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रजनी मोरवाल की कहानी ‘नमकसार’

हाल के वर्षों में रजनी मोरवाल की कहानियों ने सबका ध्यान खींचा है. आज उनकी एक कहानी जो हाल में किसी ‘परिकथा’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी- मॉडरेटर

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      सूर्यास्त जिस वक़्त क्षितिज में गुम होने की तैयारी में होता है ठीक उसी वक़्त मीलों तक पसरा नमकीन रण कुछ कंपकंपाने लगता है, सारे रण में एक चमकीली झिलमिलाहट कौंधने लगती है, पूरे दिन की थकी-हारी नमकीन हवाएँ अब कुछ थम-थम कर बहने लगती हैं | रोज़ लगभग इसी समय रति की सरकारी जीप इस खार के रेगिस्तान से गुजरती है, उसकी जीप के टायर कुछ पलों के लिए इस इलाके में ही ठिठक जाते हैं | सुदूर समुद्र से आती खारी हवाएँ उसके  अन्तर्मन तक नमकीन कर जाती हैं | अक्सर ड्यूटी अलहदा रखकर रति का मन नमक के इस विशालकाय भूखंड में पिघलने लगता है, यहाँ कई सदियों से नमक बनाया जाता रहा है | नंगी आँखों से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे दूर तक रक्त से सने पड़े लाल नमक पर कोई टनों भर त्वचा के छिलके बिखेर गया हो और जीप के चलते ही उसके टायरों व बॉडी से चिपक कर ये छिलके घिसटते हुए दूर तक उड़े चले जा रहे हों |

      रति अपने जीवन को एक अदृश्य ‘ब्लैक-होल’ के गुरुत्वाकर्षण में विलुप्त नहीं होने देना चाहती थी, उसने कहीं पढ़ा था कि ऐसे ‘ब्लैक-होल्स’ का पता लगाया जा सकता है यदि तारों के उस समूह की गति पर नज़र रखी जाए जो अन्तरिक्ष के खाली दिखाई देने वाले कुछ विशेष हिस्सों के चक्कर लगातें हैं, बस आवश्यकता है तो अवलोकन करके इस रहस्य को बूझने की | अन्जाने में ही सही पर शायद इसीलिए रति अपना स्थानांतरण करवाकर यहाँ चली आई थी…और बस तभी से यहीं की होकर रह गई थी |

      वह अपनी आत्मा पर शरीर के ढहने से पहले ही आँखों पर काला गॉगल्स चढाए जीप में जा बैठती है फिर अपनी ख़ाकी वर्दी पर चुहुचुहा आए पसीने को अपने रंगीन रुमाल से पोंछती हुई चल देती है | सामने देखती है तो शुष्क कच्ची पगडंडी पर लीला अपनी मदमस्त चाल से ठुमकती हुई चली आ रही थी, उसकी पायलों की रुनझुन सुनकर कार चला रहा ड्राईवर भी मुस्कुराने लगता है | लीला उस ड्राईवर के रोबीले चेहरे से खौफ़ खाती है | चलते-चलते वह अचानक से ‘बन्नी’ घास के पीछे छुप जाती हैं और उसके एन मुंह के सामने से जीप सर्रर्र ….से गुज़र जाती है –

“खावानु टेम थई ग्यू अने म्हारु मोजूँ म्हारी राह जोतु हशे”

“रोटला लई ने जती हती अने कईं थी आ जीप पण आवि गई ….रे म्हारु मोजूँ…तू तो भूखो हशे” जीप के गुजरते ही लीला तेज़ रफ्तार से मोजूँ की तरफ कदम बढ़ाने लगी | यहाँ दूर-दूर तक संदेशा देने के लिए शीशे के टुकड़े को धूप में चमका कर चिलकाया जाता है ताकि दूर बैठे रिश्तेदार खाना-पानी लेकर मजदूरों तक पहुँच जाएँ | लीला के मुख पर दूर से शीशे का एक तेज़ चिल्का पड़ता है, उसकी आँखें मिचमिचा उठती है, जरूर मोजूँ भूख से तड़प उठा होगा वरना वह कभी धीरज नहीं खोता वैसे भी मोजूँ नहीं चाहता कि उसकी दुल्हन नमक के खेतों में अपने हाथ-पैर गलाए | लीला को तकलीफ होती है- “तू यह काम छोड़ दे मोजूँ….मैं सिलाई-कढ़ाई का काम करती हूँ, तू हर हफ्ते रविवारी हाट में दुकान लगा लेना, किसी तरह हम चार पैसे का जुगाड़ कर ही लेंगें | तेरे हाथ-पैरों के जख्म देख, सूखते ही नहीं, तू चमड़े के जूते पहनता है और उसके ऊपर प्लास्टिक की थैलियाँ भी चढ़ाता है फिर भी तेरे पैर के घाव सारा-सारा दिन रिसते ही रहते हैं, सरकारी दवाखाने की मलहम भी अब तो इन जख्मों पर कोई असर नहीं करती…तू मेरी बात क्यूँ नहीं मानता मोजूँ ?” किन्तु मोजूँ हर बार मुस्कुराकर बात टाल जाता है|

      लीला और मोजूँ दोनों ‘अगरिया’ समुदाय से हैं, लीला का मायका कच्छ जिले के ‘भुजोड़ी’ गाँव में है | उसके मायके में कच्छी सिलाई-कढ़ाई का काम किया जाता है और यही कला लीला को भी विरासत में मिली थी…उसका सपना था कि एक दिन शहर में उसकी अपनी एक छोटी सी दुकान हो जिसमें वह हस्तकला के विभिन्न नमूने सजाए….मिट्टी से बने बर्तन, ऊनी शाल, कच्छी कड़ाई की चादरें, तकिए, कुशन और शीशे जड़े वाल-हेंगिंग इत्यादि रखे | लीला चाहती थी कि वह और उसका होने वाला पति मिलकर भांति-भांति की वस्तुएँ बनाकर बेचें और हस्तकला से जुड़े व्यवसाय से अपनी जीविका चलाएं | मोजूँ ने लीला के पास ब्याह का प्रस्ताव भिजवाया था तब लीला ने साफ मना कर दिया था, वह नमक के मजदूर से शादी नहीं करना चाहती थी | उसने अपने पिता, भाई और घर के अन्य मर्दों को हर दिन सिसकते-सिसकते दम तोड़ते देखा था, वह उनके रिसते जख्मों की गवाह रही थी | उसने अपने घर वालों को समझाने की लाख कोशिश की थी कि नमक मजदूर से उसका ब्याह ना करे किन्तु सबकी ज़िद के आगे उसकी एक ना चली थी | जैसे-जैसे लीला की शादी के दिन नजदीक आते जा रहे थे वह और भी परेशान होती जा रही थी, उसके सभी सपने धराशायी हो चुके थे | गहरी उदासियों में डूबी लीला बेबसी के आलम में हर शाम अपने गाँव के समीप स्थित नखलिस्तान में चली जाती थी, कभी-कभी वह ताड़ के वृक्षों तले बैठकर विलाप करती तो कभी सदियों पुराना लोकगीत के गुनगुनाने लगती थी –

 “अगरिया अज्ञानी है,

माँ, मुझे अगरिया से मत ब्याह,

वह कूइयां खोदता है,

टांपा खींचता है,

पत्थर उठाता है…..

रोज़ न तेल डालता है न सुगंधी लगाता है

 बल्कि रोज़ कंघी तोड़ डालता है,

गांजा पीता है, देशी दारू पीता है तो कभी इंग्लिश दारू पीता है,

सामान उतारता है, छप्पर बाँधता है,

रोज़ सायबान करता है, फावड़ा गाड़कर नमक तोड़ता है,

दँतारा खींचता है, नमक की गाडियाँ खींचता है |

आठ महीने काम करता है और नमक पकाता है सिर्फ देढ़ गाड़ी |

माँ, मुझे अगरिया से मत ब्याह”

      लीला की माँ अपनी बेटी का दर्द बखूबी समझती थी किन्तु वह भी हालात के आगे मजबूर थी | उनके समाज में लड़कियों की शादी अगरिया समुदाय से बाहर करने का कानून भी तो नहीं था, अगर कोई ऐसा करता भी था तो उसे दंडित करके जाति से बाहर कर दिया जाता था, ऐसे जाति-बाहर किए गए परिवार का गाँव में हुक्का-पानी तक बंद कर दिया जाता है | इन विकट परिस्थितियों में कोई भी परंपरा के खिलाफ जाने की जुर्रत नहीं करता था | लीला की माँ जैसी ही अन्य कई माँओं को ना चाहते हुए भी अपनी बेटियों का विवाह नमक के मजदूरों से करना पड़ता है | ये जानते हुए भी कि जीवन भर इन मजदूरों की माली हालत खस्ता ही रहती है, साथ ही इस इलाके के बदतर हालात पूरे संसार में किसी से छुपे नहीं हैं | यहाँ  ना पीने को साफ पानी मिलता है ना खाने को भरपेट अन्न | इन कच्ची बस्तियों में ना तो सरकारी नल है ना कोई कुआँ, मजदूरों को पीने का पानी लेने प्रतिदिन 15-20 किलोमीटर पैदल अथवा साइकिल चला कर जाना पड़ता है, आर्थिक तंगी से जूझते अधिकतर मजदूरों के पास तो साइकिल खरीदने के पैसे भी नहीं होते  | ताउम्र ये मजदूर सूदखोर ठेकेदारों के जाल में फँसे ही रहते हैं | कर्ज़ का तो यह आलम है कि सिर्फ उधार लेने भर की देर है, धीरे-धीरे करके ये शिकंजा उनके चारों तरफ कसता ही चला जाता है, जीवन भर मजदूर इन ठेकेदारों के  हाथों की कठपुतली बने रह जाते  हैं…बेचारे बंधुआ मजदूर सारी ज़िंदगी अपने पेट का चूल्हा जलाए रखने की खातिर अंतिम सांस तक लड़ते रहते हैं |

      मान्यता है कि खाना पकाने के पश्चात घर की औरतें कच्ची मिट्टी के चूल्हे को हर बार गोबर से लीपती हैं ताकि चूल्हे की अग्नि सदा अच्छी तरह से ईंधन सुलगाए …ठीक उसी तरह कर्जे की मूल रकम को हर बार सूद की किस्त से लीपना पड़ता है ताकि पेट का चूल्हा जलता रहे | मोजूँ भी अपने इसी पुश्तैनी दलदल में गले तक डूब चुका था, ना जाने उसकी कितनी पीढ़ियाँ यहाँ पर काम कर-करके जीती-मरती रही थीं ? ‘अगरिया’ समुदायों की अधिकतर औरतें और बच्चे नमक के इन्हीं खेतों में मजदूरी करते हैं, इनमें से कई तो अपनी पुरखों के कर्जे की जमानत के तौर पर जन्म से ही बँधुआ पैदा होते हैं और अंततः बंधुआ ही मर जाते हैं | लालची ठेकेदार अपने मालिकों की जेबें भरने को पगलाए रहते हैं, वे मजदूरों पर जुल्म ढाते हैं ताकि अधिक से अधिक मुनाफाखोरी कर सकें, इस क्षेत्र में हर उम्र व लिंग के इंसान सदियों से जीवित ही पिघल रहे हैं | जिस तरह बरसात के दिनों में मुट्ठी भर नमक डालकर बच्चे लीच पिघलाया करते हैं ठीक उसी तरह करके ये मजदूर भी बूँद-बूँद पिघलते चले  जाते हैं, गलते-गलते एक दिन उनकी देह पानी में परिवर्तित हो जाती है बस उनके हाथ-पैरों की हड्डियाँ जमकर सख़्त हो चुकी होती हैं | यहाँ पुरखों के कर्जे के एवज़ में भावी पीढ़ियाँ तबाह होती जा रही  हैं, मोजूँ तर्क करता है “मेरे पुरखे इसी धरती में पैदा हुए थे और इसी धरती में दफन हो गए, हम अगरिया लोग सिर्फ नमक बनाना ही जानते हैं, हमारा जीवन और मरण सिर्फ और सिर्फ नमक से ही जुड़ा है” लीला हरसंभव कोशिश करके मोजूँ को यहाँ से निकाल ले जाना चाहती है पर मोजूँ की ज़िद और दलील उसे हमेशा निरस्त कर देती थी |

      सुबह खत्म होने व दोपहर के प्रारम्भ होने के सूक्ष्म समय के लिए दुनिया के किसी शब्दकोश में कोई ज़िक्र नहीं मिलता किन्तु रति ने उसे अपने मन का एक शब्द दिया है ‘सुपहर’ | उस रोज़ भी वह इसी ‘सुपहर’ में रण के रेगिस्तान से गुज़र रही थी | जून के तपते माह में भी एक बेहतरीन सुबह उगी थी किन्तु उस रोज़ सूरज की किरणों पर हर दिन की अपेक्षाकृत अतिरिक्त नमक पकाने का भार पड़ा था, उस रोज़ आकाश सामान्य से अधिक उजला और साफ था, अन्य दिनों के बजाय समुद्र की चंचलता भी शांत दिखाई दे रही थी, उसकी नमक सनी दूधिया लहरें सौम्य हुई जाती थी किन्तु मजदूरों के लिए ये समय किसी अन्य दिन की तरह ही मुश्किलों से भरा था | इस पहर तक तो ये मजदूर प्रतिदिन नमक के कई सौ दूह जमा कर लेते हैं | वे पहले भूजल को नलकूपों से बाहर निकालते हैं फिर 25 गुना 25 मीटर के छोटे-छोटे खेतों में उस पानी को भरते जाते हैं, दिन चढ़े सूरज की किरणें जब इस जल पर पड़ती है तो धीरे-धीरे ये नमक में परिवर्तित होने लगता है | पूरे वर्ष भर ये मजदूर तपते रेगिस्तान के बीच अपनी जान जोखिम में डालकर कड़ी मेहनत करते हैं किन्तु इतनी भीषण पर्यावरणीय परिस्थितियों का सामना करके भी मजदूरों को प्रति टन नमक पर प्रतिव्यक्ति मात्र 70 रुपए ही मिल पाते हैं उसपर भी साल के चार महीनों में जब सूरज नहीं निकलता तो सभी मजदूर बेरोजगारी की कगार पर पहुँच जाते हैं और फिर कर्ज का भयंकर चक्र चलता है और हर मजदूर उसमें धँसता ही चला जाता है | यहाँ कार्यरत ठेकेदार क्रूरता की सभी हदें पार कर जाते हैं, वे इन्सानों को भी जानवरों से बदतर समझते हैं | उस रोज़ लीला ने अपनी आँखों के सामने ठेकेदार को इन मजदूरों को हकालते देखा था, खाना लेकर आई लीला ने देखा था कि किस तरह ठेले पर नमक की बोरियाँ लादता हुआ मोजूँ पसीने से लथ-पथ हो चुका था, वह लगातार हाँफे जा रहा था, मुँह खोलकर फेफड़ों में हवा भरने की कोशिश करता मोजूँ तनिक थमा ही था कि तभी पीछे से ठेकेदार की लताड़ की सुनाई देने लगी थी –

      “जल्दी-जल्दी उठाओ सूअर के बच्चों, अगर दिनभर में दस ट्रॉली नहीं खींची तो नामुरादों का पैसा काट लूँगा, कमजोर आलसी टुच्चे कहीं के …|” मजदूरों को पड़ती गालियाँ सुनकर लीला की आँखें भर आई थीं, अपने गालों पर ढुलक आए आँसुओं को उसने अपने ओढ़नी की आड़ लेकर तुरंत पोंछ डाला था, वह नहीं चाहती थी कि उसे यूँ रोते देखकर मोजूँ भी व्यथित हो |

      इतनी बेकद्री के बाद भी नई-नवेली लीला की उपस्थिती से मोजूँ के मुख पर रौनक उतर आई  थी, जब-जब लीला खाना लेकर मोजूँ के पास जाती है उसके नमकपुते चेहरे पर खुशी की एक ताज़ा लहर दौड़ जाती है…नमक बनने की प्रक्रिया के तहत शुरुआती कुछ दिनों में नमक की क्यारियों की सतह पर ललाई लिए नमक की एक हल्की गुलाबी परत फैल जाती है, जिसे कच्चा नमक कहा जाता है, इन दिनों मोजूँ को अपनी दुल्हन के मुख पर भी ठीक वैसी ही ललाई प्रतीत होती है | दूर से मोजूँ को अपनी ओर आता देखकर लीला हाथ हिलाने लगती है, मोजूँ  को देखकर लीला अभिसारित हो उठती है, उसकी पलकों पर प्रेम व स्नेह के मिश्रित भाव उतर आते हैं | मोजूँ खाने के लिए ठिकाना तलाशता हुआ हाथ धोने चला जाता है – “चल लीला ठेले के नीचे पोटली रख मैं कुल्ला करके वहीं आता हूँ, उस दलदल में जहाँ दूर-दूर तक छाँव के लिए सूखी टहनी का भी आसरा नहीं मिलता ऐसे में वहाँ खड़ी दो-चार खच्चर गाड़ियों से छनकर आँखमिचौली करती छाँव भी उन जैसे जोडों के लिए किसी नियामत से कम नहीं थी, इस पगडंडी के किनारे-किनारे घनी ऊँची बन्नी घाँस उगी है और धूप का मुक़ाबला करते कुछ ताड़ के ठूंठ भी | मीलों तक पसरा नमक का रेगिस्तान और इक्का-दुक्का कच्चे झोंपड़ों के अलावा यहाँ दूर-दूर तक कोई ठौर नज़र नहीं आता | कच्ची सड़कों के किनारे-किनारे उगी यहाँ की ‘बन्नी’ घाँस पूरे देश में प्रसिद्ध है, मानसून में तो ये घाँस इतनी लंबाई ले लेती है कि पूरा का पूरा इंसान इसके भीतर छुप सकता है, स्थानीय निवासियों का मानना है कि इस चारे को खाने से ढोरों में दूध देने की क्षमता बढ़ती जाती है | वापसी में लीला ढोरों के लिए हर रोज़ बन्नी घाँस की पूली बांधकर ले आती है | यूँ तो अमूमन ठेकेदार की कड़ी नज़रें हर वक़्त मजदूरों पर लगी रहती है फिर भी मस्ती में आकर यदा-कदा मोजूँ इसी घाँस की ओट लेकर लीला को भीतर दबोच लेता है, मोजूँ के प्रेम की घनी छाँव पाकर लीला खिल उठती है, उन प्रेमिल क्षणों में बन्नी घाँस के नुकीले सरकंडे भी उसे सेमल के फाहे-से लगते हैं |

      प्रीति से सराबोर चुहलबाज़ियों के बीच भी मोजूँ की देह पर जमा नमक देख लीला अक्सर सिहर उठती थी, उसकी चिंता पुनः सिर उठाने लगती है, नीली कमीज और भूरी पेंट पहने मोजूँ उसे किसी खेत में खड़ा एक कमज़ोर बिजुका नज़र आता था, जो जीवन की राह भटके चिंताग्रस्त पक्षियों को कुछ देर के लिए भ्रमित तो अवश्य कर सकता था किन्तु हर ओर से बढ़ते मौत के खतरे को नहीं | हर रोज़ मोजूँ पर मँडराते खतरे को भाँपकर लीला का हृदय काँप जाता था पर हालात से मजबूर लीला कुछ भी कर सकने में पूर्णतया असमर्थ थी, हर रात वह मोजूँ से गुजारिश करती थी कि किसी भी तरह उसे यह काम छोड़ देना चाहिए | वह एन॰जी॰ओ में काम करके अपनी गृहस्थी की गाड़ी चला लेगी, लीला एन.जी.ओ की संस्थापक रति से काफी हिल-मिल गई थी, रति जब से कच्छ में डी.एस.पी बनकर आई है अपने ओहदे से नहीं जानी जाती थी बल्कि बड़े-बूढ़े और बच्चे सभी उसे ‘रति बेन’ के नाम से पुकारते हैं | उसका एन.जी.ओ इस इलाके के आस-पास के गांवों में काफी प्रसिद्ध है | प्राथमिक उपचार से लेकर गंभीर बीमारियों की काउंसिलिंग तक उसके एन.जी.ओ का अहम हिस्सा है | रति नवविवाहिताओं को गर्भनिरोधक उपायों की जानकारी देती है साथ ही वह उन्हें गुप्त-रोगों से बचाव और नसबंदी आदि की जानकारियाँ भी उपलब्ध करवाती है | रति ने इन्हीं लोगों में अपना सुख तलाश लिया है | गुजरात आने से पूर्व उसने पता कर लिया था कि भारत का 75% नमक उत्पादन होता है जिसमें से सिर्फ कच्छ में ही 60% नमक होता है फिर भी यहाँ के नमक मजदूरों की स्थिति अत्यंत शोचनीय है, उनकी बदतर परिस्थितियों ने रति को द्रवित कर दिया था | उसे अपने जीने का एक मकसद मिल गया था…वह किसी ‘मोनार्क’ तितली की तरह सूर्य को देखती हुई अपने घर से कई सौ किलोमीटर की यात्रा करते-करते यहाँ तक आ पहुंची थी किन्तु उसे सूर्य से पर्याप्त जानकारी नहीं मिल रही थी, वह दिशाभ्रमित थी और तभी इस एन.जी.ओ. ने उसे जीने की एक नई राह दिखाई थी |

      रति के पास पद-प्रतिष्ठा सबकुछ है फिर भी उसकी बेचैनी खत्म नहीं  होती ,एकाकी रति करवट दर करवट रात गुज़ारती है, नींद का कोई झोंका आ भी जाए तो वह गहरी नींद से चौंककर उठ बैठती है, उसे जागने की बीमारी है, उसे चारों और कुहासा ही कुहासा नज़र आता है, अर्धरात्री में उसे यूँ प्रतीत होता है जैसे सामने एक लंबी सुनसान सड़क है जिस पर अपनी दोनों बाहें फैलाए वह दूर-दूर तलक दौड़ी चली जा रही है | ना जाने किसके इंतज़ार में वह मीलों तक दौड़ती चली जाती है और जब थक जाती है तो सड़क किनारे सीली बेंच पर बैठकर रोने लगती है | हर बार किसी गरम हथेली का स्पर्श उसके कंधों को छू कर गुज़र जाता है किन्तु जब-जब पीछे मुड़कर देखती है तो सिवाय एकाकीपन और भयावह सन्नाटे के उसे कुछ भी नज़र नहीं आता तो वह मुँह तक चादर ओढ़े घंटों तक औंधी पड़ी रहती है ….इसी ‘बेली-लैंडिंग’ मनोदिशा में आंसुओं के किसी भयंकर विस्फोट से जूझती हुई रति फिर एक बार ‘सेफ-जोन’ में ‘लेंड’ कर जाती है- “यदि कहीं कोई नहीं है तो फिर उसके बोझिल शानों पर से दिनभर की उलझी जुल्फें किसने हटाई होगी ? अर्धनिद्रा में उसके ठंडे पड़े काँधों पर यह गर्म हथेली कौन रख जाता है आख़िर ? क्या यह कोई छलावा है ?”

      रति सोचती है “जब ईश्वर ने आदम को सिरजा होगा तो सिरज लेने के बाद उसके कंधो पर ज़िम्मेदारी भरा हाथ रखकर कहा होगा कि ज़िंदगी के ‘वेस्ट यार्ड’ में दुखों का ढेर लगा है वहाँ से अपने मन-मुताबिक टुकड़े बटोर लाओ, पहले दुख चुनो …दुख के बिना यहाँ से निकास असंभव है, सुख तो मैं तुम्हें दे ही दूँगा ……..सभी दौड़ पड़े होंगे कि सबसे पहले वे ही छोटे से छोटा टुकड़ा चुन लें….” बस रति ही रह गई अंत में, वह सारे के सारे बचे टुकड़ों का झोला भर लाई थी, वे तमाम दुख जो दूसरों के लिए थे …जिन्हें वह अब तक एक-एक करके निबटा रही है | यहाँ आकर वह निज दुखों से पिघल रही थी…कि उसने मिट्टी का अन्तः रस लिया, धूप से किरचन उधार माँगी और उसमें मिलाए ओक भर-भरकर आंसूँ और दाता हो गया उसका मन… उसने सोचा “एक दिन इसी मिट्टी, हवा और धूप में मिल जाना है तो पिघल जाने से पहले साझा हो जाऊँ |” इन मजदूरों की संगत में रति भी अब नमकसार बन बैठी थी |

      रति अक्सर लीला और उसकी थकी-हारी सहेलियों को अपनी जीप में लिफ्ट दे दिया करती है | लीला जीप ड्राईवर हसन खान की बड़ी-बड़ी मूँछों वाले रोबदार व्यक्तित्व से बेइंतेहा खौफ खाती है | हसन खान दिल का भला व्यक्ति है बस उसका हाव-भाव ही कठोर है | क्या करे पुलिसिया नौकर जो ठहरा, घर में कोई औरत होती तो उसे सहेजती अथवा क्या पता हसन खान स्वयं ही सँवर जाता ? हसन खान की निजी जिंदगी चाहे जितनी भी बेतरतीब अथवा बिखरी हुई हों किन्तु सभी जानते हैं कि उसकी आदतें बहुत सलीकेदार हैं, वह बिला-नागा पांचों वक़्त की नमाज़ अदा करता है, महिलाओं की इज्ज़त करता है और मुसीबत में फँसे मजदूरों की आर्थिक व भावनात्मक हर तरह से मदद करने को तत्पर रहता है |

      लोग कहते हैं जिस वक़्त भारत-पाकिस्तान की सीमा पर कंटीली बाड़ नहीं थी उन्हीं दिनों में कभी हसन खान के अब्बा भारत की सीमा में घुस आए थे, रण में मीलों तक फैले खारे रेगिस्तान की सीमा से सटकर पाकिस्तान के गाँव नज़र आते है, विभाजन से पूर्व कुछ किसानों के आधे खेत हिंदुस्तान में और आधे पाकिस्तान में थे |  किसान खेत की जुताई-बुवाई और कटाई करने बेरोक-टोक यहाँ-वहाँ आते-जाते रहते थे | किन्तु हसन खान इस बात से इंकार करता है, वह तो अपने-आप को खालिश हिन्दुस्तानी ही मानता है | रति के स्थानांतरण पर यहाँ आने के बाद हसन खान ने उसकी भी बड़ी मदद की थी, खाने-पानी से लेकर बाज़ार-हाट  तक…सब हसन खान के जिम्मे है | रति उसे अपना कर्णधार कहती है, हसन खान रति के घर व आफिस से जुड़े हर छोटे-बड़े काम करता है | वह चेहरे से भले ही रोबीला लगता हो किन्तु वह है बड़ा ही नेक बंदा, वह कहता है- “यह मुल्कों की सीमाएँ तो सियासती खुराफातें हैं…बंदा दिल के साथ पैदा होता है तो उसे दिल के साथ ही जीना चाहिए यह दिमाग बहुत बकवास चीज़ है |” उसकी ऐसी ही भावुक बातों ने उसे सबका हर दिल अज़ीज़ बना दिया है |

      कई मर्तबा शराब के नशे में टुन्न मोजूँ को हसन खान अपनी जीप में डालकर घर पहुंचाने जाता था, ऐसे में मोजूँ को थामती हुई लीला घबराहट में हसन खान का शुक्रिया अदा करना भी भूल जाती थी | मोजूँ शराबी नहीं है बस अपने तन-मन के क्षार को सालने के लिए वह कभी-कभार आधा-पहुआ लगा लिया करता है, वह लीला के समक्ष गिड़गिड़ाता है “मैं जानबूझकर ऐसा नहीं करता पर वह खडूस ठेकेदार कमबख़्त ….हम मजदूरों को दिनभर में कित्ता जलील करता है, इज्ज़त की तो स्याली वाट लग जाती है | नशे में डूबा मोजूँ अपनी नई-नवेली से चुहल करता है “किस्मत की मारी अपनी आत्मा से नज़र मिलाने के लिए कभी-कदार थोड़ी-बहुत  शराब तो चलती है मेरी जान, ले…लीला, थोड़ी सी तू भी लगा ले …दोनों को मज़ा आ जाएगा” धत्त….कहती हुई लीला अपना बनावटी गुस्सा भूलकर शरमा जाती है और मोजूँ के नशे में बिन पिए खुद भी  बहकने लगती है” लीला की इन्हीं मासूम अदाओं और प्यार में मोजूँ अपनी सारी चिंताएँ बिसार बैठा था | मोजूँ की बात को तवज्जोह देती है तो लीला को उसकी सभी दलीलें 100 टका सच लगती हैं – हाथ-पाँव गला देने वाले नमक और पचास डिग्री तापमान की चमड़ी झुलसा देनी वाली चमकदार धूप में दिनभर नमक के ठेले खींचना और उस पर भी मुए ठेकेदारों की दुत्कार सुनने का जिगरा हर किसी में नहीं होता | लीला रूआंसी हो उठती है “म्हारों मोजूँ दो जून री रोटला खावानी खातिर केटला अपमान सहे छे |” लीला भी जानती है कि उसका मोजूँ शराबी नहीं है, वह लीला अपने मन को लाख तसल्ली दे ले फिर भी अन्तर्मन के किसी कोने में उसे मोजूँ यूँ रोज़-रोज़ दारू पीना नहीं सुहाता |

      विदाई के वक़्त ज़ार-ज़ार रोती लीला को छाती से लगाकर माँ ने कहा था कि “हम औरतों को वैसा ही जीवन जीने की आदत डालनी चाहिए जैसी किस्मत बख़्शे, औरतें चाहें तो इस धरती को स्वर्ग और ना चाहें तो नरक बना सकती हैं|” माँ की बात को पल्ले से बांधकर लीला ससुराल चली आई थी और तभी से उसने अपनी नई-नई गृहस्थी को जमाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी | उसने मोजूँ के टूटे-फूटे ‘भूँगा’ को एक नया रूप दे दिया था….छत पर  पुरानी घास के स्थान पर ताज़ी बन्नी घास चढ़ाई थी, भूँगा को गोबर से लीपकर उसकी दीवारों पर रंगीन शीशे के टुकड़े जड़ दिए थे, आँगन में उसने गेरूए रंग से माँड़ने माँडे थे | गाँववाले कहते हैं जब से लीला इस घर में आई है यह घर दमकने लगा है, मोजूँ के खाली घर को लीला ने तरह-तरह के बर्तनों से भर दिया है, उसने रद्दी कागज़ से ‘ढूमला-ढूमली’ (बर्तन) और अनाज रखने के लिए बड़ा सा ‘आल्या’ (अन्न संग्रहण टंकी ) भी बनाया था |

   हर शाम लीला शृंगार करके मोजूं की बाट जोहती है, लीला की सुंदरता देख थका-मांदा मोजूं भी अपनी थकान भूल जाता था | कच्छ के इस क्षेत्र में दिन-रात धूलभरी आँधियाँ चलती हैं, जगह-जगह रेत के टीले उग आते हैं, दिन भर की गरम रेत संध्या ढलते ही अपना कोमल स्वरूप दिखाती है, चाँदनी से नहाई बालू रेत पर जब शाम की ठंडी बयार पड़ती है तो यहाँ के  मौसम पर शीतलता छा जाती है | लीला-मोजूँ तारों की लुकाछिपी के बीच इन टीलों के आस-पास कलाबाज़ियाँ करते हैं, गीत गाते हैं और अपने नए-नवेले प्रेम की दास्तान लिखते, वे दोनों एक-दूजे का हाथ पकड़े बालू रेत से बने टीलों पर दूर तक दौड़ते चले जाते थे, चंद्रमा की रोशनी में दो बदन देर तक इत्र की फुहारों में नहाते हैं…हर रात एक आलोकिक संगम से बालू महक उठती थी, “ए लीला तारी खूबसूरती म्हारी आत्मा री कमान है, तू जिधर मोड़े म्हारी नकेल मोड ले, लीला तू रूपसी ज्यादा है के कामणगारी ?” उन्मादित मोजूँ लीला को जादूगरनी कहता है | लीला के प्यार में मोजूँ के दिन-रात सँवरने लगे थे, उसने मोजूँ के उजड़े पड़े घर को अपनी सुगढ़ता से बेहद सुंदर बना लिया था, उन दोनों की गृहस्थी स्वर्ग-सी सुंदर बन गई थी |

      लीला से प्रेरणा पाकर गाँव की हर उम्र की महिलाएं एन॰जी॰ओ से जुडने लगी थी, जिनमें भारी संख्या उन विधवाओं की थी जिनके पति नमक के कारखानों की भेंट चढ़ गए थे, इस इलाके में विधवाओं की बढ़ती संख्या अब सरकार और एन.जी.ओ. के लिए एक अत्यंत शोचनीय प्रश्न है, अकेले ‘खरघोड़ा’ गाँव में ही 500 से अधिक विधवाएँ हस्तशिल्प कला से अपनी गुजर-बसर करती हैं | इन सभी आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार दिन-रात प्रयासरत है, इन महिलाओं के साथ मिलकर लीला अपने खाली समय में वर्क-शॉप में हस्तशिल्प कला के नए-नए नमूनों को सीखने लगी थीं, यहाँ  सिलाई-कढ़ाई और बुनाई के साथ-साथ मिट्टी के खिलौने व बर्तन बनाने का काम भी सिखाया जाता है | लीला स्वयं की दुकान खोलने का सपना तो पूरा ना कर पाई थी लेकिन वह अन्य महिलाओं के साथ मिलकर कच्छी कढ़ाई करती, सिलाई करती और भेड़ों की ऊन से रंग-बिरंगे शाल बुनने लगी थी | रति की देख-रेख में ये महिलाएं तरह-तरह की सजावटी वस्तुएँ बनाती थीं और हर बरस ‘भुजोड़ी’ गाँव में लगने वाले क्राफ्ट बाज़ार में प्रदर्शनी लागाने जाने लगी थीं, इस बाज़ार में देशी-विदेशी कलाकार आते हैं, स्थानीय कलाकारों को यहाँ आकर अपनी वस्तुओं की ऊँची कीमत मिलती है | हर वर्ष रणौत्सव के दौरान रति इन महिलाओं को लेकर ‘धोरडो’ गाँव भी जाती है | पूनम की रात में सफ़ेद नमक पर पूरे चाँद की हसीन चाँदनी जब खुलकर बिखरती है तो सारा रण एकबारगी खुलकर जगमगा उठता है | पर्यटन विभाग के विज्ञापन “कुछ दिन तो गुज़ारों गुजरात में” द्वारा अमिताभ बच्चन ने रणौत्सव को देश-विदेश में खासा लोकप्रिय बनाया है, इस बरस देश-विदेश से आए लोक-कलाकारों का जमावड़ा लगा है, हजारों की तादाद में सैलानी भी जुटे हैं |

      लीला भी पहली-पहल बार इस मेले में शिरकत करने आई है, पूरे मेले के दौरान उसने अपनी सहेलियों के साथ खूब मौज-मस्ती की, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी उसने बढ-चढ़कर हिस्सा लिया था, मेले में स्थानीय हस्तशिल्प कलाकारों की खूब सराहना हो रही थी और साथ ही सबकी दुकानों पर जमकर बिक्री भी हो रही हुई थी | लीला का बरसों पुराना सपना पुनः पल्लवित होने लगा था | रणौत्सव में मिले प्रोत्साहन से लीला अत्यंत उत्साहित थी, उसने ठान लिया था कि घर पहुँचते ही वह मोजूँ से बात करेगी और येन केन प्रकारेण वह उसे राज़ी करके एक छोटी-सी दुकान अवश्य खोल लेगी और धीरे-धीर मोजूँ को भी नमक के उस जानलेवा काम से मुक्ति दिला देगी, उसके निर्णय ने उसका आत्मविश्वास बढ़ा दिया था | रणोत्सव के पखवाड़े के दौरान लीला ने अपने भावी जीवन की अनेक तस्वीरें गढ़ ली थी, जिन पर वह मोजूँ के साथ एक सुनहरे भविष्य का फ्रेम मंढ़ना चाहती थी, उसके ख़्वाब एक बार पुनः पंख फैलाने को आतुर थे |

   मेला अपने अंतिम दिनों पर था तभी गाँव से आए किसी व्यक्ति ने लीला तक यह संदेश  पहुंचाया था कि मोजूँ बीमार है और उसका बुखार बढ़ता ही जा रहा था, उसकी खांसी अब पहले से अधिक भयंकर रूप धारण कर चुकी थी, मोजूँ पहले के मुक़ाबले और अधिक कमजोर हो गया था | लीला को मोजूँ की बीमारी के यह लक्षण किसी बड़ी बीमारी का संकेत दे रहे थे, वह तो पहले से ही मोजूँ द्वारा नमक की खेती करने के खिलाफ थी पर अब तो पूरा मामला ही गंभीर हो चुका था, लीला पेट से भी थी | अब एक तरफ मोजूँ की बीमारी और दूसरी तरफ उसकी आने वाली संतान की चिंता…लीला बिखरने लगी थी | अगरिया समुदाय में एक प्राचीन कहावत प्रचलित है कि  “अगरिया मजदूरों की मौत तीन तरह से होती है- गेंगरिन, टीबी या अंधेपन से | कुछ मजदूर तो भरी जवानी में ही इन बीमारियों की भेंट चढ़ जाते हैं | आए दिन एन.जी.ओ. के वर्कशॉप में नमक के मजदूरों को इन बीमारियों के लक्षणों के बारे में आगाह किया जाता है लेकिन इनसे बचाव का उपाय शायद किसी के पास भी नहीं होता | गरीबी में धंसे बेचारे मजदूर अपने कुनबे का भूखा पेट भरने की कोशिश में अपनी मौत तक से भयभीत नहीं होते….आने वाली मौत के इंतज़ार प्रतिदिन उपजने वाली भूख की अवहेलना नहीं की जा सकती, नतीजा यहाँ दिन-रात  मजदूरों पर मौत का भयानक काला साया मँडराता रहता है |

    गाँव लौटकर लीला सकते में आ गई थी, उसके सभी सपने एक-एक कर धाराशई होते प्रतीत हो रहे थे क्योंकि मोजूँ की सेहत पहले से भी अधिक गिर चुकी थी | बीमारी के बावजूद भी मोजूँ निरंतर काम पर जा रहा था, पिछले कई हफ्तों से उसे जबर्दस्त खांसी ने जकड़ रखा था | अपनी बीमारी से भी अधिक मोजूँ को लीला के बढ़ते गर्भ की चिंता थी | एक तरफ उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी तो दूसरी तरफ सामने से आते खर्चे ने उसे चिंतित कर दिया था | मोजूँ का रोग असाध्य हो चुका था इसीलिए रति ने लीला के साथ उसे शहर जाने की सलाह दी थी, हसन खान अगले ही सप्ताह उन दोनों को शहर के अस्पताल ले जाने वाला था |

     मोजूँ की बीमारी की चिंता से लीला भयभीत थी, अपनी सेहत को नज़रअंदाज़ करके भी लीला शहर जाने की तैयारी में जुटी थी, वह शहर जाकर मोजूँ को अच्छी से अच्छी दवाई दिलवाना चाहती थी | रविवार आने में अभी तीन दिन बाक़ी थे, लीला के लिए एक-एक दिन एक सदी-सा बीत रहा था, वह हसनखान से मिन्नतें करके किसी भी तरह मोजूँ को इसी सप्ताह शहर ले जाना चाहती थी, मोजूँ का मर्ज वश के बाहर हो चुका था | गुरुवार की रात मोजूँ की बेचैनी कुछ अधिक बढ़ती देख हसनखान अपनी जीप ले आया था | मोजूँ को शहर के अस्पताल ले जाने की लगभग सभी तैयारियां पूरी हो चुकी थी, जीप की पिछली सीट पर बैठी लीला की गोद में सिर रखकर लेटे मोजूँ की साँसे यकायक उखड़ने लगी थीं | होनी को कुछ और ही मंजूर था, शायद बहुत देर हो चुकी थी, मोजूँ को खून भरी उल्टियाँ शुरू हो गई थी, मोजूँ निढाल हो चुका था, असहाय लीला उसकी निश्चेष्ट देह को थामे विलाप कर रही थी….एक स्याह अंधकार लीला के रंगीन ओढ़ने पर फैल गया था….उसे अपनी आँखों के सामने सारा ब्रह्माण्ड गोल-गोल घूमता हुआ दिखाई दे रहा था | अभी तो लीला के ब्याह को कुछ महीने ही बीते थे, अभी तो वह अपने नए-नवेले संसार को भरपूर निहार भी नहीं पाई थी…अभी तो उसे ‘भूंगा’ की दीवारों पर कई और रंग उकेरने बाकी थे…अभी तो उन दोनों के आँगन में एक तीसरे जीवन का आगाज होना भी बाकी था | उसके मस्तिष्क में हजारों सवाल कौंध रहे थे, वह बेहिस-ओ-बद-हवास हो चुकी थी, उसकी आँखों के सामने गहरा अंधकार उतर रहा था, कोई उसे संभाल पाता इससे पहले ही वह चक्कर खाकर धड़ाम से ज़मीन पर जा गिरी थी | लीला अपने सुहाग के नाम की चूड़ियाँ तोड़ती कि इससे पहले ही उसे प्रसव पीड़ा ने जकड़ लिया था, लीला पर दुखों का अनंतिम पहाड़ टूट पड़ा था | रति उसे लेकर अस्पताल भागी थी तो उधर हसन खान ने मोजूँ के अंतिम संस्कार की ज़िम्मेदारी संभाल ली थी |

      दर्द सहना शायद लीला की किस्मत में लिख गया था, वक़्त की दोहरी मार और निश्चित अवधि से पूर्व उठी प्रसव वेदना ने उसे अत्यंत कमज़ोर कर दिया था, शहर के अस्पताल में उसने एक स्वस्थ बच्ची को जन्म दिया था | वह गम और खुशी के सागर के बीचोबीच किसी  भावनात्मक मंथन में डूब रही थी | उस नवजात बच्ची को अपनी गोद में थामे हुए लीला उसके भविष्य को लेकर चिंतित थी, लीला को उस नन्ही सी जान की ज़िंदगी में सामने से आते हुई भीषण आँधी का एहसास था, गहरी नींद में समाई बच्ची को लीला ने कसकर थाम लिया था… वह टूट चुकी थी, उसका संसार ध्वस्त हो चुका था | वक़्त की बेज़ा मार से हलकान लीला को उन नाज़ुक पलों में एक सहारे की आवश्यकता थी और ऐसे में रति ने उसे अपने मजबूत कंधे का सहारा दिया था | रति को जीवन का एक और मकसद मिल चुका था, लीला की बच्ची को अपने बाँहों में झुलाती रति उस वक़्त कुछ कठिन मगर दृढ़ निर्णयों से गुज़र रही थी …अब उन्हें गाँव लौटना था | लीला जीप के बाहर सरपट दौड़ती पगडंडियों को अपनी सूनी आंखियों से निहारती एक अनजान भविष्य की ओर बढ़ी जा रही थी, कभी जिस पगडंडियों पर लीला और मोजूँ की अठखेलियाँ टेरती थीं वही पगडंडियाँ अब लीला को बन्नी घास का उजाड़ वन नज़र आ रही थी…लीला पत्थर हो चुकी थी और उसके स्वप्न जड़ हो चुके थे….उस रोज़ नमक के रेगिस्तान में मरने वाले मजदूरों की हजारों विधवाओं की सूची में एक नाम और जुड़ चुका था |

      उधर गाँव वालों के साथ मिलकर हसन खान एक अंतिम कर्तव्य निभाने के लिए तैयार था, वहाँ मोजूँ के तीसरे की तैयारी हो चुकी थी, लोग लीला और रति की राह देख रहे थे…दरअसल दिन-रात नमक के दलदल में काम करते-करते मजदूरों के तलवे, एड़ियाँ और हथेलियाँ छिल जाती है, उनकी कमजोर पड़ चुकी टाँगों से होकर नमक उनके मांस और खून तक धँस जाता है, यहाँ तक की यही नमक उनके मरने के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ता इसीलिए अंतिम संस्कार के बाद हाथ-पैरों को छोड़कर बाक़ी देह तो जल जाती है सिर्फ हाथ-पैर ज्यों के त्यों छूट जाते हैं | तीसरे के दिन इन्हीं बचे-खुचे अंगों को बटोर लिया जाता है और नमक की उसी ज़मीन में दबा दिया जाता है जहाँ काम करते-करते ये मजदूर अपना पूरा जीवन गला देते हैं |

      गाँववाले लीला के साथ थे, वहाँ हर कोई एक-सी पीड़ा का भागीदार था | शहर से लौटते समय हसन खान कभी अजवाइन-गुड़, कभी दवाइयाँ तो कभी बच्ची के लिए जरूरी सामान ले आता था, इस बार यह ज़िम्मेदारी उसे रति ने नहीं सौंपी थी बल्कि उसने स्वयं अपनी मर्ज़ी से खुद पर ओढ ली थी | अब लीला को हसन खान के रोबीले चेहरे से ज़रा भी खौफ़ नहीं होता था …सीमा की कंटीली बाड़ उन दोनों के बीच से हमेशा के लिए हट चुकी थी…फिर भी मीलों तक फैला सफ़ेद नमक अब भी उनके मध्य चुपचाप पसरा पड़ा था |

      चमचमाती धूप में अब भी कई सारे शीशे के टुकड़े एकसाथ चिलकते हैं, इस अभेध भूख का कोई तोड़ किसी के पास नहीं है शायद | रति अब भी प्रतिदिन नमक के रण से गुज़रती है, फर्क था तो बस इतना कि उसे अब वहाँ लीला-मोजूँ की अठखेलियाँ दिखाई नहीं देती…बल्कि कई हज़ार मोजूँ अपने-अपने सलीब उठाए धीमी गति से आगे बढ़ते दिखाई देते हैं, अपनी-अपनी एकांत कब्रगाहों की ओर…रति दहल कर आगे बढ़ जाती है, उसे यूँ प्रतीत होता है जैसे पीछे छूटी गीली ज़मीन पर कोई मजदूर अपने खून से “पाब्लो नेरूदा” की कविता “सिर्फ मृत्यु” उकेर जाता है, सारा नमक लाल हो उठता है, दूर-दूर तक मौत के शब्द रिसने लगते हैं-

“एकांत कब्रगाहें होती हैं,

नीरव अस्थियों से पूर्ण समाधियाँ,

हृदय, सुरंग से गुज़रता हुआ

स्याह, स्याह, स्याह:

पोत के ध्वंस की तरह हम अंदर तक मृत होते हैं,

जैसे हम हृदय के निकट में डूबते या

त्वचा से लेकर आत्मा तक ढह जाते हों |”

                        ***

  • रजनी मोरवाल

23/97, स्वर्ण पथ,

मानसरोवर, जयपुर- 302020

मोबा. 8141178880

9824160612

 

 
      

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