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यतीन्द्र मिश्र के जन्मदिवस पर उनकी कुछ नई कविताएँ

यतीन्द्र मिश्र निस्संदेह मेरी पीढ़ी के प्रतिनिधि लेखक हैं. हर पीढ़ी में अनेक लेखक अपने अपने तरीके से शब्दों का संसार रच रहे होते हैं, लेकिन कुछ ही लेखक होते हैं जो उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने लगते हैं. यतीन्द्र जी ने अनेक विधाओं में अपने लेखन से ही प्रतिनिधि लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाई है. 20 साल की उम्र में उनका पहला कविता संग्रह आया ‘यदा-कदा’. उसके दो-साल बाद कविता संग्रह आया ‘अयोध्या एवं अन्य कविताएँ’. प्रसंगवश, मेरी आरंभिक समीक्षाओं में एक समीक्षा इस कविता संग्रह की भी है. उसके बाद ‘गिरिजा’ किताब आई जिसे संगीत पर, एक मूर्धन्य गायिका पर अपने ढंग की अनूठी किताब के रूप में देखा गया. आजकल यतीन्द्र की किताब ‘लता सुर गाथा’ ने जिस तरह से लेखकों-पाठकों में अपनी व्याप्ति बनाई है वह किसी भी समकालीन लेखक के लिए ईर्ष्या और प्रेरणा दोनों का कारण हो सकती जी का जन्मदिन है. वे 40 पार कर गए हैं. यह देखकर ख़ुशी होती है अनेक विधाओं में लेखन के अलावा उन्होंने एक ऐसे वक्ता के रूप में भी अपनी पहचान बनाई है जिसे सुनना भी एक अनुभव होता है. उनके जन्मदिन पर जानकी पुल की तरफ से हम यही दुआ करते हैं कि वे इसी तरह अनेक विधाओं में बेहतरीन रचते रहें, हमारी पीढ़ी के सुयोग्य प्रतिनिधि बने रहें.

यतीन्द्र जी का पहला प्यार कविता ही है. इसलिए आज उनके जन्मदिन पर पढ़िए उनकी कुछ नई कविताएँ. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कविताओं में भी यतीन्द्र जी की आवाज सबसे अलग है, उनकी शैली सबसे अलग है, उनका मुहावरा सबसे अलग है. जानकी पुल की तरफ से एक बार पुनः जन्मदिन की शुभकामनाएं- मॉडरेटर

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किवाड़ खटखटाना

कबीर के घर का किवाड़ खटखटाओ
तो बरबस हिलता है
रहीम के दरवाजे का ताला

खुसरो की कुण्डी-साँकल भी
जतन से वैसे ही हिलाओ
जैसे धूप से भरे आँगन-चौगान
हौले से छूकर खोले जाते हैं

कभी रैदास, पलटू और दरिया के यहाँ
जाकर भी देख आना चाहिए
उनके किवाड़ों का तिलिस्म
जिनमें घर के बाहर बिखरे संसार को
अपना दुआर बना लेने का नुस्खा टँका है

नानक और पीपा और रज्जब और बुल्ले शाह
के घरों की खिड़कियों से आने वाली बयार
को जो ताला बाँधता हो
उसकी चाबी फेंक आनी चाहिए
उस असूर्यम्पश्य प्रदेश में
जहाँ से लौटना असम्भव न सही
मुश्किल ज़रूर हो

ऐसे बहुत सारे ताले, कुंडी-साँकल
और चिटकनी को छूने से
गर खुलता हो रोशनी का दरवाज़ा
तो किवाड़ खटखटाना
सभ्यता के झरोखों को हिलाने जैसा होता है….

 

पानी की आवाज़

सत्य रास्ते में पड़े पत्थर की तरह है
उसके ठोकर से खुलती हैं
तमाम सारी चीज़ें बेरौनक

उसके गहरे कुएँ में अचानक गिरने पर
उठने वाली आवाज़
सिर्फ़ पानी की आवाज़ नहीं होती

निश्छल जल का जो गूँजता है
कुएँ में स्वर
वो तरलता की शर्त पर
गहराई का सच उजागर करता है….

 

झुकना

झुककर ही हम बाँध सकते हैं जूते के फीते
उठायी जा सकती है झुककर ही
ज़मीन पर जा गिरी क़लम
छुआ जाता बुजुर्गों का पाँव भी झुककर ही
बिसरा दी जाती तमाम गलतफहमियाँ झुककर….

झुककर उदास नदी से उसका हाल पूछा जा सकता है
दूब की नोंक पर उग आयी पीड़ा भी
झुककर ही महसूस होती है….
पतझड़ से हारे हुए पत्ते
झुकने पर ही अपने दिल का पता देते हैं….

झुकना
दरअसल सभ्यता में
मानवता को शामिल करना है….

 

कविता की राह

कविता की राह कठिन है
मनुष्यता की भी

सम्प्रेषण की राह कठिन है
संवेदना की भी

शब्दों की राह कठिन है
और उनकी उजली छायाओं की भी….

फूलों के पदचाप से

नये मौसम में हर बार फूल आते हैं
अपनी अविरल गति से
मिट्टी के रंग पर
एक नया अध्याय रचने के लिए

बदलते मौसम में कई बार
ये फूल सूख जाते हैं
प्रकृति की सहज उपस्थिति में
जीवन का अभिप्राय बताते हुए

जो नहीं बदलता कभी
वो मौसम या बहार या पतझर नहीं
फूलों के पदचाप से छूटा हुआ
सुगन्ध का रास्ता होता है

जिजीविषा के फैलाव की
एक अमिट सम्भावना रचता हुआ….

 
      

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6 comments

  1. भावपूर्ण पंक्तियां

  2. Gajendra Patidar

    सभी कविताओं के साथ किवाड़ खटखटाना कविता ने मन मोह लिया.

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