हिंदी में गद्य कविता एक ऐसी विधा है, जिसे अभी एक्सप्लोर किया जाना बाक़ी है। कुछ लोग कभी-कभार हाथ आज़माते रहते हैं। लेकिन दूसरी भाषाओं में ये काम निरंतर हो रहा है। कभी कभी ख़याल आता है कि अगर अनुवाद की सुविधा न होती, तो हम अपनी ज़िंदगी में कितनी ही ख़ूबसूरत चीज़ों से वंचित रह जाते। आज जो कविताएँ हम पढ़ने जा रहे हैं, वो ‘अनिमा एंड दि नैरेटिव लिमिट्स’ सीरीज़ का हिस्सा हैं, जिसे नबीना दास ने लिखा है। नबीना अंग्रेज़ी की लेखिका हैं और उनकी चार किताबें- ब्लू वेसेल्स (कविता संग्रह), दि हाउस ऑफ़ ट्विनिंग रोज़ेज़ (कहानी संग्रह), इनटू दि माइग्रेंट सिटी (कविता संग्रह) और फ़ूटप्रिंट्स इन दि बाजरा (उपन्यास) हैं, जिन्हें बहुत सराहा गया है – त्रिपुरारि
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अनिमा खड़ी बाज़ार में
इस खुले बाज़ार की उम्र उतनी ही है जितनी मेरी परदादी की. यह बाज़ार तब भी था जब गायें हरी घास से गोबर बनाया करती थीं. अब भी यहां चमकीले खिलौने, चिपचिपी मिठाइयां और सब्ज़ी और अचार बेचने वाली दुकानें हैं, सबकुछ सुपरस्टोरों में नहीं पहुंचा है. आओ तुम्हें दिखाऊं कि सबसे पुराना विक्रेता कहां मिलेगा. तुम बता ही नहीं पाओगे कि वे आदमी हैं या औरत. उनका चेहरा चांद की झुर्रियों से बना है और वे हाथीगोरुखुवा में बुनी लंबी सफ़ेद धोती पहनते हैं. नहीं, वो जगह सचमुच असली है. अक्षरश: उसका मतलब है हाथी-गायों को खाना. मैं तुम्हें यह नहीं बता सकती कि हाथी या गाय खाने वाले कौन थे और अगर ऐसा कोई था ही नहीं, तो भला उस जगह का इतना अजीबोग़रीब नाम क्यों पड़ता. लेकिन मैं जानती हूं कि नाम हमेशा वो नहीं दर्शाते जो तुम करते हो या जिससे छुटकारा पाना चाहते हो. हां, तुम हाथी या गाय नहीं खाते. लेकिन तुम हाथियों को रोने देते हो जब तुम जंगलों को काटते हो. तुम अपनी फेंकी हुई प्लास्टिक की थैलियों की वजह से गायों को मरने देते हो. अरे, प्लास्टिक की थैलियों से बाज़ार याद आया. यहां सुंदर-सुंदर देसी तोरियां हैं, जिसे वे स्त्री-पुरुष तौलकर बेचते हैं जो मेरी परदादी की उम्र के हो सकते हैं. हर पुलिंदे के साथ एक कहानी बांटी जाती है. पूरा का पूरा ख़रीद लो, पर प्लास्टिक मत पकाना.
सारी दुनिया एक बाज़ार है. जब तुम अगली बार यहां आओगे तो मैं, अनिमा, तुम्हें बताऊंगी कि मांस बेचने वाला अपने छुरे पर धार क्यों लगा रहा है.
अनिमा बोले दो ज़ुबानें, अनकटी
कोई एक भूगोल विज्ञानी एवं संग्रहकर्ता मुझसे परेशान है. मुझे एक प्रश्नावली मिली, फिर एक निजी संदेश. ना, अब वे सचमुच की चिट्ठियां नहीं लिखते. ईमेल आते हैं त्योरियों के बग़ैर, या जबड़े की उस एक ओर वाली मांसपेशी की थिरकन के बग़ैर. लेकिन बावजूद इसके मैं आशय समझ लेती हूं. वह भूगोल विज्ञानी-संग्रहकर्ता विश्वविख्यात है, इसलिए उससे बहस करना नहीं बनता. उफ़, वे सारे ज़्यादातर वही हैं. मैं सोच भी नहीं सकती कि एक सख्त़ औरत किसी शरीफ़ आदमी का मुखौटा सिर्फ़ मुझे यह बताने के लिए पहनेगी कि मैं एक से ज़्यादा भाषाएं बोलती हूं. तुम्हारा वर्तमान भौगोलिक स्थान कहां है, वह मुझसे पूछता है. मैं एक पठार पर हूं, मैं कहती हूं. नक़्शे में उसे दक्कन प्रायव्दीप कहते हैं. कभी मैं फिसल-पट्टी पर सवार होकर ब्रह्मपुत्र घाटी में नीचे सरक रही होती हूं, तो कभी आसमान में मंडरा रही होती हूं. मुझे लगता है टॉलमी को इससे कोई ऐतराज़ नहीं होता. रही बात संग्रह की, तो क्या एक से ज़्यादा भाषाओँ में बोलने पर चोट लग सकती है, या फिर उन संस्कृतियों में रहने पर जिन्हें मसालों की तरह आपस में घुला-मिला दिया गया है ताकि वो गर्मियों की पौष्टिक सब्ज़ियों या सर्दियों के शरबत या सावन में सहजन फली की एक टहनी के संग भांप में पक सकें? मेरे भले आदमी ने ईमेल में मुझे लिखा है कि यह विद्वानों के लिए वर्गीकरण को मुश्किल बना देता है. अर्थ को बीच से काट देता है.
मैं शोर बंद कर देती हूं और एक शांत कस्बे में मोरा भोरोलू नाम की नदी को सुनती हूं, जहां मियां भाई अपनी नाव खेते हुए आया करते, अपने चप्पू से जलकुंभी हटाते हुए. किसी को तो मरी हुए नदी से प्यार करना ही होगा, वे कहा करते. मैं, अनिमा, अनकटी ज़ुबानों वाली, बहुत जल्द आपको आवाज़ों के भूगोल के बारे में बताऊंगी.
अनुवाद – सरबजीत गरचा
(सरबजीत कवि, संपादक और अनुवादक हैं। कॉपर क्वाइन नाम से पब्लिशिंग हाउस भी चलाते हैं, जो विभिन्न भाषाओं के लिए काम करती है।)
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