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रहस्य-अपराध की दुनिया और हिन्दी जगत का औपनिवेशिक दौर

इतिहासकर अविनाश कुमार का यह लेख हिंदी के लोकप्रिय परिदृश्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का बहुत बढ़िया आकलन है. अविनाश जी ने बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दो दशकों के हिंदी साहित्य के सार्वजनिक परिदृश्य विषय पर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से पीएचडी की थी. डेवलपमेंट के क्षेत्र में बरसों से काम कर रहे हैं और देश विदेश के प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में अंग्रेजी में लिखते रहते हैं. यह लेख उन्होंने मूलतः हिंदी में ही लिखा है- मॉडरेटर

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श्रीलाल शुक्ल की क्लासिक कृति ‘राग दरबारी’ में शिवपालगंज गांव के थाने का जिक्र कुछ यूँ है:

 ‘यहां बैठकर अगर कोई चारों और निगाह दौड़ाता तो उसे मालूम होता, वह इतिहास के किसी कोने में खड़ा है। अभी इस थाने के लिए फाउंटेनपेन नहीं बना था, उस दिशा में कुल इतनी तरक्की हुई थी कि कलम सरकण्डे का नही था. यहां के लिए अभी टेलीफ़ोन की ईज़ाद नहीं हुई थी. हथियारों में कुछ प्राचीन राइफलें थीं, जो लगता था, ग़दर के दिनों में इस्तेमाल हुई होंगी……. थाने के अंदर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फ़ेंक दिया है. अगर उसने अमरीकी जासूसी उपन्यास पढ़े हों, तो वह बिलबिलाकर देखना चाहता कि उँगलियों का निशान देखनेवाले शीशे, कैमरे, वायरलेस लगी हुई गाड़ियां—-ये सब कहाँ हैं? बदले में उसे सिर्फ वह दिखता जिसका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है’. (पृ. १३-१४, राग दरबारी, पेपरबैक, २०१६)

‘राग दरबारी’ १९६८ में प्रकाशित हुई थी और हालिया आज़ाद हुए भारत की तस्वीर बयान करने का प्रयास कर रही थी. वह भारत जो नेहरू की आधुनिकता से प्रेरित हो कर पश्चिम की व्यक्तिवादी आधुनिकता से संवाद भी कर रहा था और उससे कहीं प्रेरणा लेकर उस नक़्शे कदम पर चलने की कोशिश भी. पर राग दरबारी इसी को विद्रूप में बदल देता है. एक ऐसा समाज जो सदियों से पारंपरिक रूढ़ियों में जकड़ा, गरीबी और शोषण का कैरीकेचर है, उसमे राज्य द्वारा आयातित आधुनिकता की गुंजाईश भी नहीं रह जाती. आधुनिकता की इस परिभाषा में राज्य का एक अंग, पुलिस थाना जिसे उस नयी आधुनिकता का संवाहक होना था, कहीं भी खरा नहीं उतरता. और यह मात्र भौतिक परिभाषा तक नहीं सीमित रह जाता, बल्कि इसके मूल में एक आधुनिक समाज के उस व्यक्ति की आकांक्षाएं हैं, जो अपनी व्यक्ति होने की पहचान, तर्क और विज्ञान के औज़ारों से लैस होकर उस नए भारत का हिस्सा बनना चाहता है. इस उत्तरी भारत में अपराध तो हैं, पर एक वैज्ञानिक पहेली की तरह नहीं, बल्कि ऐसे अपराध जिनके रहस्य सबके सामने खुले हुए हैं और उन अपराधों से निबटने के संस्थागत हथियार उन्ही देसी सन्दर्भों से निकले हैं,

पर इन सबके बावजूद यह दिलचस्प है कि रहस्य और जासूसी उपन्यासों की विधा जब १९वी सदी  के आखरी दशकों में हिंदी में बराए बांगला उपन्यासों के आयी तो ऐसी लोकप्रिय हुई कि वह साहित्य के अंडरवर्ल्ड तक सीमित नहीं रह गयी, बल्कि कई लेखकों ने इसके माध्यम से न सिर्फ अकूत संपत्ति अर्जित की, उनमें से कइयों को सांस्थानिक वैधता भी मिली. वह भी एक ऐसे दौर में, जब महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल जैसे लोग ‘साहित्य’ की परिभाषा गढ़ रहे थे. पर इस मुद्दे पर आने से पहले रहस्य और अपराध का जो साहित्य हिंदी में निकल कर आया उसके कुछ मुख्य लक्षणों पर ध्यान देना ज़रूरी है.

हिंदी अपराध और जासूसी साहित्य बंगला से अनूदित हो कर या सीधे अंग्रेजी उपन्यासों से प्रेरणा ले कर उत्तर भारत में तो आया पर बड़ी समस्या इस के साथ यह थी कि इन उपन्यासों में न शरलॉक होल्म्स के आधुनिक लन्दन का और न ही, कलकत्ता महानगरी के पंचकौरी दे के ट्रामों, विशाल अट्टालिकाओं, अंग्रेजी पढ़े लिखे जासूसों, इंस्पेक्टरों का संसार था. ऐसा नहीं की डब्लू. ई. एम्. रेनॉल्ड्स का अनूदित ‘लन्दन रहस्य’ या पँचकौड़ी दे के अनूदित उपन्यास पढ़े नहीं गए, बल्कि वो लोकप्रिय भी बहुत हुए. पर जब तथाकथित रूप से ‘मूल’ जासूसी उपन्यासों को रचने की बात आई तो उसके मॉडल्स अपने सन्दर्भों में गढे जाने की ज़रूरत पड़ना लाज़मी था.

मुख्यतः तीन उपन्यासकारों के माध्यम से यह थोड़ा साफ़ करने की ज़रुरत पड़ेगी। पहले तो देवकीनंदन खत्री जिनकी चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता संतति आज भी हिंदी पाठकों के एक बड़े भूभाग में पढ़ी जाती है. इसके नायक कोई अंग्रेजी पढ़े लिखे सूट पहनने वाले, शहरों में घूमने वाले जासूस नहीं थे, बल्कि महलों और किलों में रहने वाले राजकुमार, जमींदार, उच्च जाति के वीर बहादुर नायक थे. वे चुनार की जंगली पहाड़ियों, गुफाओं और कंदराओं, पहेली भरी सुरंगों और बागीचों में निरंतर भटकने वाले प्रेमी थे, अपनी रहस्यमयी, सुंदरी प्रेमिकाओं की तलाश में. यहाँ अगाथा क्रिस्टी की दुनिया की पहेलियां नहीं थीं, जिन्हें आप कड़ी दर कड़ी सुलझाते जाएँ, वह लेखिका द्वारा छोड़े गए साधारण से लगने वाले सुरागों के माध्यम से नहीं बल्कि फ़ारसी और संस्कृत की पुरानी ‘’दास्तानो’ और आख्यानों की परम्पराओं में गूँथी गयी कई कहानियों की लड़ियाँ थीं. हाँ, पहेली और रहस्य दोनों जगह थे, पर उनकी भौगोलिक पृष्ठभूमि भी बिलकुल अलग और उनकी संरचना भी अलग. यहाँ जासूस नहीं, फिर पुरानी परम्पराओं से पुनराविष्कृत áऐयार थे, जो पश्चिमी जासूसों की तरह खुद नायक नहीं थे, पर उनके सहयोगी थे. हाँ, उनके करतब, जैसे भेष बदल लेना, नकाबपोश बन कर अंधेरों में भटकना, कहीँ भी जब चाहे प्रगट हो जाना, कई तरह के औजारों का आविष्कार कर उनका चमत्कारी इस्तेमाल कर लेना (भले ही इन्हें तर्क के आधार पर दूर तक समझाया न जा सके), उन्हें नायकों से श्रेष्ठ साबित करता था. अधिकांश कहानियों का आधार संपत्ति की लड़ाई, राज्यों की लड़ाई थी. फ्रांचेस्का ओर्सीनी ने अपने एक निबंध में इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि किस तरह बदलते औपनिवेशिक क़ानून के सन्दर्भ में पुरानी पितृसत्तात्मक व्यवस्था एक संकट महसूस कर रही थी, खास कर परिवार में स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार दिए जाने के मसले को लेकर. अधिकांश उपन्यास स्त्री पात्रों के अपहरण या उनकी हत्या की बुनियाद पर बने दिखलाई पड़ते हैं. खत्री की परंपरा में कई उपन्यासकार आगे आये, यहाँ तक कि उनके बेटे दुर्गा प्रसाद खत्री ने उसी श्रंखला को बढ़ाते हुए ‘भूतनाथ ‘श्रंखला की लंबी क़तार खड़ी  की.

एक मिली-जुली पर दूसरी परंपरा किशोरीलाल गोस्वामी के उपन्यासों में मिलती है, जिन्होंने पहले सीधे बंगला से अनुवाद, फिर हिंदी में रहस्य रोमांच भरे ऐतिहासिक उपन्यासों की एक लंबी कड़ी खड़ी की, जिनमें कई तो ऐतिहासिक पात्र थे और कई लेखक की अपनी कल्पना से उपजे हुए. यहाँ भी महलों का षड़यंत्र, प्रेमचंद की भाषा में कहें तो ‘वही कील कांटे’ जहाँ नवाब अपनी कारस्तानियां कर रहे थे, गुप्तचर अपनी. इनमें  कई जगह पर ‘सेक्स और व्यभिचार का तड़का भी लगा होता था, भले ही वह सब एक महान सामाजिक ‘राष्ट्रीय उद्देश्य के नाम पर हो रहा हो. यहाँ भी उपन्यास की सरंचना इस तरह बुनी जा रही थी कि घटना दर घटना किसी रहस्य का आवरण बना रहे और घटना दर घटना उसकी परतें खुलती जाएँ। पुरानी दास्तानों और पुराने आख्यानों की परंपरा में एडवेंचर तो था, अनूठी, अजब-गजब की कल्पनाएं तो थीं पर अक्सर किसी एक रहस्य के गिर्द बना घटनाक्रम था जो मानवीय आकांक्षाओं, षड्यंत्रों की बुनियाद पर बना हो. दूसरी ओर, इन ऐतिहासिक षड्यंत्र भरे उपन्यासों के माध्यम से भारतीय इतिहास की एक ‘हिन्दू परिभाषा भी गढ़ी जा रही थी जिनमे नायक अक्सर वीर हिन्दू और खलनायक अक्सर क्रूर मुसलमान पात्र होते थे. ख़ुद गोस्वामी के मुताबिक़, ‘मुसलमान सरीखे कट्टर धर्माग्रही विजिट आर्यों के सच्चे  गुणों या मान मर्यादा की क़द्र ही क्या कर सकते थे?….इसीलिए हमने  अपने बनाये उपन्यास में ऐतिहासिक  घटना को ‘गौण’ और अपनी कल्पना  को ‘मुख्य’ रखा है. और कहीं कहीं तो कल्पना के आगे इतिहास को दूर ही से नमस्कार भी कर लिया है.’ (गोस्वामी के उपन्यास ‘तारा’ की भूमिका से उद्धृत). ऐसा नहीं है कि इसका विरोध नहीं हो रहा था. बालमुकुंद गुप्त ने तब के प्रमुख पत्र ‘भारतमित्र’ में १९०३ में काशी नगरी प्रचारिणी सभा को सीधा पत्र लिखते हुए अपील की थी कि ‘’यदि सचमुच वह हिंदी की उन्नति चाहती है तो सबसे पहले ‘तारा’पढ़े और गोस्वामी जी को उनकी पुस्तक के गुण दोष को समझावे कि वह  कैसा गन्दा और भयानक कार्य कर रहे हैं.’ पर इन सबके बावजूद दिलचस्प यह है कि गोस्वामी के ऐतिहासिक उपन्यास, रहस्य-रोमांच, गुप्तचरी जैसे कई औजारों का सहारा लेते हुए इतिहास और रहस्य की एक ऐसी मिली जुली विधा को गढ़ रहे थे जो भारत के नए हिन्दू इतिहास को भी गढ़ रही थी और साथ ही उनके पाठकों को एक नए क़िस्म के रसास्वादन का आनंद भी दे रही थी.

गोपालराम गहमरी एक तीसरी परंपरा की बुनियाद रख रहे थे, वह थी सीधे अंग्रेजी और बंगला से आयातित ‘डिटेक्टिव या जासूस को हिंदी क्षेत्र में गढ़ने की कोशिश. १९०० में उन्होंने ‘जासूस’ नाम की पत्रिका की शुरुआत की जो लगभग १९४० तक चलती रही. सैकड़ों उपन्यासों के अनुवाद या, हिन्दीकरण या उनसे प्रेरित हो कर ‘मूल उपन्यासों के द्वारा वह क्लासिक अंग्रेजी डिटेक्टिव नॉविल की विधा को हिंदी में लाने की कोशिश कर रहे थे. पर समस्या यहाँ भी वही थी, जहाँ उनके जासूस मुग़लसराय से भटकते हुए सीधे बम्बई या कलकत्ता की सड़कों पर जाने को विवश हो जाते थे, क्योंकि औपनिवेशिक आधुनिकता का संसार तो वहीँ था. पर उनके उपन्यास, जैसे ‘अजीब लाश’, ‘खूनी कौन है’ या फिर ‘गाडी में खून’ बेहद लोकप्रिय रहे. दूसरी ओर, वह श्यामसुंदर दास द्वारा लिखित ‘हिंदी के निर्माता’ श्रंखला में भी सम्मान से नवाज़े गए, तत्कालीन हिंदी की बहसों जैसे कि ब्रज भाषा बनाम खड़ी बोली जैसे विषयों पर उन्होंने सक्रिय हिस्सा भी लिया.

गोकि इस बात पर विचार करना दिलचस्प होगा कि एक बिलकुल नयी विधा ने कैसे इतनी जल्दी भारतीय जन मानस में अपनी जड़ें जमा ली, यह जानना भी उतना ही दिलचस्प है कि इस विधा के मुख्य औजार, जैसे, अपराध, षड़यंत्र, हत्या, सेक्स, व्यभिचार, किसी न किसी रूप में कई अन्य विधाओं में भी शामिल किये जा रहे थे और कहीं ज्यादा सम्मान के साथ. ‘चाँद’ पत्रिका का ‘’फांसी अंक’’ इसका एक बढ़िया उदाहरण है. इस अंक के छपने से पहले ही इसकी इतनी चर्चा हो चुकी थी कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था और उसके बावजूद यह एक ‘बेस्टसेलर बन गयी थी. भारतीय क्रांतिकारियों की जीवनी पर आधारित इस अंक में (जिसके कई अंश भगत सिंह ने छद्मनाम से लिखे थे जो उन दिनों अज्ञातवास में रह रहे थे), क्रांतिकारियों की ज़िन्दगी के पन्ने एडवेंचर दर एडवेंचर, ब्रिटिश राज के खिलाफ उनके गुप्त षड़यंत्र, उनके भागते छिपते रहने की अनूठी दास्तान पाठक को फिर उसी रहस्य और रोमांच की दुनिया में ले जा रहे थे, जहाँ कि पहले के वर्णित उपन्यास, पर इस बार बिना किसी भय के कि उन पर ‘सस्ता या ‘गुप्त साहित्य पढ़ने का इल्जाम लगेगा. ‘फांसी अंक’ की सरकार द्वारा जब्ती के आदेश बावजूद उसकी १५००० प्रतियां आधिकारिक तौर से बिक चुकीं थीं. आचार्य चतुरसेन, जो उस अंक के संपादक थे, के अनुसार, ‘ रामरखसिंह सहगल’ (प्रकाशक) की मेज़ पर पैसा बरस रहा  था.’ उन क्रांतिकारियों के संस्मरण, आत्मकथाएं, (जिनमे उस दौर के क्रांतिकारी जैसे अम्बा प्रसाद सूफ़ी, करतार सिंह सराभा वग़ैरह की जीवनियाँ भी एक ‘थ्रिलर’ के अंदाज़ में लिखीं गयीं थीं), भी अक्सर रस लेकर उसी दृष्टिकोण से पढ़ी जाती रही जैसे कि जासूसी उपन्यास. इस विधा की आज तक याद की जाने वाली एक कृति है ‘लाल रेखा’ जो कुशवाहा कान्त द्वारा लिखी गयी थी और १९५२ में प्रकाशित हुई थी, आज़ादी के मात्र पांच सालों बाद. क्रांतिकारी षड़यंत्र, गुप्तचरी और ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ लड़ाई की पृष्ठभूमि में लिखा गया यह उपन्यास एक रोमांटिक उपन्यास के बतौर भी उतना ही सफल रहा था.

एक दिलचस्प पहलू इस विधा का था, उसमें नाटकीयता का अत्यधिक प्रभाव। पारसी थिएटर की अत्यधिक लोकप्रियता जो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से शुरू हुई थी और जिसे हिंदी में राधेश्याम कथावाचक और नारायण प्रसाद बेताब ने बीसवीं सदी में लोकप्रियता की बुलंदियों तक पहुँचाया, (इससे पहले कि टाकी सिनेमा ने उनकी जगह ले ली) इन उपन्यासों में भी भरपूर में दिखलाई पड़ती है. नायकों-खलनायकों का स्वगत भाषण, लच्छेदार ज़ुबान का प्रयोग, घटनाक्रम का फॉर्म जैसे वह किसी स्टेज पर खेला जा रहा हो, ऐसे कई औज़ारों का इस्तेमाल यह विधा कर रही थी.

पारसी थिएटर की इस परंपरा से एक और नाम आता है हरेकृष्ण जौहर का. इनका करियर ग्राफ़ बड़ा ही दिलचस्प है. वह इस में कि कैसे उस वक़्त लेखक एक विधा से दूसरी में बिना किसी प्रयास के शामिल हो थे बल्कि इसलिए भी कि उच्च साहित्यिकता बनाम लोकप्रिय साहित्यिकता की तमाम सीढ़ियों पर भी वो उसी आसानी से चढ़ उतर रहे थे. एक और तो जौहर ‘हिंदी बंगवासी’ और ‘श्री वेंकटेश्वर समाचार’ जैसे प्रमुख हिंदी पत्रों के संपादक भी रहे तो दूसरी ओर पारसी नाटकों में उर्दू की जगह हिंदी शब्दावली के माध्यम से नए अत्यंत लोकप्रिय नाटकों का लेखन भी उन्होंने किया. तीसरी ओर, ‘भूतों का मकान’ और ‘नर पिशाच’ जैसे रहस्य और रोमांचकारी उपन्यासों का लेखन भी. साथ ही ‘श्रीमदभागवत’ और अनेक पुराणों का अनुवाद भी किया. इन सबके बावजूद वह हिंदी की ‘साहित्यिक शुद्धता’ के चल रहे आंदोलन में भी उतने ही सक्रिय रहे.

पर उन्ही दशकों में जब इस विधा ने लोकप्रियता की ऊंचाइयां छुईं, उर्दू और हिंदी में ‘राष्ट्रीय सुधारवाद और सामाजिक सोद्देश्यता का नया सौंदर्य शास्त्र तैयार हो रहा था. अल्ताफ हुसैन हाली  ने उर्दू में, फिर पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और फिर रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी इसकी वो ज़मीन तैयार की जिसकी कसौटी पर वही विधाएं खरी उतरीं जिनकी ‘’उपयोगिता’ देश और समाज के लिए थी. इस सौंदर्य शास्त्र में जहाँ कविता में रीति काव्य पर आक्रमण हुए, वहीँ,  द्विवेदी जैसों ने तो पहले úपन्यास को एक विधा के तौर पर ही बहुत ‘’संदेह से देखना शुरू किया’. उनके मुताबिक़ इस विधा में ही वो खामियां थीं जो किसी समाज के काम आने लायक नहीं थी. द्विवेदी इस मुहिम में अकेले नहीं थे. १८९९ में ‘हिंदी प्रदीप’ में प्रकाशित अपने एक लेख ‘हिंदी उपन्यास लेखकों को उलाहना’ में काशी प्रसाद जायसवाल ने यह कहा: ‘‘सम्प्रति हिंदी में उपन्यासों की बड़ी भरती देख पड़ती है. इनमे से अधिकाँश बंग भाषा के अनुवाद हैं. हिंदी में मूल उपन्यासों की गणना बहुत थोड़ी है बल्कि यों कहा जाय की मूल उपन्यास का अभाव है तो फब सकता है. उन अनुवादित उपन्यासों में भी कुछ तो ऐसे हैं कि इनका गंगाजी में प्रवाह कर देना ही प्रेय है. केवल नागरी अक्षरों में कोई उपन्यास (या कोई पुस्तक) लिखे जाने से वह ‘हिंदी उपन्यास’ या ‘हिंदी पुस्तक’ नहीं कहा जा सकता’’.

कहा जाय तो, प्रेमचंद और उनकी धारा के आने के बाद उपन्यास की बतौर एक ‘साहित्यिक विधा’ की प्राण प्रतिष्ठा तो हुई पर ‘सस्ता साहित्य बनाम उच्च साहित्य’ के पैमाने भी ज्यादा रूढ़ होने लगे. पर उससे पहले एक लंबा दौर वैसा था जब एक ओर तो ऐसी विधा में लिखने वाले लेखक साहित्य की सांस्थानिक गतिविधियों में भी उतने ही सक्रिय थे जितने कि ‘श्रेष्ठ’ साहित्य के पैरोकार, दूसरी ओर खुद उन उप-विधाओं में इस्तेमाल किये जाने वाले औज़ारों को उतना अलगाया नहीं गया था कि उनके आधार पर कोई सीधी रेखा खींची जा सके. ज़ाहिर है जहाँ जासूसी या रहस्य-रोमांच वाली विधा के उपन्यास भी राष्ट्रीयता, वीरता, सामाजिक सोद्देश्यता की बात कर रहे थे तो दूसरी ओर ऐतिहासिक उपन्यास और क्रांतिकारी साहित्य, जासूसी विधा से उसकी तकनीक को अपने भीतर शामिल कर रहे थे. मुझे लगता है कि यदि ‘ग़बन’ को भी हम देखें तो प्रेमचंद एक ‘अपराध कथा’ को ही कच्चे रूप में ले कर उसका ‘ट्रीटमेंट’ ऐसे करते हैं कि वह उनके अन्य मुख्य धारा के उपन्यासों से इसी मायने में अलग ठहरता है.

पर ‘सामाजिक सोद्देश्यता’ का साहित्यिक वर्चस्व समय का तक़ाज़ा था और इस प्रक्रिया में क़तर ब्योन्त भी होनी थी. उसका सौंदर्य शास्त्र उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई में कैसे इस्तेमाल हो, इसकी परिभाषा कई संस्थान तय कर रहे थे. हिंदी के साहित्यिक संस्थान जैसे हिंदी साहित्य सम्मलेन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, साहित्य के इन पैमानों को संस्थाबद्ध रूप से विश्वविद्यालयों में स्थापित भी कर रहे थे. फ्रेंच समाजशास्त्री पियर बोर्दू ने इस प्रक्रिया को ‘सांस्कृतिक उत्पादन की ज़मीन’ पर निरंतर चलने वाली लड़ाई के रूप में भी देखा है, जहाँ, आर्थिक रूप से जो विधा जितनी कम बिकती है, सान्स्कृतिक रूप से उसे विधाओं की श्रेणीबद्ध हायरार्की में उतना ही ऊंचा स्थान दिया जाता है, इस तरह कविता उपन्यास से ऊपर ठहरती है. और उपन्यास में वो उप-विधा जो ज्यादा लोकरन्जक साबित होती है, वह सांस्कृतिक सम्मान की सीढ़ी पर गंभीर उपन्यास से नीचे ठहरती है. पर बोर्दू का समीकरण इतना सरल भी नहीं। वह लगातार इनके भीतर चलने वाले संघर्षों, सामाजिक-ऐतिहासिक सन्दर्भों और लेन-देन की भूमिका पर भी विचार करते हैं. औपनिवेशिक उत्तर भारत के लगातार बदलते सन्दर्भ ने जहाँ जासूसी उपन्यासों को एक दूसरा ही रूप लेने पर विवश किया तो दूसरी ओर, बोर्दू के समीकरण में उन्हें धीरे धीरे नीचा स्थान तो प्राप्त हुआ, पर एक लंबी लड़ाई के बाद ही और उसके बावजूद भी, इन उपन्यासों के कई पहलू तथाकथित अभिजात साहित्य के जाने अनजाने अभिन्न अंग साबित हुए.

 

 
      

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