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भविष्य का भयावह कथानक है ‘रेखना मेरी जान’

‘रेखना मेरी जान’रत्नेश्वर सिंह के इस उपन्यास की छपने से पहले जितनी चर्चा हुई छपने के बाद इसके अलग तरह के कथानक की चर्चा कम ही हुई. यह हिंदी का पहले उपन्यास है जिसका विषय ग्लोबल वार्मिंग है, जो केवल भारत की कहानी नहीं कहता. इसकी एक विस्तृत समीक्षा लिखी है पीयूष द्विवेदी ने- मॉडरेटर

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रत्नेश्वर सिंह का उपन्यास ‘रेखना मेरी जान’ वर्तमान समय से आगे की कहानी है। ग्लोबल वार्मिंग के विषय पर केन्द्रित मुख्य कथानक के सामानांतर इसमें एक प्रेम कथा तथा सांप्रदायिक समरसता और विद्वेष की छोटी-छोटी कथाएँ भी चलती हैं। ग्लोबल वार्मिंग की समस्या अभी पूरे विश्व के लिए चिंता का कारण बनी हुई है, रत्नेश्वर सिंह ने इसी समस्या की भावी विकरालता को अपने कथानक का आधार बनाया है। इस प्रकार के विषय पर, इतने तथ्यपरक ढंग से, केन्द्रित कथा-साहित्य संभवतः हिंदी में अबतक नहीं रचा गया होगा।

ग्लोबल वार्मिंग साधारण रूप में तो इतनी समस्या है कि विश्व का तापमान बढ़ रहा है, मगर जब इसके अंदर जाकर कथा गढ़नी हो, तो इसके वैज्ञानिक पहलुओं को टटोलना आवश्यक हो जाता है। वैज्ञानिक तथ्यों को जाने-समझे बिना गढ़ी गयी कहानी निष्प्रभावी ही सिद्ध होगी। अतः रत्नेश्वर विभिन्न अंतर्कथाओं के माध्यम से आवश्यकतानुसार विषय की वैज्ञानिकता पर भी प्रकाश डालते चले हैं। उदाहरणार्थ पुस्तक का एक अंश उल्लेखनीय होगा, “…पृथ्वी पर नौ विशिष्ट सीमा रेखाओं को चिन्हित किया गया है, जिनमें हमें हस्तक्षेप से बचने की सलाह दी गयी थी। पर हमने तीन सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण पहले ही शुरू कर दिया है। वे हैं जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और भूमंडलीय नाइट्रोजन-चक्र।” इस प्रकार अनेक स्थलों पर, विविध प्रसगों के माध्यम से, विषय के वैज्ञानिक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि विषय को वैज्ञानिक तथ्यों का आधार मिल जाने से यह कथा प्रभावी बन पड़ी है।

कहानी दो प्रगतिशील हिन्दू-मुस्लिम परिवारों की है, जिनकी संतानों सुमोना और फरीद के मध्य प्रेम है, परन्तु धार्मिक रेखाओं के कारण संकोच भी है। इसी बीच अंटार्कटिका में पिघलती बर्फ और पर्वतीय खिसकाव से भयानक तूफ़ान का तांडव मचता है, जिसकी जद में बारिसोल शहर भी आ जाता है। इसके बाद शुरू होता है जीने के लिए संघर्ष और इसी संघर्ष के बीचोबीच कहानी भी बढ़ती जाती है। तूफ़ान की त्रासदी के शब्द-चित्र उकेरने में रत्नेश्वर काफी हद तक सफल रहे हैं। हालांकि कहानी का अंत थोड़ा अजीब और जल्दबाजी भरा लगता है; ऐसा लगता है जैसे लेखक ने अंत के अभाव में कहानी को बीच में ही रोक शेष सब कुछ पाठक के विवेक पर छोड़ दिया है। पाठकों के विवेक पर आश्रित इस प्रकार के अंत हिंदी साहित्य में बहुतायत मिलेंगे, परन्तु इस कथानक के लिए ऐसा अंत कोई बहुत सार्थक और प्रभावी नहीं कहा जा सकता।

ये तो बात हुई ग्लोबल वार्मिंग पर आधारित उपन्यास की मुख्य कथा की, अब इसके समानांतर चलती अन्य कहानियों पर आते हैं। फरीद और सुमोना की प्रेम कहानी के माध्यम से लेखक अक्सर हिन्दू-मुस्लिम समाज के मध्य समरसता और विद्वेष के पहलुओं को भी टटोलने लगते हैं। इस क्रम में कई जगह वे चीजों का बेहद सरलीकरण करते जाते हैं। अब जैसे कि फरीद जैसे सुशिक्षित युवा का कुरआन की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि उसने गीता भी पढ़ी है और सभी ग्रंथ बेहद करीब हैं, सम्बंधित विषय के सरलीकरण का ही एक उदाहरण है। सभी धर्मों, धर्मग्रंथों में समन्ता की यह बातें कहने-सुनने में ही अच्छी लगती हैं, वास्तविकता में उनका कोई ठोस आधार नहीं होता। अतः ऐसे सरलीकरण गंभीर कथानक को हल्का बनाते हैं। यदि ऐसे प्रसंगों से लेखक की मंशा सांप्रदायिक समरसता के समर्थन की है, तो इस दृष्टि से भी इन प्रसंगों का कोई अर्थ नहीं; क्योंकि निराधार और वायवीय धारणाओं पर आधारित सामाजिक समरसता स्थायी नहीं हो सकती। बहरहाल, हिन्दू-मुस्लिम विषय इस पुस्तक की एक अंतर्कथा के रूप में मौजूद है, अतः संभव है कि लेखक ने इसकी गहराई में जाकर उलझने से बचने के लिए भी ऐसे सरलीकरण का मार्ग अपना लिया हो।

भाषा की दृष्टि से यह पुस्तक अत्यंत प्रभावित करती है। हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आदि के शब्दों सहित बंगाली शब्दों का भी भरपूर और बेहद सहज प्रयोग हुआ है। बंगाली शब्दों के इस प्रयोग से भाषा में सहज ही एक ताजगी पैदा हो गयी है। इसके अलावा जैसा कि ऊपर वर्णित है कि यह समय से आगे की कहानी है, तो इसकी भाषा भी उसी तरह समय से कुछ आगे की है। इसमें वर्तमान समय से कुछ आगे के अत्याधुनिक वैज्ञानिक उपकरण अपने अनूठे और आकर्षक नामों के साथ मौजूद हैं, जैसे सूरजेटर (सूर्य द्वारा बिजली पैदा करने वाला यंत्र), छड़ीकैम (कैमरा लगी छड़ी), रिंगफोन (अंगूठी वाला फोन) इत्यादि। ये नाम-रचना निश्चित तौर पर प्रभावित करती है।

कुल मिलाकर ये उपन्यास ग्लोबल वार्मिग जैसे विषय की अपनी मुख्य कथा के साथ न्याय करने में सफल है। परन्तु, इसके सामानांतर चलती कथाएँ मुख्य कथा के भार में कुछ दब सी गयी लगती हैं। बावजूद इन सबके यह तथ्य है कि ग्लोबल वार्मिंग जैसे विषय की भावी विकरालता को आधार बना यह उपन्यास रचकर रत्नेश्वर सिंह ने न केवल हिंदी साहित्य को और समृद्ध किया है, बल्कि हिंदी के नवोदित लेखकों को भविष्य में वर्तमान से जुड़े कथाओं के सूत्र तलाशने के लिए मार्ग दिखाने का भी काम किया है।

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पीयूष द्विवेदी

08750960603

 
      

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