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चिनार पत्तों पर जख़्मों की नक्काशी

गौतम राजऋषि के कहानी संग्रह ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ पर कल यतीन्द्र मिश्र जी ने इतना आत्मीय लिखा कि उसको साझा करने से रोक नहीं पाया. ऐसा आत्मीय गद्य आजकल पढने को कम मिलता है- मॉडरेटर

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कर्नल गौतम राजऋषि की किताब ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ एक अदभुत पाठकीय अनुभव है। एक ऐसी दुनिया को नजदीक से, रिश्तों और भावनाओं की गहरी घाटियों में उतरकर देख लेने की कोशिश, जो अमूमन फौजियों के जीवन से वंचित पायी जाती है। यह माना जाता है कि फौजियों का जीवन नीरस, शुष्क और सरहद पर लड़ते रहने के अलावा, जीवन की सूक्ष्मतम संवेदनाओं का मानवीय अर्थों में अनुवाद करना नहीं जानता। मगर जब आप इस किताब से होकर गुजरते हैं, तो आप वैसे कतई नहीं रहते, जैसा कि १४४ पृष्ठों वाले इस संग्रह की २१ छोटी-छोटी कहानियों से गुजरकर हो जाते हैं। गौतम राजऋषि अपने फ़ौजी होने को यहाँ अपने लेखक होने के चेहरे के पीछे छुपाते हैं, जिनका खुद का किरदार बड़ा दिलचस्प और ‘पाल ले एक रोग नादाँ’ जैसे ग़ज़लों के शायर के रूप में भी रचा गया है। वे अपनी बन्दूक से निकली गोली से किसी को हताहत नहीं करते, बल्कि उसे परे धरकर अपने कलम के अचूक निशाने से निब के चीरे पर दिल को करीब से चीरते हुए बाहर निकल जाते हैं।

सैनिकों और आम नागरिक के बीच के अंतर्विरोधों को लगभग टटोलती सी इन कहानियों को पढ़ते हुए फौजियों और सेना के ब्यौरे, उनकी बातचीत और जीवन का कहन, रिश्तों को पीछे छोड़ आने की मजबूरी और उसी के साथ-साथ अपने कर्त्तव्य पर टिके रहने की एक अघोषित किन्तु ईमानदार कोशिश को ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ में चप्पे-चप्पे पर पढ़ा जा सकता है। इस किताब को जितना भी आप उलट-पुलट कर पढ़ें, उतनी बार वह कुछ सार्थक, कुछ अधिक अर्थपूर्ण, कुछ खुलता सा जाता है।

गौतम राजऋषि इन लगभग हर कहानियों में सिनेमाई पटकथाओं के चुस्त और कुशल सम्पादक की मानिन्द खड़े नज़र आते हैं, जिन्होंने कहानी में बयान की संक्षिप्ति को नैरेटिव के साथ गजब ढंग से साधा है। इस काम में उनके लेखक द्वारा भावनावों की तीव्रता को उतने ही संक्षेप और गहराई से महसूस कराया गया है, जिससे गुज़रकर आपके मुँह से सिर्फ़ ‘वाह’ या ‘ओह’ निकल जाये। यहाँ फौजियों की समस्याओं और उनके जीवन में आने वाली कठिनाईयों के साथ-साथ पानी, झरने, पत्तों, चिनार, बर्फीली वादियों, झेलम और पड़ोसी मुल्क की नदी नीलम और ठिठुरती रातों में बार में बैठे हुए अपने-अपने रिश्तों को याद करते हुए फौजियों के मानवीय चरित्र, लगभग हर चीज एक किरदार की तरह आए हैं। मुझे मालूम नहीं कि फौजियों की जीवन पर कभी मैंने सहयात्री की तरह इतने सूक्ष्म ब्यौरों के साथ ढेरों कहानियों को एक ही जिल्द में कहीं पढ़ा होगा। फौजियों का आपसी व्यवहार में एक-दूसरे को ‘बे’ कहकर सम्बोधित करना इन कहानियों में इतने मनुहार, इतने रूमान और इतनी गर्मजोशी से भरा होगा, पहले कभी महसूस ही नहीं हुआ। कुछ-कुछ वो बात याद आ गयी, जब एक फ़िल्म गीत के लिए आर. डी. बर्मन और गुलज़ार आपस में इसलिए झगड़ पड़े थे कि उसमें एक शब्द ‘बदमाशियों’ आता है। ‘बदमाशियों’ को गीत से पंचम हटाना चाहते थे, जो गीत की खूबसूरती को उनके अनुसार बाधित कर रहा था। यह तो भला हो लता जी का, जिन्होंने इस शब्द को ही इतने उन्मुक्त और सुन्दर भाव से गाकर यह टिप्पणी की कि ‘इस शब्द ने ही गाने को सुन्दर बनाया है।’ (सन्दर्भ – फ़िल्म : घर, गीत : आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज हैं) इस किताब में यहाँ ‘बे’ भी कुछ ऐसा ही असर लेकर आता है, जब बॉस अपने मातहत से और दो फ़ौजी आपस में दोस्ती निभाते वक्त सम्बोधन का एक अलग ही आत्मीय चेहरा रचते हैं।

गौतम राजऋषि की तारीफ भी इसलिए अलग से की जानी चाहिए कि उन्होंने जीवन में छूटती जा रही खामोशी में बेवजह तिरती जा रही हँसी और हँसी में अचानक ही मिल जाने वाली प्यार भरी यादों को निशानियों की तरह बटोरते हुए ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ बनाया है। एक ऐसी समावेशी मुस्कुराहट, जो वादियों में गूंजती हुयी दूर मैदानी इलाकों में भी उतनी ही प्रेमभरी तड़प के साथ सुनी जा सकती है।

मान गए उस्ताद! कैसे आप ‘गर्लफ्रेंड्स’ में मेजर प्रत्यूष वत्स, ‘एक तो सजन मेरे पास नहीं रे’ में रेहाना, ‘बर्थ नंबर ३’ में मेजर सुदेश सिंह, ‘बार इज़ क्लोज्ड ऑन ट्यूसडे’ में सुरेश कचरू, ‘गेट द गर्ल’ में लेफ्टिनेंट पंकज और ‘हेडलाइन’ में नौजवान मेजर की कहानियाँ कह पाए हैं। यह किताब हर उस लेखक को भी ज़रूर पढ़नी चाहिए, जो अपनी कलम से किसी तरह की नयी आहट को अंजाम देने का हसरत मन में पाले हुए है। लेखक अपनी रोशनाई से सरहद पर घटने वाली जीवन स्पन्दन की तमाम कहानियों को दस्तावेज़ की तरह लिख रहे हैं, जो निश्चित ही हिन्दी के लिए एक नयी आहट की तरह है।

बधाई कर्नल !

-यतीन्द्र मिश्र

 
      

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