वरिष्ठ लेखिका विजय शर्मा की पुस्तक ‘विश्व सिनेमा में स्त्री’ के लोकार्पण समारोह की रपट- मॉडरेटर
=================================================== लौह नगरी जमशेदपुर में 25 फरवरी की वासंती सुबह होटल मिष्टी इन के भव्य सभागार में साहित्य, कला और सिनेमा प्रेमियों ने फिल्म पर समीक्षात्मक लेखन के क्षेत्र में एक विशिष्ट अध्याय जुड़ते हुए देखा। मौका था डॉक्टर विजय शर्मा द्वारा संपादित पुस्तक “विश्व सिनेमा में स्त्री” के लोकार्पित होने का। इस अवसर पर पुस्तक चर्चा के बहाने स्त्रियों की दशा और दुनिया भर के फिल्मकारों द्वारा अपने-अपने ढंग से इसके फिल्मांकन पर भी बातें हुईं । शहर की प्रतिनिधि साहित्यिक संस्था “सृजन संवाद” द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए देवघर से विख्यात आलोचक और फिल्म समीक्षक राहुल सिंह पधारे थे। छोटे और औद्योगिक मिजाज के शहरों में मासिक गोष्ठियां साहित्य और कला के लिए माहौल बनाने का काम करती हैं। यहीं देख-सुन, लिख और मंज कर नए कलमकार बड़े साहित्यकार बनते हैं। सृजन संवाद ने भी पिछले छह-सात वर्षों में इस शहर में सृजन कर्म को संरक्षित और पल्लवित करने की दिशा में अनवरत काम किया है जिसका प्रमाण है, हर माह होने वाली साहित्यिक गोष्ठियां। यहां कहानियों, कविताओं, फिल्म और हिंदीतर, विशेषकर अंग्रेजी साहित्य पर खुलकर बात होती है। कई नवोदित रचनाकारों मसलन शेखर मल्लिक, रवि कांत मिश्र, अजय मेहताब, विश्वंभरनाथ मिश्र, प्रदीप शर्मा इत्यादि ने अपनी रचनाधर्मिता को इसी गोष्ठी में पुष्ट किया है। अभी भी दर्जनभर युवा शब्द शिल्प का अनौपचारिक प्रशिक्षण यहां से प्राप्त कर रहे हैं। विचारधारा आधारित लेखक संघों की गतिविधियां शहर में जब क्रमशः कम होती गईं तो सृजन संवाद ने युवा रचनाकारों को सहयोग, समर्थन और मंच प्रदान किया। अपने स्वागत संबोधन में विशिष्ट शिक्षाविद, साहित्यकार व फिल्म समीक्षक डॉ विजय शर्मा ने स्पष्ट किया कि सृजन संवाद का उद्देश्य रचनाकार और रचना को समृद्ध बनाना है। इसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बताया कि शंकर (संपादक – परिकथा) तथा डॉक्टर सी भास्कर राव के साथ उन्होंने इसकी परिकल्पना की थी और पिछले छह सात वर्षों में जमशेदपुर से बाहर के अनेक रचनाकारों का सहयोग तथा उपस्थिति का सम्मान सृजन संवाद को मिल चुका है जिसमें सर्व श्री अशोक कुमार पांडे, देवेंद्र कुमार देवेश, प्रयाग शुक्ल, विभूति नारायण राय, सत्यनारायण पटेल, डॉ महेश्वर, विकास कुमार झा, सेराज खान बातिश, लालित्य ललित इत्यादि प्रमुख हैं। इस गोष्ठी में चयनित रचनाएं ही पढ़ी जाती हैं और तब उस पर विस्तार से चर्चा होती है। चर्चा सत्र में साहित्य प्रेमियों के अलावा स्थानीय कॉलेजों तथा यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक भी शामिल रहते हैं। अब तक सृजन संवाद की गोष्ठियों में डॉ. सी. भास्कर राव, डॉ. विजय शर्मा, शंकर, जयनंदन, कमल, अख्तर आजाद, नियाज अख्तर, अहमद बद्र, मंजर कलीम,सुषमा सिन्हा, रवि कांत मिश्र, विश्वंभर मिश्र, संध्या सिन्हा, शैलेंद्र अस्थाना, नेहा तिवारी, शेखर मल्लिक, आशुतोष झा, अजय मेहताब, आभा विश्वकर्मा, अर्पिता श्रीवास्तव,अभिषेक मिश्रा इत्यादि अनेक साहित्यकार रचना पाठ कर चुके हैं। हमने पिछले वर्ष यह तय किया कि साहित्य और सिनेमा से जुड़े विषयों पर हम दो पुस्तकें प्रकाशित करेंगे। इसी की प्रथम कड़ी के रुप में यह किताब आज आप सबों के सामने आ रही है। इसके बाद अपने संपादन में सद्यः प्रकाशित पुस्तक की कतिपय विशेषताओं की चर्चा करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि फिल्मों पर भारत में चर्चाएं होनी अब शुरू हुई हैं और इस विषय पर प्रकाशित सामग्री की बहुत कमी है। आशा है पुस्तक में लिए गए ये 25 समीक्षात्मक आलेख उक्त कमी के कुछ अंशों को पूरा करेंगे। सामान्य पाठकों और फिल्म अध्येताओं के अलावा शोधार्थियों व अकादमिक जगत के लिए भी इसमें प्रचुर सामग्री है। इसमें शामिल कई लेखक ऐसे हैं जिन्होंने पहली बार फिल्मों पर काम किया है पर उनका काम उल्लेखनीय बन पड़ा है। दीप प्रज्ज्वलन से कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत हुई। लेकिन इसके पहले कि वक्ताओं को संबोधन के लिए बुलाया जाए पिछली रात अर्थात 24 फरवरी को दिवंगत हुई प्रसिद्ध बॉलीवुड अभिनेत्री श्रीदेवी की आत्मा की शांति के लिए 2 मिनट का मौन रखा गया। पुस्तक विमोचन के उपरांत परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर नेहा तिवारी ने स्त्री मुद्दों से जुड़े विविध पक्षों को संक्षेप में सबके सामने रखा। गौरतलब है कि डॉक्टर नेहा तिवारी अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं और स्थानीय करीम सिटी कॉलेज में मास कम्युनिकेशन विभाग की अधिष्ठाता आचार्य हैं। उनके उद्बोधन में पत्रकारिता, साहित्य और स्त्री आंदोलन का अद्भुत समागम था। उन्होंने “स्पाइरल ऑफ साइलेंस” की चर्चा करते हुए समाज में बहुमत तथा अल्पमत की उपस्थिति पर प्रकाश डाला और यह सिद्ध किया कि जिसे हम समाज में अल्पमत या माइनॉरिटी क्लास मानते हैं, उन माइनॉरिटी क्लासेज के अंतर्गत रिलीजियस माइनॉरिटी ही नहीं आती बल्कि दलित, स्त्री और बच्चों से संबंधित विमर्श भी इसी माइनॉरिटी ग्रुप से संबंधित हैं। गौरतलब यह है कि समाज में वास्तविक परिवर्तन लाने वाले लोग इन्हीं माइनॉरिटी ग्रुप से आते हैं बहुत सालों तक या कहें तो सदियों तक समाज में स्त्री की चुप्पी, स्त्री का शील उसके पहचान के साथ इस प्रकार जुड़ चुका था कि स्त्री की मुखरता हमारे और तमाम दुनिया के समाजों में एक नई, अनोखी और बर्दाश्त बाहर की बात थी। लेकिन अब परिस्थितियां बदल रही हैं। स्त्री की चुप्पी अब टूटने लगी है। स्त्री को आखिर चाहिए क्या? एक स्त्री अंततोगत्वा क्या चाहती है? वर्जीनिया वूल्फ के शब्दों में कहें तो “रूम्स ऑफ वंस ओन” यानी अपने लिए खुद का एक कमरा चाहती है स्त्री। यहां यह बात समझनी चाहिए कि पुरुषों को सृजनात्मक माहौल स्वतः, सहज रुप से हासिल होता है पर स्त्रियां इसे लड़ कर हासिल करती हैं। पीकू, अनारकली ऑफ आरा तथा क्वीन जैसी फिल्मों का जिक्र करते हुए डॉ नेहा तिवारी ने कहा कि स्त्रियों की सोच और दशा में आ रहे परिवर्तनों को विश्व सिनेमा लगातार रेखांकित कर रहा है और भारत में पिछले दो दशकों से इस प्रक्रिया में बहुत तेजी आई है। राहुल सिंह ने जमशेदपुर के सिनेमा संस्कारों की चर्चा करते हुए इम्तियाज अली, प्रियंका चोपड़ा जैसी स्थानीय फिल्मी हस्तियों को याद किया और करीम सिटी कॉलेज के मास कॉम डिपार्टमेंट के होनहार छात्रों की प्रतिभा संपन्नता पर खुशी जाहिर की। अपने वक्तव्य में किताब के अलावा फिल्म, फिल्म समीक्षा और स्त्रियों की वर्तमान दशा पर उन्होंने विस्तार से अपने विचार व्यक्त किए। देखा जाए तो भारत में फिल्म समीक्षा उपेक्षित-सी रही है। हमारे अकादमिक संस्थानों में भी ऐसी कोई असरदार कोशिश नहीं हुई कि एक निष्ठ फिल्म समीक्षक तैयार किए जाएं। फिल्म एप्रिसिएशन की कक्षाएं भी कायदे से फिल्म समीक्षक नहीं बना सकी। इसलिए दर्शकों या सिनेमा के रसिकों ने ही फिल्म समीक्षा का जिम्मा भी उठाया हुआ है। ऐसी स्थिति में नए फिल्म समीक्षकों को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से राहुल सिंह ने कई महत्वपूर्ण टिप्स भी दिए। जैसे फिल्म को पहले परसीव करना चाहिए। अर्थात फिल्म का अंतर्ग्रहण होना चाहिए। अच्छी फिल्म समीक्षा पाठकों को बेचैन करती है। उन्हें पढ़ने वाला व्यक्ति फिल्म देखने के लिए प्रेरित होता है। यदि उसने पहले से ही यह फिल्म देखी हुई भी हो तो वह दोबारा देखना चाहेगा क्योंकि फिल्म समीक्षक की निगाह उन क्षेत्रों को भी कवर करती है जो दर्शकों के नजर से अक्सर छूट जाया करते हैं। अच्छी फिल्म एक गंभीर कलाकृति की तरह है जिस को बार-बार देखने पर आस्वाद की कई परतें खुलती हैं, संवेदना के कई पक्ष उभरते हैं। भारत और पश्चिम में स्त्री की राजनीतिक चेतना के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को याद करते हुए राहुल सिंह ने स्वतंत्रता के बाद भारत में क्रमशः क्षीण होती राजनीतिक चेतना को गंभीरता से रेखांकित करते हुए कहा कि पश्चिम में हमें वर्जीनिया वुल्फ, सीमोन द बोउवार जैसी अनेक स्त्रीवादी चिंतन मिलती हैं पर भारत में ऐसे कौन से कारण रहे हैं जिनके चलते शिक्षा और व्यक्ति स्वातंत्र्य में विकास होने के बावजूद कोई ढंग का समर्पित स्त्री चिंतक दिखाई नहीं देता। दरअसल भारत में आजादी के बाद स्त्रियों की बढ़ी हुई राजनीतिक चेतना में क्रमशः गिरावट ही दिखाई देती है। और आज वह इतना नीचे गिर चुकी है कि संसद में महिलाओं को 33% आरक्षण देने का विधेयक पिछले 15 सालों से पटल पर ही नहीं रखा जा सका है। भारत में स्त्री अधिकारों का कोई आंदोलन ही जब खड़ा नहीं हुआ तो हम फिल्मों में उसकी छवि कैसे पा सकते हैं? भारतीय फिल्मों में स्त्री वही है जो भारतीय समाज में है। इस संदर्भ में उन्होंने अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर प्रथम भाग के एक संवाद का जिक्र किया जिसमें पीयूष मिश्रा रिचा चड्ढा को उसके पति मनोज बाजपेई के चरित्र के बारे में समझाते हुए कहते हैं- ‘ तू सही है लेकिन वह मर्द है।’ आदिवासी, अल्पसंख्यक, दलित, स्त्रियों के साथ-साथ हिंदी फिल्म उद्योग बच्चों पर भी जानदार फिल्में बना रहा है। राहुल सिंह ने बच्चों को भी सबाल्टर्न समूहों के अंतर्गत रखने की वकालत करते हुए मशहूर फिल्म ‘चिल्लर पार्टी’ को बाल राजनीतिक चेतना की एक प्रखर फिल्म बताया। दूसरी तरफ “मातृभूमि-अ नेशन विद आउट वीमेन’ की चर्चा करते हुए इसे विश्व सिनेमा की स्त्री विषयक फिल्मों की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में शुमार होने लायक फिल्म बताया। नए समीक्षकों को अपनी राय देते हुए राहुल सिंह ने कहा कि समीक्षा में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कम से कम शब्दों में आप कितना अधिक व्यक्त कर सकते हैं। यह कोई आवश्यक नहीं कि ज्यादा बड़ी चीजें ही बेहतर होंगी। छोटी चीजें भी ज्यादा प्रभावकारी, ज्यादा मारक, ज्यादा वेधक हो सकती हैं। इन छोटी चीजों की प्रभावात्मकता तब समझ में आएगी जब हम जानेंगे कि असल क्रांति जो स्त्री और फेमिनिज्म आधारित सिनेमा की हो रही है उसका जॉनर फीचर फिल्म नहीं शार्ट फिल्म है। यूट्यूब में इन फिल्मों की भरमार है, अनुराग कश्यप से लेकर तिग्मांशु धूलिया और कल्कि कोचलिन से लेकर राधिका आप्टे तक सभी प्रयोगधर्मी कलाकार यहाँ मौजूद हैं। लगभग घंटे भर चले अपने संबोधन में राहुल सिंह ने कई बातें विस्तार से तथा अनेक उदाहरणों के साथ समझाईं जिससे उपस्थित श्रोता तथा विद्यार्थीगण सभी लाभान्वित हुए। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार तथा फिल्म समीक्षक डॉ. सी. भास्कर राव ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में यह आशा प्रकट की कि सृजन संवाद आने वाले समय में अपनी गोष्ठियों तथा परिचर्चा के माध्यम से गंभीर फिल्म अध्येता तैयार करेगा। उन्होंने स्त्री की परंपरागत छवि के बरक्स आधुनिक स्त्री की कई विशिष्टताओं की तरफ इशारा किया जिनको वर्तमान भारतीय फिल्मकारों ने सफलतापूर्वक स्थापित किया है। उनके संबोधन की विशेषता यह रही कि जहां अन्य वक्ताओं ने विश्व सिनेमा के परिदृश्य पर बात की वहीं उन्होंने भारतीय, विशेषकर हिंदी और बांग्ला फिल्मों को केंद्र में रखकर अपनी बात की, जिसके वे मर्मज्ञ माने जाते हैं। इस महत्वपूर्ण आयोजन के सूत्रधार तथा संयोजक युवा कवि अखिलेश्वर पांडेय ने कार्यक्रम का सफल संचालन किया तथा कवयित्री-संपादिका डॉ संध्या सिन्हा ने धन्यवाद ज्ञापित किया। शहर की प्रतिनिधि साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था तुलसी भवन ने इस अवसर पर लोकार्पित पुस्तक की संपादिका डॉ. विजय शर्मा को पुष्पगुच्छ व शॉल देकर सम्मानित किया। इस महत्वपूर्ण आयोजन में डॉ आशुतोष कुमार झा, डॉ बीनू, आभा विश्वकर्मा , प्रदीप कुमार शर्मा , अभिषेक कुमार मिश्रा, अंकुर कंठ , सुशांत, तामीर शाहिद , डॉ मिथिलेश कुमार चौबे, संतोष कुमार सिंह, अजय महताब, डॉ अहमद बद्र, मंजर कलीम, अविनाश कुमार शर्मा, रश्मि चौबे, खुशी राय इत्यादि शताधिक नगरवासी उपस्थित थे। इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए खास तौर पर रांची से प्रख्यात साहित्यकार महादेव टोप्पो तथा नई दिल्ली से सुधीर वत्स भी आए थे। नए सृजन तथा उस पर निरंतर संवाद के संकल्प के साथ यह गोष्ठी संपन्न हुई। रिपोर्ट – डॉ आशुतोष कुमार झा
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