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देवदत्त पटनायक की किताब ‘राम की गाथा’ का एक अंश

रामनवमी के अवसर पर देवदत्त पटनायक की किताब ‘राम की गाथा’ का एक अंश प्रस्तुत है. पेंगुइन बुक्स-मंजुल पब्लिशिंग से प्रकाशित यह किताब ‘द बुक ऑफ़ राम’ का हिंदी अनुवाद है. अनुवाद मैंने किया है- प्रभात रंजन

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एक न्यायप्रिय नायक

रामायण हिन्दू धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथों में एक है, जिसमें राम नामक राजकुमार की कहानी कही गयी है।

अयोध्या के राजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया और देवताओं का आह्वान किया, जिन्होंने उनको जादुई औषधि दी, उस औषधि को तीनों रानियों में बाँट दिया गया। समय के साथ रानियों ने चार पुत्रों को जन्म दिया। राम सबसे बड़े थे, जिनका जन्म सबसे बड़ी रानी कौशल्या से हुआ था, भरत दूसरे पुत्र थे जिनका जन्म दशरथ की प्रिय रानी कैकेयी से हुआ था तथा लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न तीसरी रानी सुमित्रा के जुड़वां बच्चे थे।

राम ने आरंभिक शिक्षा दीक्षा ऋषि वशिष्ठ की देखरेख में पूरी की। उसके बाद उनसे यह कहा गया कि वे ऋषि विश्वामित्र के आश्रम की राक्षसों से रक्षा करें। तदनुसार, वे ऋषि विश्वामित्र की देखरेख में जब तक रहे उन्होंने अनेक राक्षसों का वध किया जिसमें एक राक्षसी ताड़का भी थी। उनके कार्यों से खुश होकर विश्वामित्र ने उनको अनेक शक्तिशाली जादुई मन्त्रों की शिक्षा दी जो साधारण बाणों को अग्निबाणों में बदल देते थे।

उसके बाद विश्वामित्र राम को मिथिला लेकर गए जो विदेह राज्य की राजधानी थी। रास्ते में वे गौतम के आश्रम में गए, जिन्होंने अपनी पत्नी अहिल्या को पत्थर बन जाने का शाप दिया था। कारण यह था कि वह वफ़ादार नहीं रह गई थी। राम ने अपने पाँव उस पत्थर पर रख दिए, जो अहिल्या थी और वह तत्काल शाप से मुक्त हो गई, राम का चरित्र इतना शुद्ध था।

मिथिला में राम ने विदेहराज जनक द्वारा आयोजित किये गए स्वयंवर में हिस्सा लिया। उस नौजवान राजकुमार ने राजा की हिफ़ाजत में रखे शिव के शक्तिशाली धनुष को तोड़ दिया और अपनी ताकत के प्रदर्शन के द्वारा विवाह के लिए राजा जनक की बेटी सीता का हाथ जीत लिया। राजा जनक जब हल जोत रहे थे तो सीता धरती से प्रकट हुई थी और उसके बाद जनक ने उसका लालन-पालन अपनी बेटी के रूप में किया था।

जब राम अयोध्या लौटकर आये तो राजा दशरथ ने यह फैसला किया कि अब समय आ गया है कि राजगद्दी राम को देकर सांसारिक जीवन से संन्यास ले लिया जाए।

दुर्भाग्य से, राम के राज्याभिषेक से एक दिन पहले मंथरा नाम की दासी ने कैकेयी के दिमाग में इस राज्याभिषेक के खि़लाफ़ जहर भर दिया। उसके प्रभाव में आकर, कैकेयी ने यह मांग की कि उसके पति उसको वे दो वरदान दे दें जिसका वादा उन्होंने सालों पहले तब किया था कैकेयी ने युद्द में उनकी जान बचाई थी। उन्होंने पहला वर यह माँगा कि उनके पुत्र भरत को राजा बनाया जाए और दूसरा वर यह कि राम को चौदह साल का वनवास दिया जाए।

दशरथ वचनबद्ध थे इसलिए उन्होंने राम को बुलवाया और उनको हालात से अवगत करवाया। बिना किसी मलाल या अफ़सोस के राम ने सभी को हैरान करते हुए अपने राजसी वस्त्रों का त्याग कर दिया और सन्यासियों की तरह पेड़ों की छाल से बने वस्त्रों को पहनकर तथा केवल धनुष लेकर अयोध्या नगरी को छोड़ दिया।

विरोधों के बावजूद, राम की पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण उनके साथ जंगल के लिए चल पड़े; सीता इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने पति का साथ छोड़ने से इनकार कर दिया और लक्ष्मण इसलिए क्योंकि वे अपने भाई का वियोग नहीं सहन कर सकते थे।

तीनों को नगर छोड़ कर जाते हुए देखकर, अपने घर पर आई इस आपदा से व्याकुल होकर दशरथ का दिल इस कदर टूट गया कि उनका देहांत हो गया।

कैकेयी के लिए निराशा की बात यह भी रही कि उनके बेटे ने इस तरह छल से हासिल की गई राजगद्दी को लेने से इनकार कर दिया। भरत ने यह फैसला किया वह नगर द्वार के बाहर नंदीग्राम में रहेगा और राम के लौट आने तक राज-प्रतिनिधि के रूप में काम करेगा। उन्होंने राजगद्दी के ऊपर इस बात की उदघोषणा के लिए कि राम निर्विवाद राजा थे राम की खडाऊं रख दी।

जंगल में राम, लक्ष्मण और सीता प्रकृति की अनिश्चितताओं का सामना साहस के साथ करते रहे। घने जंगलों एवं ऊंचे पहाड़ों पर इधर से उधर भटकते हुए वे कहीं भी एक स्थान पर लम्बे समय तक टिक कर नहीं रहे। कई बार वे गुफाओं में रहते थे और कई बार उन्होंने पत्तों और टहनियों की मदद से अपने लिए कुटिया बनाई। अकसर उनको खुद को परेशान करने वाले राक्षसों से लड़ना पड़ता था और उनका सामना अत्रि और अगस्त्य जैसे साधुओं से हो जाता था जो उनको उपहार में ज्ञान का उपदेश देते थे। इस तरह तेरह साल गुजर गए।

वनवास के चौदहवें साल में शूर्पनखा नाम की एक स्त्री ने राम को जंगल में देखा। उनकी सुन्दरता से प्रभावित होकर उसने उनसे प्रेम करने की अपनी इच्छा खुलकर जाहिर की। राम ने बड़ी विनम्रता से यह कहते हुए उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि उनकी पहले से ही एक पत्नी है। लक्ष्मण ने भी यह कहते हुए उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि जीवन में उनकी बस एक ही ख्वाहिश है भाई और भाभी की सेवा करना।

शूर्पनखा ने खुद को ठुकराए जाने के लिए सीता को जिम्मेदार माना और उसको मारने की कोशिश भी की। सीता को बचाने के लिए लक्ष्मण दौड़े। अपनी तलवार से उन्होंने शूर्पनखा की नाक काट दी और उसको वहां से भगा दिया।

शूर्पनखा असल में एक राक्षसी थी जो भागती हुई अपने भाई रावण के पास गई जो राक्षसों का राजा था और जिसके दस सिर थे। जब राक्षस राज ने अपनी बहन के घायल चेहरे को देखा तो वह गुस्से में आ गया। उसने यह शपथ ली कि वह सीता का अपहरण करके और उसको अपने विशाल हरम का हिस्सा बनाकर राम को सबक सिखाएगा।

रावण के आदेश पर रूप् बदलने वाले राक्षस मारीच ने सोने के हिरण का रूप लिया।उसने सीता को प्रभावित कर लिया और सीता ने राम से यह विनती की कि वे जाएँ और उसको पकड़ कर लायें। राम उस हिरण का पीछा करते करते जंगल में काफी अंदर चले गए। जब उसको राम का चलाया हुआ बाण लगा तो वह हिरण राम की आवाज की इतनी अच्छी तरह नक़ल करते हुए मदद के लिए चिल्लाया कि सीता ने घबराकर लक्ष्मण को यह आदेश दिया कि वह राम की रक्षा के लिए जाएँ।

जब आसपास सीता की रक्षा के लिए कोई भी नहीं था तब रावण एक साधू के वेश में आया और उसने सीता से भोजन की मांग की। सीता ने घर में जो भी था उसको वह देने के लिए अपना हाथ कुटी से बाहर निकाला, उसने इस बात का ध्यान रखा कि वह उस रेखा को पार न कर पाए जो लक्ष्मण ने कुटिया के चारों तरफ खींच दी थी। लक्ष्मण ने कहा था कि जब तक वह उस रेखा के अंदर रहेगी तब तक वह राम के संरक्षण में रहेगी और इसलिए सुरक्षित रहेगी।

साधू को जिस तरह से भोजन दिया जा रहा था उस बात के ऊपर रावण ने झूठमूठ का गुस्सा दिखाया, जिससे मजबूर होकर सीता को बाहर आना पड़ा। रावण ने तुरंत अपना असली रूप दिखाया। उसने सीता को पकड़ा और अपने उड़न खटोले में बैठकर समुद्र पार के द्वीप राज्य लंका के लिए उड़ गया।

दोनों भाई मारीच का वध करने के बाद खाली कुटिया में लौट आये। पास में ही जटायु नामक गिद्ध गिरा हुआ था जो रावण के वाहन को रोकने की कोशिश में घातक रूप से घायल हो गया था। मरने से पहले जटायु ने राम से यह बताया कि रावण सीता को लेकर दक्षिण दिशा में कहीं गया है। अपनी प्रिया के दुर्भाग्य के बारे में सुनकर राम दर्द के मारे व्याकुल हो गए।

सीता को मुक्त करवाने का निश्चय करने के बाद राम और लक्ष्मण दक्षिण की तरफ निकल पड़े। उन्होंने भयानक दंडकारण्य को पार किया, विन्ध्य पर्वत को पार करके वे अंततः वानरों की भूमि किष्किन्धा पहुंचे, वहां उनकी भेंट सुग्रीव से हुई। वह एक वानर था जिसको एक ग़लतफ़हमी के कारण उसके भाई वानरराज बालि ने राज्य से निकाल बाहर कर दिया था।

राम और सुग्रीव में एक समझौता हुआः अगर राम ने बालि को हराने में मदद की तो सुग्रीव सीता को छुडाने में मदद करेगा। राम के सुझाव देने के बाद सुग्रीव ने बालि को आमने सामने लड़ाई के लिए ललकारा। सुग्रीव और उसके बहुत ही मजबूत भाई में कोई मुकाबला नहीं था और उसने सुग्रीव को निश्चित ही मार गिराया होता अगर राम ने उन दोनों भाइयों के युद्ध के दौरान झाड़ी के पीछे से धनुष चढ़ाकर बाण चलाकर बालि को मार न गिराया होता। बालि ने मरते समय राम के ऊपर यह आरोप लगाया कि उन्होंने अनुचित किया तो जवाब में राम ने कहा कि जो जंगल के कानून के मुताबिक़ जीते हैं उनको खुद को जंगल के कानून के मुताबिक़ मर जाने भी देना चाहिए।

राजा बनने के बाद सुग्रीव ने किष्किन्धा के सभी वानरों से यह कहा कि वे सीता की खोज में हर दिशा में जाएँ। काफी खोजबीन के बाद बंदरों में सबसे मजबूत और होशियार बन्दर हनुमान को एक और गिद्ध सम्पाती से यह पता चला कि रावण का राज्य विशाल समुद्र के बीचोबीच था और वह दक्षिणी क्षितिज के भी पार तक फैला हुआ था। हनुमान ने अपना आकार बड़ा किया और समुद्र को पार कर गए, रास्तों में बहुत सारे ख़तरों को पार करते हुए वे राक्षसों के द्वीप पर पहुंच गए। वहां उन्होंने देखा कि सीता दुखियारी सी महल के बगीचे में अशोक के एक पेड़ के नीचे बैठी हुई थी, रावण के प्रणय निवेदन को उन्होंने ख़ारिज कर दिया था क्योंकि वह इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थीं थी कि आखिरकार उनके पति आकर उनको वहां से छुड़ा लेंगे।

जैसे ही सीता वहां अकेली हुई तो हनुमान उनके पास पहुंचे, उन्होंने अपना परिचय दिया, सबूत के तौर पर उन्होंने उनको राम की अंगूठी दी और उनको इस बात का दिलासा देते हुए कहा कि राम पूरी शिद्दत से अपने रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं। सीता बहुत खुश हो गईं, उन्होंने हनुमान को आशीर्वाद दिया और उनके ठिकाने का पता चल चुका था इस बात के सबूत के तौर पर उन्होंने हनुमान को अपने जूड़े का काँटा दिया।

हनुमान ने उसके बाद खुद को रावण के रक्षकों के द्वारा पकड़ लिया जाने दिया। राम के दूत के रूप में अपना परिचय देते हुए हनुमान ने रावण से कहा कि अगर उसने सीता को जाने नहीं दिया तो उसको इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। रावण हँसने लगा और उसने अपने प्रहरियों से कहा कि वे हनुमान की पूंछ में आग लगा दें। जैसे ही उनकी पूंछ में आग लगाईं गई हनुमान कूद कूद कर लंका के भवनों में आग लागे लगे। उसके बाद समुद्र पार कर किष्किन्धा वापस गए और उन्होंने राम को सीता के बारे में सब कुछ बताया।

हनुमान ने बंदरों, भालुओं और गिद्धों की विशाल सेना बनाने में राम की मदद की। उसके बाद साथ मिलकर उन्होंने समुद्र पर लंका तक जाने के लिए पुल बनाया।

जब पुल का निर्माण हो रहा था तब राम को एक अप्रत्याशित पक्ष से मदद मिलीः विभीषण से, जो रावण का छोटा भाई था, जिसने तब राम के साथ शामिल होने का फैसला किया जब उसको इस वजह से लंका से निकाल दिया गया क्योंकि उसने सार्वजनिक रूप से रावण को इस बात के लिए नैतिक रूप से गलत ठहराया था कि उसने एक विवाहिता स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध अपने महल में रखा था।

आखिरकार, पुल बनकर तैयार हुआ और राम ने खुद को अपनी सेना के साथ लंका के तट पर खड़ा पाया, रावण के दुर्ग की दुर्जेय दीवारों ने जिनको सीता से अलग कर दिया था। शांतिपूर्ण समाधान के सभी प्रयासों को रावण ने ख़ारिज कर दिया क्योंकि उसको यह बात अपनी शान के खिलाफ लगती थी कि वह किसी ऐसे आदमी द्वारा दिए गए प्रस्ताव के ऊपर विचार भी करे जिसके साथ वानर सेना है। आखिरकार युद्ध की घोषणा हुई। एक तरफ राम, लक्ष्मण, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान तथा जंगल के अन्य बाशिंदे थे। दूसरी तरफ रावण अपने राक्षसों की सेना के साथ था। बन्दर पत्थरों और लाठियों से लड़ रहे थे और राक्षस हथियारों और जादू-मंतर से। युद्ध लम्बा और घमासान हुआ और दोनों ही तरफ से काफी लोग हताहत हुए।

लक्ष्मण रावण के बेटे इन्द्रजीत द्वारा चलाये गए जानलेवा बाण से घायल हो गये, और उनकी मृत्यु हो गई होती अगर हनुमान उड़ कर उत्तर की तरफ न गए होते और जादुई बूटी(संजीवनी बूटी) वाले पहाड़ के साथ लौट कर न आये होते। हनुमान ने दोनों भाइयों को मायावी महिरावण से भी बचाया था।आखिरकार, युद्ध का फैसला राम के पक्ष में रहा।इन्द्रजीत सहित रावण के अनेक बेटे युद्ध में मारे गए। यहाँ तक कि उसका भाई कुम्भकर्ण भी लड़ाई में मारा गया, जिसको लम्बी गहरी नींद से जगाकर युद्ध के लिए भेजा गया था।

आखिरकार, रावण का राम के साथ आमना-सामना हुआ। दोनों के बीच काफी देर तक द्वंद्व युद्ध हुआ जिसमें दोनों ने एक दूसरे के ऊपर काफी शक्तिशाली प्रक्षेपास्त्र छोड़े। राम को जल्दी ही समझ में आ गया रावण में अपने सिरों को बदल लेने की शक्ति थी और उसके ऊपर काबू पाने और मार पाने की राम की कोशिशें तब तक बेमानी ही रहती अगर वे उस राक्षस राजा की प्रकट तौर पर जो अजेयता थी उसको नहीं भेद पाते। तब विभीषण ने राम को यह को यह बताया कि रावण की जान उसकी नाभि में थी और इस वजह से उसका सर काटकर उसको नहीं मारा जा सकता था। राम ने तत्काल एक जानलेवा बाण चलाया जो रावण की नाभि में जाकर लगा और वह तत्काल मर गया। रावण के गिरते ही वानर खुशियाँ मनाने लगे। विजेता राम ने विभीषण को लंका का राजा घोषित कर दिया।

यह समय राम और सीता के मिलन का था। जब सीता कारागार से निकल कर राम के पास आई तो राम ने उससे कहा कि उनको दुनिया के सामने यह साबित करना होगा कि वह रावण के महल में रहते हुए एक वफादार पत्नी बनी रही। सीता वफादार न होने की बात सुनकर इतनी हैरान हुई कि वह अग्निपरीक्षा से गुजरी। सीता अपनी सतीत्व से रक्षित होने के कारण आग से अक्षत रूप में निकल आई।

अग्निपरीक्षा पूरी होने के बाद राम, लक्ष्मण और सीता रावण के उड़न खटोले पर बैठकर अपने घर अयोध्या वापस आ गए, उनके साथ हनुमान भी थे जिन्होंने राम को अपना स्वामी मान लिया था। चौदह साल का वनवास पूरा हुआ।

राम को देखकर भरत सहित अयोध्या के निवासी खुश हो गए। राम के राज्याभिषेक के बाद खूब जश्न मनाया गया जिसमें न केवल साधू-संत, देवता बल्कि बन्दर और असुर भी शामिल हुए। ख़ुशी तब और दोगुनी हो गई जब कुछ महीनों बाद सीता ने यह घोषणा की कि वह गर्भवती थी।

इस ख़ुशी के मौके के बहुत दिन नहीं हुए थे कि राम ने यह सुना कि उसकी प्रजा में रावण के महल में सीता के रहने को लेकर कानाफूसी चल रही थी; वे यह नहीं चाहते थे कि सीता जैसी एक दुश्चरित्र स्त्री उनकी रानी हो। राम का दिल टूट गया और उन्होंने लक्ष्मण को यह आदेश दिया कि वह सीता को जंगल में ले जाकर छोड़ आयें। लक्ष्मण ने हिचक के साथ इस आज्ञा का पालन किया। सीता का जिस बात के लिए परित्याग कर दिया गया जिसमें उसकी कोई गलती नहीं थी, उसके बाद सीता ने कवि-संत वाल्मीकि के आश्रम में शरण ली जहाँ उसने लव और कुश नामक दो जुड़वां बच्चों को जन्म दिया, और उनको बूते ही पाला।

अपने निजी नुक्सान के बावजूद राम ने अपने राज्य के ऊपर बड़ी मेहनत के साथ शासन किया। उनका शासन इतना अच्छा था कि बारिश भी सही समय पर होती थी और कभी किसी तरह की दुर्घटना भी नहीं हुई। सब कुछ तय समय के मुताबिक़ और लयबद्ध तरीके से होता था। हर तरफ शांति और समृद्धि थी।

सालों बाद, राम को यह सलाह दी गई कि वे अश्वमेध यज्ञ करें ताकि राम के राज्य का संसार में और विस्तार हो। राजकीय घोड़े को संसार भर में मुक्त रूप से घूमने के लिए छोड़ दिया गया; धरती पर वह जहाँ जहाँ बिना किसी चुनौती के पार कर जाता वह भूमि  राम के अधीन हो जाती। लेकिन इस महत्वकांक्षी यज्ञ को करने के लिए यह जरूरी था कि यज्ञकर्ता की कोई पत्नी हो। पत्नी सीता के जाने के बाद अयोध्या के वासियों ने राम से फिर से विवाह करने के लिए कहा। राम ने ऐसा करने से मना कर दिया। उन्होंने रानी का इसलिए परित्याग कर दिया था क्योंकि उनके राज्य के निवासियों को वह पसंद नहीं थी लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी का परित्याग नहीं किया था।इसलिए उन्होंने सीता की एक स्वर्ण प्रतिमा बनवाई और जब वे यज्ञ कर रहे थे तो उन्होंने उस प्रतिमा को अपनी बगल में स्थापित कर ली। शाही घोड़ों को छोड़ दिया गया। उसके पीछे पीछे लक्ष्मण और हनुमान के नेतृत्व में राम की सेना भी चल रही थी। जब घोड़ा वाल्मीकि के आश्रम में घुसा तो सीता के पुत्रों ने उसको पकड़ लिया और उसको छोड़ने से मना कर दिया, इस तरह उन्होंने राम की सत्ता को चुनौती दी। उसके बाद घमासान युद्ध हुआ जिसमें दोनों बालकों ने लक्ष्मण, हनुमान और राम के सैनिकों को बिना अधिक मेहनत के हरा दिया। आखिरकार राम ने उन दोनों बालकों को लड़ने के लिए खुद चुनौती दी। अनहोनी होते होते रह गई जब सीता ने हस्तक्षेप। किया और अपने पति से अपने बेटों का परिचय करवाया।

यह साफ़ था कि सीता के बच्चों ने राम की सेना को हरा दिया क्योंकि सचाई सीता के साथ थी न कि अयोध्या राज्य के साथ जिसने उसका परित्याग कर दिया था। राम ने सीता से यह अनुनय किया कि वह एक बार फिर से अपने सतीत्व को साबित करे, इस बार उसकी प्रजा के सामने ताकि उसकी प्रतिष्ठा के ऊपर जो दाग था वह धुल जाए और वह उनके साथ रानी के रूप में अपना उचित आसन ग्रहण कर सकें।

सीता के चरित्र को लेकर जिस तरह बार बार सवाल उठाये जा रहे थे वह उससे थक चुकी थी इसलिए उसने धरती से यह विनती की कि अगर वह सच में वफादार पत्नी है तो धरती दो टुकड़ों में फट जाए। धरती तत्काल फट गई और सीता धरती में समा गई। अयोध्या के लोगों को अब वह सबूत मिल चुका था लेकिन वह राम द्वारा अपनी पत्नी सीता को खो देने की कीमत पर आई।

अपनी प्रिया के बिना धरती पर रह पाने में असमर्थ पाकर राम ने अपने नश्वर शरीर का त्याग करने का फैसला किया। अपने पूर्वजों का राजपाट अपने बच्चों को सौंपकर वे सरयू नदी में समा गए और और फिर कभी नहीं निकले।

कुछ लेखक राम को साधारण मनुष्य के रूप में देखते हैं जिन्होंने असाधारण काम किये, जीवन में सभी बाधाओं के ऊपर उन्होंने विजय हासिल की और पहले नायक बने और फिर ईश्वर। लेकिन उनके भक्तों के लिए वे धरती पर ईश्वर के सर्वाेच्च अवतार हैं अपनी मुक्ति के लिए जिनकी पूजा की जाती है।

हर साल, वसंत में राम के जन्मदिवस को रामनवमी के रूप में मनाया जाता है और पतझड़ में उनकी जीत और राज्यारोहण को दशहरा और दीवाली के रूप में मनाया जाता है। मंदिरों में वे एक एकमात्र देवता हैं जिनको राजा के रूप में प्रतिष्ठापित किया जाता है। जब मुश्किल वक्त आता है तो यह सलाह दी जाती है कि उनकी कथा को सुना जाए क्योंकि सभी विरुद्धों के सामने उनकी न्याय-निष्ठा सभी के लिए उम्मीद और शांति का संदेश देती है।

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