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पद्मावत – ऐतिहासिक गल्पों की सबसे मज़बूत नायिका की कहानी

पद्मावत फिल्म को अपने विरोध-समर्थन, व्याख्याओं-दुर्व्यख्याओं के लिए भी याद किया जायेगा. इस फिल्म पर एक नई टिप्पणी लिखी है युवा लेखिका अणुशक्ति सिंह ने- मॉडरेटर

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पद्मावत- एक महाकाव्य – जिसे पंद्रहवीं/सोलहवीं सदी के घुम्मकड़ कवि मलिक मुहम्मद जायसी के कवित्त ह्रदय ने रचा था. यह दिल्ली सल्तनत और एक राजपूती राजपरिवार के बीच की लड़ाई की एक लम्बी कवित्त गाथा थी, जिसके अतिशयोक्तिपूर्ण होने के बावज़ूद इतिहास की भव्यता में जीने वाला समाज अपने इतिहास के तौर पर स्वीकारता चला गया क्योंकि कम से कम एक प्रमुख पात्र के होने की गवाही इतिहास दे रहा था.

इसी काव्य के लिखे जाने के तकरीबन पाँच सौ सालों के बाद, तब जब दिल्ली का सल्तनत बहुत बदल चुका था और अपनी धर्म-निरपेक्षता को परे रख कर नयी शासकीय इबारत लिखने में व्यस्त था, हिन्द की फ़िल्मी नगरी के एक जागीरदार ने एक नयी पद्मावत के रचने की घोषणा की. यह नयी वाली पद्मावत, कुल मिला-जुला कर पुरानी पद्मावत पर ही आधारित होने वाली थी, फर्क यह था कि इसे सिनेमाई परदे पर रचा जाना था – थोड़े परिस्थितिजन्य परिवर्तनों के साथ.

नए रचनाकर द्वारा परिवर्तन की उद्घोषणा ने इस परिवर्तनशील मगर मानसिक तौर से परिवर्तन-विरोधी मुल्क में विरोध की एक बेमिसाल तौर से खतरनाक लहर पैदा कर दी. यह लहर इस कदर खतरनाक थी कि इतिहास इस बात को याद रखेगा कि किसी फ़िल्म की वज़ह से भी इस देश में आपातकाल के हालात पैदा हुए थे.

खैर, इतिहास और काल-खण्डों से बाहर निकलते हुए फ़िल्म की ओर चलते हैं – संजय लीला भंसाली कृत फ़िल्म. वही संजय लीला भंसाली, जिन्हें अपनी फिल्मों के कथानक से ज्यादा उसके भव्य सेट्स और बेतहाशा खर्च हुए बजट के लिए जाना जाता है. हालाँकि ये वही भंसाली हैं जिन्होंने ब्लैक, खामोशी द म्यूजिकल और गुज़ारिश जैसी फिल्मों का निर्माण किया है. गौरतलब यह है कि जिस साल ब्लैक रिलीज़ हुई थी, उसे विश्व-स्तर पर साल की बीस सबसे अच्छी फिल्मों में रखा गया था.

भंसाली साब की बाकी फिल्मों की भांति पद्मावत भी सुन्दर फ़िल्मी सेट्स, जेवरों और कपड़ों की प्रदर्शनी है.

कहानी शुरू होती है एक षड्यंत्रकारी सिपहसलार, उसके सनकी भतीजे, एक खूबसूरत लड़की से और वहाँ से फिल्म का रुख सीधे सिंघल द्वीप की ओर हो जाता है.

उस दृश्य में कुलाँचे भरती हुई, हिरण का शिकार करती राजकुमारी को देखकर सहसा राजामौली की देवसेना याद आ जाती है, मगर जो बात नोटिस करने की है वह यह है कि भव्यता के बावज़ूद ‘सिंघल द्वीप’ की राजकुमारी के परिवेश में सादगी घुली है. यहीं राजकुमारी की भेंट अपने भावी जीवनसाथी से होती है. फ़िल्म की यह शुरुआत महाकाव्य से इतर है और यहाँ से पद्मावत दो राजपरिवारों की समानांतर चल रही कहानी बन जाती है.

एक राजपरिवार जिसकी बागडोर एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में जाने वाली थी जो वहशीपने की हद तक सनकी था और दूसरी तरफ़ वह राजपरिवार जो आन-बान-शान की परंपरागत परिभाषा का बेहतरीन नमूना है. आगे की कहानी एक पुराने विश्वासपात्र के खफ़ा हो जाने और ज़िद का रूप धारण कर चुके अहम् के टकराव की कहानी है. इस कहानी में दोनों ही पक्ष जीतने के लिए युद्धरत है. वहशी अल्लाउद्दीन खिलजी जो दुनिया की हर नायाब चीज़ को अपना समझता है, नायाबियत की मलिका ‘पद्मावती’ को भी वस्तु समझ कर हासिल करना चाहता है. यह उसकी फ़ितरत में है.

किसी भी आम प्रेमी की भांति रतनसेन खिलजी की इस चाह पर उसका सर कलम कर देने की इच्छा रखते हैं.

फ़िल्म में इन दो बलशाली पुरुषों के मध्य जो सबसे शक्तिशाली चेहरा उभरता है वह रानी पद्मावती का है. राजनीति, युद्धनीति और धर्म की जानकार पद्मावती सौन्दर्य को गुण नहीं मानती है, इसे महज़ देखने वाले की नज़र कहती है. पद्मावती कुशल है, उसे अपनी उपस्थिति का भान है. वह पूरे कथानक में न तो वस्तु के तौर पर नज़र आती है, न ही किसी चुप पुरुष-जीवी सहयोगी के रूप में. इस फिल्म के अन्य स्त्री-पात्र भी काफी मज़बूत नज़र आते हैं, चाहे वह खिलजी की पत्नी मेहरुन्निसा हो, रतन सेन की बड़ी रानी या फ़िर देवगिरी की राजकुमारी.

फिल्म के एक दृश्य में अपने प्रियतम को खाना खिलाते वक़्त पद्मावती पंखा झल रही होती है. देखकर सहसा ही किसी पुराने हिंदी फ़िल्म की बेचारी पत्नी याद आ जाती है मगर अगले ही पल रतनसेन से हो रहा पद्मावती का संवाद सारे परिदृश्य को गज़ब तरीके से बदल देता है.

पद्मावती बार-बार चौंकाती है. वह रतनसेन की पत्नी होने के नाते उसकी बात मौन होकर नहीं सुनती है. अपना मत रखती है और अपने तर्कों से रतनसेन को अपनी बात मानने को मज़बूर कर देती है. उसके रणकौशल का मज़मून तब भी नज़र आता है जब वह खिलजी के आँगन से अपने पति को छुड़ा लाती है.

खिलजी जितनी कोशिशें करता है कि वह पद्मावती को पाए, वह उतनी ही चतुराई से उससे निबटती चली जाती है. वह चतुर स्त्री ऐतिहासिक-फिक्शन पृष्ठभूमि पर बनी कई हॉलीवुड-बॉलीवुड फिल्मों की नायिकाओं से ज्यादा सशक्त है. वह न तो ट्रॉय की हेलेन की तरह पीछे छिपती फिरती है, न ही थ्री हंड्रेड की रानी की मानिंद अपने आप को वस्तु रूप में सौंपती है.

इस भूमिका को निभाते हुए दीपिका अभिनय के कुछ नए आयामों को छूती है. राजा रतनसेन के तौर पर शाहिद बेइंतहा शानदार नज़र आते हैं. उन्हें देखते हुए न जाने क्यों ट्रॉय फिल्म के प्रिंस हेक्टर की याद आ गयी.

वहशी अलाउद्दीन की भूमिका निभा रहे रणवीर सिंह अपने अभिनय में इतना घुस जाते हैं कि यह कल्पना करना मुश्किल हो जाता है कि कभी इस अभिनेता ने प्रेमी का सहज रूप भी निभाया था.

मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य से प्रेरणा लेता हुआ संजय लीला भंसाली का पद्मावत आख्यान काव्य की भांति ही फिल्म में पद्मावती का जौहर दिखाता है, मगर इस जौहर का कहीं भी महिमामंडान नहीं किया गया है. हाँ, एक फ्लीटिंग डायलॉग में एक मुंह लगी दासी ज़रूर जौहर का नाम लेती है मगर रतनसेन के जनानखाने का वह दृश्य जनानखाने के अन्दर के लोकतंत्र का बेहद खूबसूरत नमूना था. इस दृश्य में रतनसेन की पहली पत्नी अपने पति की गिरफ़्तारी का दोष पद्मावती को देती है, मगर अन्तःपुर की अन्य स्त्रियों के स्वर मज़बूत होते हैं कि किसी भी स्त्री को बुरी नज़र से देखने पर स्त्री की नहीं, उसी बुरी नज़र वाले की गलती होती है.

रही बात मनुष्यों को सामान के रूप में देखने-परखने की तो इस बात का ख़याल रखना अति-आवश्यक है कि इस फिल्म का कथानक गुलाम वंश (इतिहास के अनुसार) के इर्द-गिर्द घूमता है जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों समान रूप से चीज़ों की तरह ख़रीदे और बेचे जाते थे.

अलाउद्दीन के ग़ुलाम मलिक-कफूर का होना इस बात की पुष्टि करता है. यह अलग बात है कि फिल्म में मलिक काफूर महज़ एक ग़ुलाम नहीं है, वह उस कोल्ड-ब्लडेड खलनायक की तरह नज़र आता है जो एक-एक करके उन सभी को अपने और खिलजी के बीच में से हटाता चला जाता है जिसमें भी उसे प्रतिद्वंदिता नज़र आती है, चाहे वह खिलजी की पत्नी मेहरुन्निसा हो या फिर पद्मावती.

एक और चीज़ जो नज़र आती है वह यह है कि इस फिल्म के आखिर में रानी के साथ खूब सारी स्त्रियाँ होती तो हैं मगर जौहरकुंड में सिर्फ रानी पद्मावती प्रवेश करती दिखती है. हो सकता है स्त्री-विमर्श के मद्देनज़र भंसाली ने कथानक का मूल अंत थोड़ा बदला हो जो कि वर्तमान परिवेश को देखते हुए उचित भी है. यहीं पर हथियार गिराता खिलजी भी दिखता है. फिल्म का यह अंत एक आम दर्शक के मन में अजीब विरोधाभास पैदा करता है. कहानी का वह दुखद अंत जहाँ सभी अच्छे पात्र मारे जाते हैं, कहानी का वह सुखद अंत जहाँ सारे अच्छे पात्र किसी न किसी तरह से खलनायक की बेजा चाहत को हरा देते हैं और फिर वह खलनायक, जो जीत कर भी हार जाता है.

फिल्म के इस बिंदु पर देवदास और रामलीला जैसी फ़िल्में बनाने वाले संजय लीला भसाली कहीं खो जाते हैं. जो नज़र आता है वह है ब्लैक का सधा हुआ निर्देशक.

तकरीबन तीन घंटे लम्बी यह फिल्म शुरू से अंत तक विरोधाभासों के बावज़ूद बाँधे रखती है. अमीर खुसरो की रुबाइयों से सजी हुई एक खूबसूरत स्क्रिप्ट को बेहद अच्छे डायलॉग, उम्दा अदाकारी और सधे हुए निर्देशन का साथ मिला है. समय और परिस्थिति के लिहाज़ से संगीत और मेकअप भंसाली मार्का हैं ही.

इस फिल्म को देखते वक़्त यह ख़याल रखना ज़रूरी है कि यह फिल्म एक काल्पनिक काव्य-गाथा पर बनी है और लगभग उसी के अनुसार इसके दृश्यों का फिल्मांकन हुआ है. उस काव्य-गाथ से लुका छिपी खेलते हुए भी एक कलात्मक प्रस्तुति के तौर फिल्म निराश नहीं करती है. बहरहाल इस फिल्म को देखते हुए मैं बार-बार उन दृश्यों की प्रतीक्षा कर रही थी जिसकी वज़ह से इसका दक्षिण और वाम, दोनों खेमों के द्वारा विरोध किया जा रहा था, मगर उस हिसाब से मुझे निराशा ही हाथ लगी.

पद्मावत न तो करणी सेना के अफवाहों के जैसी है, न ही वजाइना सेंट्रिक विमर्शकारियों की चिंता को बल देती है. न पूरी फिल्म में खिलजी को कहीं पद्मावती मिलती है, न ही जौहर को सराहा गया है. फिल्म का आखिरी दृश्य मूल कथा का वह कथोचित दुखद फिल्मांकन है जिसमें रानी की वह ज़िद जीतती है कि वह अलाउद्दीन के बेजा हठ को जीतने नहीं देगी. गौर करने वाली बात यह है कि पद्मावत में विशेष रूप से उल्लेखित वीर ‘बादल’ की माँ विधवा होती है. खैर, पद्मावत एक काल्पनिक मानी जाने कहानी पर बनी फिल्म है और अपने गल्प के साथ ख़त्म हो जाती है. इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए.

 

 
      

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