी को लगा कि ऐसा बोल कर वह मुक्त हो चुकी है। पर यहां बैल ताव खा चुका था। उसने सवाल दागा “…. और इन प्रचलित शब्दों का निर्माण कौन कर रहा है?… बाजार? मीडिया?”  तन्वी ने महसूस किया कि वह फँस  रही है। वह झेंपी ” सॉरी ऋषभ साहब।” पछतावा करते वक्त वह बिल्कुल मासूम हो गई, मानो अपने आप में सिमट रही हो। ऋषभ को ध्यान ही नहीं रहा कि उसने अभी तक तन्वी का हाथ पकड़ रखा था। बैल को जब यह महसूस हुआ तब बैल ने हड़बड़ा कर हाथ छोड़ दिया। ‘सॉरी’ शब्द ऋषभ के कलेजे में घुस गया था। अरूप ‘नयनों  का नयनों से गोपन प्रिय सम्भाषण’ देख रहा था। उससे रहा नहीं गया। उसने उन दोनों की तंद्रा तोड़ी ” चलो , गले मिलकर मामला खत्म करो।” उन दोनों की गर्दन झटके के साथ अरूप की ओर मुड़ी और शर्मिन्दगी से झुक गईं। किसी ने कुछ नहीं कहा।

लेटे-लेटे ऋषभ की स्मृतियां कई खंडों में विभाजित होकर तैरने लगीं। कभी कॉफी स्टॉल, कभी किसी रेस्तरां, सिनेमाघर। तन्वी के साथ बिताये हुए कई पल कई जगहों से उड़-उड़ कर उसकी आँखों  में समा रहे थे। उसकी आँखें बंद होने लगी। चर्च की घास पायल की आवाज करके नाच उठी। उनकी सरसराहट में ऋषभ कैद होता गया। कबूतर का वह उड़ चुका जोड़ा फिर लौटा और ऋषभ की छाती पर आकर बैठ गया। इस बार दोनों बिल्कुल नहीं लड़े। दोनों के चोंच एक दूसरे में कुछ ढूंढने लगे। मादा कबूतर ने कहा “तुम बैल हो।” नर ने नाराज होने का नाटक किया “ऋषभ मतलब सांड होता है, बैल नहीं” और उसने अपनी चोंच से मादा की चोंच को दबा दिया। फिर फड़फड़ाहट। दोनों के पंजे ऋषभ की सीने  में धँस रहे  थे। ऋषभ ने अचकचाकर अपनी आँखें खोल दी। सामने अरूप खड़ा था। वह एक पतली डंडी से ऋषभ का सीना खोद रहा था। सीने में जो दर्द उठा था वह कबूतर के जोडों के प्रेमातुर नर्तन से नहीं बल्कि इसी बांस की पतली नोक से उठा था। ऋषभ को गुस्सा आ गया, वह “भ भाग ” उठ बैठा। अरूप ने बचाव की मुद्रा अपना ली ” मैंने  सोचा कि तुमने सल्पफॉस खाकर आत्महत्या कर ली है। बांस की छड़ी से इसीलिए खोद कर देख रहा था कि जान है कि नही?” अचानक जगने से ऋषभ की आँखों  में लाल-डोरे तैर रहे थे। उसने प्रतिवाद किया “मैं  भला आत्महत्या क्यों करँफगा? क्या परेशानी हो सकती है मुझे?” अरूप की आँखें जो कुछ क्षण पहले भय से फटी पड़ी थीं, वह संतुलित हो गईं। उसने मुस्कुराते हुए पूछा ” तो  अध्यापक महोदय सूने चर्च के पास इस तरह घास पर बारह बजे दिन में सोने का क्या मतलब? तुम्हें कोई परेशानी नहीं पर शहर को क्यों परेशान कर रखा है? उधर देखो ,लोग आतंकित होकर तुम्हे दूर से ताड़ रहे हैं।

ऋषभ ने सड़क की ओर गर्दन उठाई। सात-आठ लोगों का समूह इधर ही देख रहा था। वह भौंचक हो गया, ” पर किया क्या है मैंने?”

अरे यार कुछ नहीं किया तुमने। ये लोग देर से यहीं खड़े हैं और तुम्हारी देह को दूर से लाश समझ बैठे हैं। इधर  से मैं गुजर रहा था तो उन्होंने सूचना दी कि लगता है कोई आदमी मरा पड़ा है। यहां आया तो तुम थे।अरूप एक सांस में सब बोल गया। उसने हाथ बढ़ा कर ऋषभ को उठाया “उठो, चलो यहां से। कहीं और छुट्टी मनाते हैं। महीना भर पहले यहीं एक मर्डर हुआ था।” ऋषभ अभी इस शहर को पूरी तरह से नही जान पाया था। अपफवाहों का शहर है यह। वह चल पड़ा।

 
      

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