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उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ हमारे संगीत की रूह और आत्मा में बसे हुए हैं

कल उस्ताद बिस्मिल्ला खान की जयंती थी. उस्ताद बिस्मिल्ला खान दशकों तक शहनाई के पर्याय की तरह रहे. उनके ऊपर बहुत अच्छी किताब यतीन्द्र मिश्र ने लिखी है ‘सुर की बारादरी’. आज खान साहब पर यतीन्द्र मिश्र की लिखी यह छोटी सी सारगर्भित टिप्पणी- मॉडरेटर

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भारतीय शास्त्रीय संगीत में उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ एक ऐसे प्रतीकपुरुष बन गये हैं जिनको याद करना एक वैभवशाली कलासमय को इतिहास के बहाने याद करना है । उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ एक ऐसी संज्ञा का नाम है जिसको सुनते या बोलते हुए हमें अकस्मात दूसरा शब्द जो एकबारगी ज़ेहन में उभरता है वह शहनाई का है । शहनाई का मतलब बिस्मिल्ला ख़ाँ और बिस्मिल्ला ख़ाँ का मतलब साजों की कतार में सरताज़ बनी हुई मंगलध्वनि बिखेरने वाला वाद्य शहनाई।

बिस्मिल्ला ख़ाँ के साथ सिर्फ शास्त्रीय संगीत या बनारस ही आपस में घुलामिला नहीं है वरन् उनके साथ भारतीय संस्कृति की ढेरों रंगतें अपनी सबसे आभामयी उपस्थिति में दीप्त हैं । यह ख़ाँ साहब ही हैं जिनके सौभाग्य के खाते में पन्द्रह अगस्त को लालकिले पर शहनाई बजाने का मौका मिला हुआ है । एक तरफ हमारा देश आज़ाद हो रहा है और दूसरी तरफ उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ की शहनाई भारत के हर एक आम इंसान के भीतरी जज़्बातों, आज़ादी की तड़प और अपनो से बिछड़ जाने के ग़म का नग़मा सुना रही है । यह ख़ाँ साहब की एक अन्य अविस्मरणीय उपलब्धि  है कि पन्द्रह अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की पचासवीं वर्षगाँठ पर उन्हें दूसरी बार लाल किले के दीवानेआम से शहनाई बजाने का न्यौता मिला है । उनके किरदार में दुनिया भर का फसाना,कहकहा, ढेरों दिलचस्प वाकये और लगभग आठ दशक तक दुनिया को सुरों से भिगोने का सार्थक समय नसीब हुआ है । ख़ाँ साहब को जानना एक साथ गंगा के पानी में उपासना करने और अज़ान की पुकार में स्वयं को भुला देने में शरीक होना दोनों ही है। यह अकारण नहीं है कि बाबा विश्वनाथ, बालाजी मन्दिर, मंगलागौरी का स्थान और बनारस के गंगा तट पर अस्सी बरस तक रियाज़ी रहे इस फनकार की सबसे अमर कजरी के बोल हैं- गंगा दुआरे बधईया बाजे । वे इस मायने में भी इतिहास में पूरे आदर के साथ जीवित रहेंगे कि उन्होंने अपने फ़न और कला के द्वारा भारतीय समाज में हिन्दू-मुस्लिम एकता की शानदार मिसाल कायम की थी । उनका संगीत गंगा-जमुनी तहज़ीब को सँवारता हुआ अपने शुद्ध व आत्यन्तिक रूप में इबादत का संगीत था।

उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ उस समय से हमारे संगीत की रूह और आत्मा में बसे हुए हैं- जिस जमाने में मुश्तरीबाई, बड़ी मोतीबाई, विद्याधरी, कृष्णराव शंकर पण्डित, उस्ताद बड़े गुलाम अली ख़ाँ, उस्ताद अब्दुल करीम ख़ाँ, उस्ताद फैयाज़ ख़ाँ, रसूलनबाई, उदय शंकर, अहमद जान थिरकवा और ऐसे ही न जाने कितने स्वनामधन्य महान लोगों की परम्परा मौसीकी में पूरी गरिमा के साथ निभती रही है । उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ का सबसे महान योगदान यह है कि उन्होंने शहनाई जैसे अति साधारण वाद्य को राजदरबारों, महफिलों, ड्योढ़ियों और मन्दिरों के दरवाजे पर प्रभाती सुनाने और मंगलध्वनि  के दायरे से उठाकर सीधे शास्त्रीय संगीत के प्रशस्त आँगन में स्थापित करने में रहा है । यह बिस्मिल्ला ख़ाँ ही थे जिनकी कला यात्रा में शहनाई रागदारी को अंजाम देने वाला एक जरूरी वाद्य बन गया। उन्होंने शास्त्रीयता और परम्परा का पूरा ध्यान रखते हुए अपनी शहनाई से उत्तर भारत की शास्त्रीय संगीत परम्परा से चुनकर ढेरों राग-रागिनियों को शहनाई के प्याले में उतारने का ऐतिहासिक श्रम किया है । आज हम सभी जानते हैं कि बहुत सारे राग मसलन- बागेश्री, जयजयवन्ती, कामोद, सारंग, बहार, बिहाग, केदार, भीमपलासी, यमन, भूपाली, छायानट, मालकौंस और भैरवी सभी उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ की अपनी विशुद्ध परम्परा के सिग्नेचर राग बन गये हैं । इसी के साथ ठुमरी, चैती, कजरी और दादरा के बोलों को भी उन्होंने अपनी वादन कला में पूरी ऊँचाई के साथ गरिमापूर्ण स्थान दिया है ।

उनकी जुगलबन्दियाँ फिर चाहे वह वीजी जोग के साथ हो या कि गिरिजा देवी के साथ- भारतीय शास्त्रीय संगीत की सबसे अमूल्य धरोहर समझी जाती हैं । चूँकि ख़ाँ साहब खासे मनमौजी और मिलनसार स्वभाव के व्यक्ति थे- मित्रें की बात न टालना उनका व्यक्तिगत गुण था । इसका सबसे सुन्दर अंजाम यह हुआ कि जब उन्हें वसन्त देसाई ने मुम्बई बुलाया- तब उनके कलाकार का एक सुन्दर रूप ‘गूँज उठी शहनाई’ फ़िल्म के द्वारा व्यक्त हुआ । आज शायद ही कोई संगीत प्रशंसक इस फ़िल्म के संगीत के जादू से अछूता हो । भैरवी में लता मंगेशकर द्वारा गवाया गया ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’ शहनाई के अपने छन्द का सबसे नायाब नमूना है । स्वयं बिस्मिल्ला ख़ाँ भी इसकी तर्ज़ को इतना पसन्द करते थे कि अपनी ढेरों कन्सर्ट में उन्होंने इसे बजाया है ।

उस्ताद जी के साथ अनगिनत ऐसे क्षण जुड़े हुए हैं- जिन पर कोई भी भारतीय गुमान कर सकता है । मसलन यह कि शिवरात्रि पर बाबा विश्वनाथ की सेहराबन्दी सबसे पहले यही फ़नकार बजाता रहा है या 1967 से अब तक भारत सरकार के प्रतिनिधि संचार माध्यमों (आकाशवाणी एवं दूरदर्शन) से प्रतिदिन सुप्रभात की मंगलध्वनि की धुन उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ की शहनाई के माध्यम से ही पूरे देश को सुनाई जाती है या यह कि ईरान में उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ के सम्मान में एक आडीटोरियम बना है- जिसका नाम है तालार मौसीकी उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ या संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ने उस्ताद का अस्सीवाँ जन्मदिन 1965 में पूरे राजकीय सम्मान के साथ मनाया । उनके इन्तकाल के बाद भारत सरकार ने युवाओं में संगीत सम्भावना को आदर देने के लिये प्रतिवर्ष उनके नाम पर एक राष्ट्रीय पुरस्कार की स्थापना भी की है । स्वयं बिस्मिल्ला ख़ाँ के खाते में अनगिनत अवॉर्ड एवं ढेरों डीलिट की मानद उपाधियाँ दर्ज़ हैं । सिर्फ़ भारतरत्न का स्मरण करके यह देखा जा सकता है कि उनकी वादन कला को इस देश ने किस पाये का सम्मान बख़्शा है ।

उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ शताब्दी पुरुष ही नहीं संगीत और रियाज़ के ऐसे कीर्ति स्तम्भ हैं जिनको याद करके संगीत सीखने वाली पीढ़ियाँ जवान होती रहेंगी । ऐसे मौके पर जब संस्कृति उन्हें अपने आत्मीय ढंग से याद करती है उनकी कही बात को यहाँ याद करना जरूरी है जो उन्होंने भारत रत्न मिलने के बाद अपने फ़नकार के सन्दर्भ में कही थी मेरा काम अभी कच्चा है सच्चे सुर की तलाश में हूँ । परवरदिगार से इसी सुर की नेमत माँगता हूँ । यह कहना ग़ैरज़रूरी है कि ख़ाँ साहब की बात करीम परवरदिग़ार ने सुनी थी कि नहीं ।

 
      

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