आजकल सबसे अधिक हिंदी में समीक्षा विधा का ह्रास हुआ है. प्रशंसात्मक हों या आलोचनात्मक आजकल अच्छी किताबें अच्छे पाठ के लिए तरस जाती हैं. लेकिन आशुतोष भारद्वाज जैसे लेखक भी हैं जो किताबों को पढ़कर उनकी सीमाओं संभावनाओं की रीडिंग करते हैं. इस बार ‘हंस’ में उन्होंने प्रियदर्शन के उपन्यास ‘ज़िन्दगी लाइव’ और हृदयेश जोशी के उपन्यास ‘लाल लकीर’ के ऊपर लिखा है. न पढ़ा हो पढ़ लीजियेगा- मॉडरेटर
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यह निस्संदेह कह सकते हैं कि पुनर्पाठ की आकांक्षा एक उत्कृष्ट रचना के शब्दों में बसी रहती है। पहला पाठ परिचय जगाता है, हम किताब की कुछ ध्वनियों और रंगतों को थामते हैं, कई अन्य हमसे दूर रही आती हैं। उस कृति से अपना संबंध गहरा करने के लिये हम वापस उसकी ओर जाते हैं। अक्सर कई-कई बार। यानि जो रचना एक ही पाठ में खाली हो जाती है, जिसकी सभी संभावनायें पहली ही मुलाकात में खत्म हो जाती हैं, वह हमें दुबारा अपनी ओर नहीं बुलाती, वह कच्ची या कमजोर मानी जा सकती है।
लेकिन ऐसी रचना का क्या हो जो पुनर्पाठ की आकांक्षा रखती ही न हो? जो सिर्फ पहले पाठ के लिये ही रची गयी हो, भविष्य नहीं वर्तमान को संबोधित हो, खुद को पाठक के समक्ष सिर्फ तात्कालिक लम्हे में रखती हो, उसके तत्काल को थोड़ा सुगबुगा-सहला कर वापस लौट जाने को ही अपनी इति मानती हो? जो खुद के बारे में कहे गये इन विशेषणों पर इठलाने से गुरेज न करती हो कि “यह किताब एक ही सिटिंग में पढ़ी जा सकती है” या कि “यह एक लाइट रीडिंग है।” “हर दौर की अपनी रचना होती है, यह इस दौर की किताब है।”
पिछले वर्षों में हिंदी में ऐसी कई रचनायें आयीं हैं, जो मूलतः एकल पाठ की क्रियायें हैं। उनके पाठक का विस्तार भी हुआ है, साहित्य महोत्सवों में उनकी धूम है। क्या हिंदी साहित्य में वाकई कोई नया दौर आ गया है? क्या “एक ही सिटिंग” में चुक जाना किताब की उपलब्धि है या सीमा? ऐसी किताब अपनी भाषा से क्या संबंध बनाती है, उसके व्याकरण को किस तरह संवर्द्धित करती है? जिस मनुष्य की कथा यह सुनाती है, उसकी जिंदगी को यह कितना थाम पाती है, या थामना चाहती है?
यह लेख इन प्रश्नों को दो हालिया किताबों के जरिये टटोलता है जो खुद को उपन्यास कहती हैं —- लाल लकीर (ह्रदयेश जोशी), जिंदगी लाइव (प्रियदर्शन)। दोनो ही किताबें टीवी के पत्रकारों ने लिखी हैं, उन मसलों पर जिन पर वे अर्से से बतौर पत्रकार काम करते रहे हैं। प्रियदर्शन इससे पहले कहानी और कवितायें लिखते रहे हैं, कई बेहतरीन अनुवाद भी किये हैं। उत्तराखंड की बाढ़ पर ह्रदयेश की एक सामर्थ्यवान किताब प्रकाशित है। दोनों का यह पहला ‘उपन्यास’ है।
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जिंदगी लाइव २६/११ के मुंबई हमले के दौरान खबर पढ़ती एक टीवी एंकर के बच्चे के गायब हो जाने के इर्द गिर्द रची कहानी है। एंकर सुलभा अपना बच्चा न्यूज चैनल के क्रेच में छोड़ कर खबर पढ़ रही है। चूँकि आतंकी हमले की उस रात वह देर रात तक खबर पढ़ती है, अपने बच्चे को भूल जाती है। क्रेच के बंद होने का समय आता है, तो क्रेश में काम करने वाली स्त्री शीला उस बच्चे को अपने साथ ले ऑफिस की गाड़ी में बैठ जाती है, वहाँ से बच्चा उसी चैनल में काम करने वाली एक मेकअप आर्टिस्ट चारू के पास आ जाता है। इस बीच सुलभा का पति हमले पर रिपोर्टिंग करने बंबई जा चुका है। जब सुलभा को अपनी पत्रकारिता से फुर्सत मिलती है, उसे बच्चे की सुध जागती है, बदहवास वह अपने दोस्तों के साथ बच्चे की खोज में निकलती है, पुलिस भी उसके साथ आ जाती है, कई सारी गिरफ्तारियां होती हैं, लेकिन तब तक बच्चा सुरक्षित हाथों से दूर जा चुका होता है।
पूरी किताब दो-तीन दिन के अंतराल में सिमटी है, जिसमें बच्चे की कथा के साथ न्यूज चैनल और उनमें काम करने वालों के संबंध भी लिपटे आते हैं। एक उपकथा एक दूसरी पत्रकार सबा की है जिसके पति इफ्तिखार का उसकी सहकर्मी के साथ संबंध है। टूटी हुयी सबा बंबई में एक सेमिनार में हिस्सा लेने के लिये निकलती है, ताज होटल में रूकती है, जहाँ वह आतंकी हमले में मारी जाती है, इफ्तिखार को इस ग्लानि में डुबोते हुये कि अगर उसने अपनी बीबी को धोखा नहीं दिया होता तो वह शायद बंबई नहीं जाती और उसकी जान बच सकती थी।
एक थ्रिलर फिल्म की तरह कहानी चलती है। हर तीन चार पन्नों के बाद अध्याय और उसके साथ दृश्य बदल जाता है, कहानी में मोड़ आ जाता है। कुछेक अध्याय थोड़े ढीले नजर आते हैं, खासकर तब जब लेखक आख्यायकीय टिप्पणी करता है या किसी किरदार की सरलीकृत व्याख्या करता है। इस व्याख्या की तेज गति से चलती कहानी में कोई खास जगह दिखाई नहीं देती, दूसरे लेखक उनकी रचनात्मक जगह बना भी नहीं पाता। ऐसी जगहों पर कहानी थोड़ी सुस्त पड़ती है लेकिन जल्दी ही कोई अप्रत्याशित मोड़ आता है, कहानी में फिर गति आ जाती है। आख्यान की इस समस्या पर आगे बात होगी, लेकिन आप पूरी किताब वाकई “एक सिटिंग” में पढ़ सकते हैं (“एक सिटिंग” का यह विशेषण इसी किताब पर फेसबुक पर लिखे गये एक प्रंशसात्मक लेख से लिया गया है।), आने वाले दृश्य की उत्सुक प्रतीक्षा बनी रहती है।किताब किसी सस्पेंस फिल्म का सा आस्वाद कराती है।
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लाल लकीर माओवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि में बस्तर के आदिवासियों की कथा कहती है। जिंदगी लाइव सिर्फ कुछ दिनों में सिमटी है, तो लाल लकीर करीब पंद्रह बरस के फासले में घटित होती है। मुखबिरी के आरोप में नायिका भीमे के पिता की माओवादी जन अदालत लगा हत्या कर देते हैं। भीमे अहिंसा में भरोसा करने वाली लड़की है, बस्तर के एक गांव में रहती है। इस हत्या से उसका भरोसा नहीं डगमगाता। कई बरस बाद पुलिस भीमे के साथ बलात्कार करती है, उसके प्रेमी रामदेव को बेइंतहा पीटती है। रामदेव हथियार उठा माओवादियों के दल में शामिल हो कामरेड रामा बन जाता है, लेकिन भीमे को दृढ़ विश्वास है कि हिंसा बस्तर की समस्या का समाधान नहीं है। वह आदिवासियों को जगाती है, उन्हें शिक्षित होने को प्रेरित करती है। वह माओवादियों के साथ जुड़ने से इंकार कर देती है, जिसकी वजह से कुछ नक्सली उससे दुश्मनी बिठा लेते हैं। वह आखिर में एक नक्सली की गोली से मारी जाती है, लेकिन उसकी हत्या के आरोप में रामदेव पकड़ा जाता है।
यह किताब पुलिसिया अत्याचार, फर्जी मुठभेड़, नक्सली हमले इत्यादि के इर्द गिर्द बढ़ती चलती है। बेईमान पुलिस अधिकारी हैं जो झूठा मुकदमा दर्ज करने को बैचेन हैं, सलवा जुडुम के दौरान पुलिस और नक्सलियों की हिंसक ज्यादतियाँ है, बेवजह गांववालों को धमकाते नक्सली हैं, बस्तर में होते जबरन भूमि अधिग्रहण हैं, एक ईमानदार और संवेदनशील पत्रकार है —- इन सबके दरमियां दम तोड़ता बस्तर और उसका आदिवासी है।
बस्तर भारत का वह घाव है जिस पर अमूमन हमारी निगाह नहीं गयी है, और जिन चंद लोगों ने वहाँ काम किया है, उनमें से भी कई अपने आग्रहों से ही बस्तर को देख पाते हैं (हांलांकि हम अमूमन अपने आग्रहों से ही दुनिया को देखते-परखते हैं, यह लेख भी लेखक के आग्रह का ही सूचक है।), ह्रदयेश उन गिनती के पत्रकारों में हैं, जो पिछले दस बरसों से बस्तर जाते रहे हैं, जिनकी निगाह समावेशी है, जिनका स्वर उग्र हमले नहीं करता। उनकी यह किताब तमाम अपेक्षायें लेकर आती है कि गल्प की निगाह से वे किस तरह बस्तर को रचते हैं। पत्रकारिता की रपटों में जो खाली जगह अनिवार्यतः बची रह जाती हैं, जिन खाली जगहों में प्रेम, मृत्यु और स्वप्न निवास करते हैं, उन्हें उनकी कथा किस तरह भरती है।
लेकिन बतौर कथाकार ह्रदयेश अपने पत्रकार का संयम नहीं हासिल कर पाते, या कहें तो उनका पत्रकार उनके कथाकार को उगने और पनपने की ज्यादा जगह नहीं देता। कथा के संसार में शायद यह उनका पहला दखल है, कथा का प्लॉट और किरदार वे अपने बस्तर के पत्रकारीय अनुभव से तैयार कर लेते हैं, लेकिन उन किरदारों में प्राण कम ही महसूस होते हैं। कई जगहों पर कई किरदार जीवंत नहीं लगते, अपनी जिंदगी जीते प्रतीत नहीं होते। लगता है कि लेखक ने पहले ही कहानी का खांचा तैयार कर रखा था, उस पर किरदारों को चस्पा कर दिया। बस्तर की कथा से यह अपेक्षा थी कि वह कत्ल को फकत एक खबर माने जाने के विरुद्ध संघर्ष करेगी। कुछेक जगहों को छोड़ कर लाल लकीर इस अंतर्द्वंद्व से जूझती नहीं दिखाई देती।
इस किताब में कई संभावनाशील स्थल हैं, ऐसे स्थल जब कथा बहुत ऊपर उठ सकती है। मसलन जब पत्रकार अभीक रामदेव को कॉमरेड रामा के रूप में जंगल में देखता है, या जब अपनी रूह और देह पर अनगिनत घाव लिये भीमे पुलिस हिरासत से बाहर आ अपने आप को बटोरती है। लेकिन कथा अपनी संभावनाओं को हासिल नहीं कर पाती, सतह पर ही चलती है।
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इस दृष्टि से दोनों किताबों में एक बुनियादी अंतर है। दोनों लेखक भले ही अपने पत्रकारीय अनुभवों से अपनी कथा को रचते हैं, लेकिन जिंदगी लाइव ऊपर उठने का कोई ख्वाब नहीं देखती, वह अपने किरदारों को वह अवकाश नहीं देती, ऐसा कथानक नहीं बुनती जो मानव जीवन को किसी बड़े फलक पर लाकर उद्घाटित कर सके। इस किताब को बहुत ढंग से मालूम है कि वह कहाँ खड़े होकर दुनिया को देख रही है, क्या कहना चाहती है, क्या हो जाना चाहती है। उसकी आकांक्षा एक थ्रिलर हो जाने की है। कोरी थ्रिलर नहीं, बल्कि एक ऐसी कहानी जो चौबीसा घंटे टीवी पत्रकारिता कर्म की विडंबना को भी छू भर जाये, किस तरह यह कर्म पत्रकार को खुद उस वेदना के प्रति निसंवेदी बना देता है जिसे वह दुनिया को दिखाता है, इस मसले को भी रेखांकित कर जाये —- वह अपनी इस आकांक्षा को हासिल भी कर लेती है।
प्रकारांतर से, यहाँ यह जिक्र करना ठीक होगा कि प्रियदर्शन की पिछली कवितायें और कहानियाँ स्वप्न देखती आयी हैं, उनकी काया में तड़प भी मौजूद है। लेकिन फिर हर रचना अपनी पूर्ववर्ती से भिन्न होने को स्वतंत्र है।
इसके विपरीत लाल लकीर, कम अस कम कागज पर, ख्वाब देखती है। वह बस्तर की महागाथा हो जाना चाहती है, पिछले तीन दशकों से मध्य भारत का यह लगभग अभेद जंगल एक विराट त्रासदी का साक्षी हुआ है। लाल लकीर बस्तर के विकराल और वीभत्स सत्य को संपूर्णता में थामना चाहती है, लेकिन संपूर्णता की इस चाहना को यह किताब, शायद औपन्यासिक दृष्टि के अभाव की वजह से, साध नहीं पाती। वह सत्य कोरी घटनाओं में सिमट जाता है, मानव जीवन में स्पंदित होता नहीं दिखलाई देता। किताब का ख्वाब शब्दों से बाहर छिटक जाता है। पुलिस कप्तान, पुलिस इंस्पैक्टर, नक्सली, गृहमंत्री, पत्रकार, आदिवासी, मृत्यु, प्रेम, हत्या —- इतनी सारी चीजें यह किताब कह जाना चाहती है, लेकिन इन्हें साधने के लिये जिस रचनात्मक चेतना की जरूरत थी वह इस किताब में नहीं दिखती। घटनायें हैं, लेकिन रूह नदारद है। कई सारे अंश अगर संपादित कर दिये जाते, उपन्यास की फॉर्म को हासिल करने के लिये लेखक ने आत्मसंघर्ष किया होता, तो किताब कहीं बड़े पाये की हो सकती थी। जो दुर्लभ कच्ची सामग्री लेखक के पास थी, वह जाया न जाती।
जिंदगी लाइव भी कुछ जगहों पर ऐसे विवरणों में उलझती है जिनसे अगर वह बचकर चली होती तो अपने मुकाम को बेहतर ढंग से हासिल कर ले जाती थीं। एक किरदार की मनोस्थिति को बतलाता यह पैराग्राफ मसलन —-
“समीर पाठक दुखी थे। कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों ने मिलकर देश का नाश कर दिया, यह उनकी पुरानी मान्यता थी। बहुत सारे संघियों की तरह वे भी विश्वास करते थे कि अगर नेहरू की जगह पटेल देश के प्रधानमंत्री होते तो देश की दिशा कुछ और होती। वे गाँधी जी का सम्मान करते थे, लेकिन गौडसे से वैसी नफरत नहीं करते थे जैसी और लोग करते हैं। वे कुल मिलाकर देशभक्त थे। उन्हें लगता था कि आतंकवाद से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। इस नाते वे मुसलमानों से भी चिढ़ते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि मुसलमान न होते तो आतंकवाद की यह समस्या न होती….उनकी यह भी मान्यता थी कि ये कम्युनिस्ट पाखंडी हैं — गरीब की बात करेंगे, सर्वहारा की बात करेंगे, लेकिन बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमेंगे, एसी वाले घरों में घूमेंगे। इनके लिये नारी मुक्ति का मतलब एक्सट्रा मैरिटल और प्री मैरिटल सैक्स को बढ़ावा देना है।”
इसी सिलसिले में लाल लकीर का यह अंश देखें, जब भीमे अपनी हत्या से पहले आदिवासियों को संबोधित कर रही है —-
“हममें से जो लोग अपने अधिकार की बात उठाते हैं, पुलिस और हमारी सरकार उन्हें नक्सली या माओवादी कहती है। हम बस्तर के लोग खुलकर कहते हैं कि हममें से बहुत सारे लोग गाँव में नक्सलियों को खाना-पानी देते होंगे….लोग उनके लिये काम करते हैं तो क्या लोग नक्सली हो गये?…..जनताना सरकार और पुलिसिया सरकार के अत्याचार में कोई अंतर नहीं है। दोनों जगह हमारी कोई सुनवाई नहीं है…हमें दोनों ओर से हिंसा झेलनी पड़ती है…या फिर इस हिंसा में किसी एक का साथ देना पड़ता है।”
दोनो अंश एक ऐसी भाषा में खुद को कहते हैं जिसका मुलम्मा उतर चुका है, एक ऐसी बात कहते हैं जिसे हम लगभग इन्हीं शब्दों में न मालूम कितनी बार सुन चुके हैं। लेकिन जैसाकि पहले कहा दोनो किताबें भाषा के साथ किसी विशेष संबंध की चाह नहीं रखती, खुद को व्यक्त भर कर देने को अपनी इति मानती हैं।
लाल लकीर के साथ दिक्कत एक और भी है। कई अवसरों पर यह लगभग अखबार की कतरन बन जाती है, भूल जाती है कि इसने आखिर एक उपन्यास हो जाने का ख्वाब देखा था। न सिर्फ पत्रकार अभीक बनर्जी की खबरें ज्यों का त्यों इस किताब में उतर आती हैं, उन खबरों पर आख्यायकीय टिप्पणी भी कोई अंतर्दृष्टि नहीं दे पाती।
मसलन यह अंश जो तकरीबन तीन पन्नों में फैली अभीक बनर्जी की खबरों के बाद आता है—-
“इस बीच छत्तीसगढ़ सरकार ने जनसुरक्षा अधिनियम के नाम से एक नया कानून पास कर दिया था। इस कानून ने मानवाधिकारों की बात करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ उन पत्रकारों के लिये भी बड़ी दिक्कत खड़ी कर दी जो सरकार और पुलिस की ओर (से) हो रही किसी ज्यादती के बारे में लिखते या माओवादियों का पक्ष छापते….सलवा जुडुम फैलता गया और माओवादियों में छटपटाहट बढ़ती गयी। उन्होंने भी मुखबिरों का नेटवर्क फैलाना शुरु कर दिया। नये सिरे से हमलों की तैयारी शुरु कर दी। पुलिस की ज्यादतियों और मीडिया की चुप्पी पर सवाल उठाने शुरु किये।”
एक अन्य स्थल पर लेखक इस तरह बस्तर को बतलाता है —-
“बस्तर में पिछले तीन सालों से कुछ खास नहीं बदला, बस हिंसा बढ़ती गयी थी। नक्सलवादियों से लड़ने के लिये सरकार सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ाती गयी। मई २००९ में कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा चुनाव जीतकर एक बार फिर दिल्ली में अपनी सरकार बना ली। गृहमन्त्री पी चिदम्बरम नक्सलियों को खदेड़ने के लिये पूरे देश में एक बड़ा ऑपरेशन चलाना चाहते थे। छत्तीसगढ़ में बीजेपी की रमन सरकार पहले ही नक्सलविरोधी अभियान चला रही थी। इसके जवाब में माओवादी बस्तर में जगह जगह अपनी पकड़ मजबूत करने लगे। उन्होंने काडर भरती का अपना अभियान जारी रखा। वह कच्ची उम्र के लड़के लड़कियों क्रान्तिकारी रास्ते पर चलने के लिये तैयार करते रहे। बस्तर के गाँवों से लेकर शहरी इलाकों में हर जगह माओवादियों का खुफिया नैटवर्क मजबूत हो रहा था।”
यह भाषा सिर्फ सूचना देती है। इससे परे कोई आकांक्षा नहीं इसकी। शब्द एक ऐसी जादुई चाभी है, जिसके जरिये हम मानव जीवन के तिलिस्म में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन यहाँ लेखक शब्द को सिर्फ सूचना संप्रेषित करने तक ही सीमित कर देता है।
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यहाँ हम उस प्रश्न की ओर मुड़ सकते हैं जो हमने शुरु में किया था —- एक ही पाठ में चुक जाना क्या किसी किताब की सीमा है, खासकर ऐसी किताब की जो खुद को पहले ही पाठ की कृति मानती हो, जो खुद को बार-बार पढ़े जाने की हसरत लिये न जीती हो?
इसलिये शायद इन दोनों, और इन जैसी उन तमाम किताबों से जिनकी चर्चा इन दिनों हिंदी में बेइंतहा हो रही है, यह उम्मीद बेमानी होगी कि यह अपने काल से परे निकलने का प्रयास करेंगी, कि यह पाठक को झकझोर कर अपनी ओर बुलायेंगी। यह पहले पाठ की किताबें हैं, इन्हें उसी तरह पढ़ना उचित रहेगा।
इन पर पॉल ऑस्टर की वह प्रस्तावना लागू नहीं होगी जब वह लुई वॉल्फसन के हवाले से एक साक्षात्कार में बतलाते हैं कि “आखिर हम ऐसी किताब कैसे पढ़ सकते हैं जिन्हें पढ़ने के लिये हम बाध्य महसूस नहीं करते?” या फ्रांत्स काफ्का का वह आघात कि हमें वही किताबें पढ़नी चाहिये जो हमारे भीतर खंजर सी उतरती जायें, हमें लहूलुहान करें, जिनके शब्द एक कुल्हाड़ी की तरह हमारे भीतर जमे बर्फीले सागर को चकनाचूर करते जायें।
यानि इन किताबों के लिये, जिनका पिछले कुछ वर्षों में हिंदी में अच्छा प्रसार हुआ है, हमें नये प्रतिमान खोजने होंगे। इन्हें यह कहकर दरकिनार करना ठीक नहीं कि यह किताबें भाषा का संधान नहीं करतीं या मनुष्य जीवन के अंधियारे गलियारों में हमें हाथ पकड़ नहीं ले जातीं। जो किताब ऐसी आकांक्षा ही नहीं रखती, उसे उस निगाह से देखना उसके साथ न्याय नहीं होगा।
तो क्या इनका प्रतिमान यही हो कि यह पहले पाठ में या “एक सिटिंग में” यह किस कदर पाठक को थाम पाती है? लेकिन यह प्रतिमान इन किताबों को या ऐसी अन्य किताबों को कहाँ तक ले जायेगा, इस पर हम ऑस्टर और वॉल्फसन पर लौट सकते हैं। वॉल्फसन अमरीकी लेखक हैं, अंग्रेजी उनकी मातृभाषा है। लेकिन बचपन से ही एक विचित्र किस्म के स्कीजोफ्रेनिया की गिरफ्त में होने की वजह से वे अपनी मातृभाषा पढ़ या सुन नहीं पाते थे। अपनी मातृभाषा को सुनते या पढ़ते वक्त उन्हें बेइंतहा घबराहट होने लगती थी। लंबे इलाज के बाद आखिर में उन्होंने फ्रेंच और जर्मन सरीखी विदेशी भाषायें एक खास तकनीक से सीखीं। कई साल बाद उन्होंने अपने अनुभवों पर एक किताब फ्रेंच में लिखी। इस किताब पर ऑस्टर, जो खुद अच्छी फ्रेंच जानते हैं, ने लिखा कि “यह एक असंभाव्य किताब है…यह कहना पर्याप्त नहीं होगा कि यह साहित्य के हाशिये पर रची गयी है: दरअसल, इसका निवास भाषा के हाशिये पर है…यह किताब अनुवाद की सभी संभावनाओं को नकार देती है। यह दो भाषाओं के बीच कहीं अधर में लटकी डोलती है। एक नाजुक बारीक डोर पर डगमगाता अस्तित्व ही इसकी नियति है। क्योंकि यह महज वह लेखक नहीं है जिसने एक विदेशी भाषा का चुनाव किया। इस किताब के लेखक ने फ्रेंच में लिखा क्योंकि उसके पास कोई विकल्प नहीं था। एक क्रूर आवश्यकता ने इस किताब को जन्म दिया है, बचे रह जाना इस किताब की जरूरत है।”
जो सूत्र श्रीकांत वर्मा ने ‘मगध’ में हमें बहुत पहले दिया था, उसे पलट कर कह सकते हैं कि —- जो रचेगा, वही बचेगा।
प्रियदर्शन और ह्रदयेश की यह दोनों किताबें किस तरह बची रहेंगी, किस भविष्य में जाकर अपनी नियति से साक्षात्कार करेंगी, इसके लिये अभी कुछ कहना अनुपयुक्त, असंगत होगा, शायद जल्दबाजी भी। इनके पहले पाठ ने जो दृष्टि दी, वह ऊपर दर्ज है। समय ही इनका, और इन पर लिखे इस लेख का, लेखा लिखेगा।
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