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सोचा ज़्यादा किया कम उर्फ एक गँजेड़ी का आत्मालाप

विमल चन्द्र पाण्डेय की की लम्बी कविता. लम्बी कविता का नैरेटिव साध पाना आसान नहीं होता. स्ट्रीम ऑफ़ कन्सशनेस की तीव्रता का थामे हुए कविता के माध्यम से एक दौर की टूटन को बयान कर पाना आसान नहीं होता. बहुत दिनों बाद मैंने एक ऐसी लम्बी कविता पढ़ी जिसके आत्मालाप में अपना आत्मालाप सुनाई देता रहा. विमल जी साहित्य से लेकर सिनेमा तक निरंतर प्रयोग करते रहते हैं एक सच्चे कलाकार की तरह. यह उनकी अभिव्यक्ति का नया रूप है जो पढ़े जाने और बहस की मांग करता है- मॉडरेटर
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सोचा ज़्यादा किया कम उर्फ एक गँजेड़ी का आत्मालाप
सोचता ज़्यादा हूं करता हूं बेहद कम
जितना जीवन जीता हूं उससे अधिक जीता हूं वहम
इस तरह वहम भरे विचारों में एक मुकम्मल अलग इंसान बना हूं
जिसका पूरा व्यक्तित्व सोचते हुये बना है सिर्फ मेरी सोच में
नशा न गाँजे में है न रोच में
अपने ऊर्वर मष्तिष्क की नशीली कोशिकाओं को हम मिलाते हैं तम्बाकू में
और पीने लगते हैं
जिस क्षण अवसाद की बारात दरवाजे़ लगती है
हम पीठ फेर सहज जीवन जीने लगते हैं
जितने वादे पूरे करते हैं उनसे बहुत ज्यादा हैं वे
जिनसे हम मुकरते हैं
हमारा इरादा सीधा होता है
पर हम बातें उल्टी करते हैं
**
तीन भाइयों वाले पिता के संयुक्त परिवार में आपस में हम नहीं निभा पाये भाईचारा
उसी दौरान हमने निबंधों में कहा पूरा देश है परिवार हमारा
बातों की शर्म से निकलने में किये अकेले में कुछ गुनाह
और सोचने की कोई सजा नहीं होती वाले सूत्र से बच निकले
गुनाह सोचने की कोई सजा होती तो अब तक हम फाँसी पर लटक गये होते
जंगल में भटके राहगीर को चिलम पिला कर भूत ने कहा
हम मरे न होते तो तुम भटक गये होते
**
तुम मुझे प्रेम करती हो
तुम्हारे साथ की अंतरंग रातों में भी मैं तुम्हें देता हूं सिर्फ धोखे
तुम आधी रात को उठी तो तुम्हारे बाथरुम में फिसल कर मर जाने के बारे में सोचा
मैंने अपने ऊपर अत्याचार मुझे फौरी राहत देता है
तुम्हें सताने के खयाल से ज्यादा उन्मादी है ये
जो मेरी ज्यादा अपनी है और ज्यादा परिचित
परसों सड़क पर चाय पीने निकला
तो एक छोटी लड़की ने पूछा मुझसे
मुझे सड़क पार करा देंगे क्या अंकल
उसी वक्त मेरे सीने में एक रुका हुआ दर्द उठा
जिसे तीन रात पहले उठना था
**
दिनों को गुज़ार कर उन्हें जीने जैसी ख़ुशी से ज़्यादा है उन्हें नष्ट करने का संतोष
 इच्छाओं की चुभन भरी रातों में निर्विघ्न नींद वालों से ईर्ष्या होती है और रोष
 मेरा कोई धर्म नहीं, कोई कुल गोत्र नहीं
 मैं अपने जैसे चेहरे खोजता हूँ सड़कों पर
जो अपनी रातों के जल्लाद हों
जिनकी ड्यूटी सुबह सबके उठने से तमाम होती हो
रात भर धुंएं की नशीली गंध में डूबे हम
बिना बेचैनी रात भर सोने वालों की नींद पर कलपते हैं, रोते हैं
फिर रात भर सोने वालों के हाथ में सौंप कर पृथ्वी सुरक्षित
सुबह चैन की नींद सोते हैं
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“लगातार सेवन मृत्यु के निकट ले जाता है”
ये कहा कई आकस्मिक गंजेड़ियों ने और हमारी आखिरी चिलम चांदी कर चलते बने
हमने सन्तों से अपनी तुलना की
जो मृत्यु के निकट पहुंचने को बरसों तक
ईश्वर तक पहुंचने से कन्फ्यूज करते रहे
हमें मृत्यु से भय नहीं था
हमारी आंतरिक और सतत चीत्कार
सिर्फ अपने प्रिय चेहरों से दूर होने की थी
गांजा फुरा जाने पर सबने थोड़ी देर एक दूसरे के खाली चेहरे देखे
फिर एक उठा और दीवार के अंधेरे ताखे में हाथ डालता हुआ बोला
“ये आख़िरी पुड़िया सबसे बुरे दिनों के लिए बचा रखी थी मैंने”
सभी ख़ुश होते हैं कि अगली किश्तों की खुराक मिल गयी है
सभी अफ़सोस में हैं कि ये उनके सबसे बुरे दिन हैं
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बहुत सारी स्त्रियाँ हैं जिनसे मैं प्रेम करना चाहता हूं
एक ही जीवन और एक ही याददाश्त होने का अफ़सोस सिर्फ इसीलिये होता है
प्रेम की भीतरी सतह में अपनी वासना भी छिपा रखी है मैंने
वो मैं अभी आपको दिखाना नहीं चाहता
मेरी वासना ही मेरा असली चेहरा है
जिन पर मेरी नैतिकताओं का नितांत पहरा है
लेकिन मैं ये भी चाहता हूँ जो औरतें मेरे पास आएं वे उसी छिपे चेहरे के लिए उत्सुक होकर आयें
मुझे सच की आड़ में झूठ का व्यवहार कभी पसंद नहीं रहा
इनकार की लंबी श्रृंखलाओं से गुजर कर
मेरी प्रेमिकाएं जब मेरे साथ में डूबीं तो उन्होंने कहा
“हमें बिगाड़ दिया तुमने”
इस बात पर मुझे ख़ुशी हुई
जब मैं विद्यार्थी था तो बिगड़ा विद्यार्थी था
कर्मचारी हुआ तो बिगड़ा कर्मचारी
अब मैं एक बिगड़ा हुआ कवि हूँ और ये समझता हूँ
जो बिगड़ते और बिगाड़ते हैं
वे ही जीवन के मधुर रसों के सम्भावित अधिकारी होते हैं
जो बिगड़े बिना बने हैं
वे किसी और के लिए उन रसों की बाल्टी अपने सिर पर ढोते हैं
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जो आये हमारी महफिल में सब हुनरमंद थे
 वे हमें कुछ सिखाना चाहते थे
जो हुनर बाहर कोई देखने को तैयार न था
वो हमें दिखाना चाहते थे
हमने कलाओं को जीने वाले देखे
कलाओं के शिकारी भी
कलाओं के उपासक देखे
कलाओं के बलात्कारी भी
उपासक जाते हुए रिक्शे का भाड़ा हमसे ले गए
बलात्कारियों ने हमें चाय के साथ टोस्ट खिलाया
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सारी पसंदीदा बातों के कई चक्र समाप्त होने के बाद
कभी-कभी वे बातें भी करनी पड़ती हैं जो नापसंद होती हैं
राजनीति का शिकार गंजेड़ी और समूह बचना चाहता है
राजनीति पर बात करने से
उनकी इस सावधानी में उनके पुराने और अनुभवी होने का पता चलता है
कोई अपने दुर्दिन में अपराध का भागी नहीं होना चाहता
राजनीति पर बात करना अपराध हो गया है
ये तब से हुआ है जब से अपराध पर बात कर के राजनीति करने का
हमने स्वागत किया है
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ऐसा नहीं कि हमें रोका टोका डाँटा और दरेरा नहीं गया
ऐसा नहीं कि हमारे शुभचिंतक नहीं थे
दोस्तों ने हमें रोका और कहा कि स्वस्थ जीवन जरूरी है
देश की तरक्की के लिए, अपने परिवार के लिए
एक स्वस्थ समाज और विकसित संसार के लिए
युवा ऐसा हो जो माहौल में क्रांति ले आये
देश को फिर से सोने की चिड़िया बनाये
हम इन बातों पर विश्वास करने ही वाले थे कि वे गये
और मंदिर बनाने का दावा करने वाली पार्टी को वोट दे आये
**
हम समय से आंखें मूंदे रहना चाहते थे
हम समझ गये थे कि नक्कारखाने की रेंज
बढ़ते-बढ़ते संसद तक को पूरी तरह गिरफ्त में ले चुकी है
हम तूती होने पर विवश थे
अखबारों के पास बड़े मुद्दे थे
पत्रिकाओं में सबसे उल्लेखनीय नवरत्नों के और सरकारी विज्ञापन थे
समाचार चैनलों पर आने से बचने की कोशिश
अपने जीवन को बचाने की मुहिम थी
एक दोस्त ने एक चैनल पर कुछ सरकार विरोधी बातें कहीं डिबेट में
फिर लौटते हुए डीटीसी की एसी बस से लाजपत नगर में कुचला गया
हमने इसे दुर्घटना माना और मैगी बनने के अंतराल में
दो मिनट का मौन रखा उसके लिए
पेट भरा रहे तो भी
जब गाँजे की पिनक उठती है
भूख जमहाइयाँ लेती जाग जाती है
ये बात सरकार के बारे में नहीं कही जा रही
**
प्रेम पर ढेर सारी कविताएं थीं
जैसे भक्ति करने के लिए ढेर सारे आरती संग्रह और गाने के लिए ढेर सारे पैरोडी भजन
जहाँ एनकाउंटर हुआ सलीम शेख का
उससे कुछ दूरी पर बैठे थे पीर पराई जानने वाले वैष्णवजन
अजान के बाद एक बच्ची की लाश मिली इमाम के मकान में
सन्डे की प्रेयर के बाद एक लड़की लटकी मिली अपनी केक की दुकान में
न प्रेम था कहीं दुनिया में न कोई किसी की भक्ति में लीन था
ताक़त ही सबका स्वप्न थी पैसा ही सबका दीन था
डर समाया था कवियों चित्रकारों और लेखकों में
कोई कभी भी मारा जा सकता था
किसी को भी कॉलर पकड़ चलती गाड़ी से उतारा जा सकता था
कवि जिस धर्म में पैदा हुआ था उस पर बात करना चाहता था
 मगर इसके लिए लाइसेंस लेना पड़ता था
रचनाकारों का कुछ भी बोलना सरकार की आंखों में लगातार गड़ता था
कवि इतने डरे थे कि अपने धर्म के रखवालों की कारस्तानी लिख कर
दूसरे धर्मों की बातों से इसे बैलेंस करते थे
जो नहीं करते थे
वे इतनी बुरी मौत मरते थे
कि उनके बच्चों को उसूल और सच्चाई जैसे शब्द
जीवन भर अखरते थे
**
गांजे के नशे में किसी ने कोई मूर्खता भरी बात कही
इसका कोई आग्रह नहीं था कि बात गलत है या सही
एक ठहाका उठा और दूसरे की आवाज आयी
“इस बार का माल उच्च कोटि का है”
जिन दिनों शहर में गुणवत्तायुक्त गांजे की कमी थी
 कुछ नेता मंत्री और जनप्रतिनिधि लगातार मूर्खता और क्रूरता भरी बातें
अपने मक्कार मुँह से फेंक रहे थे फेन की तरह
सरकार जनता के गले से आवाज़ खींच रही थी
कोई उठाईगिरा झपटता हो सोने की चेन की तरह
“कोई सामान्य इंसान ऐसा कैसे बोल सकता है सोच सकता है”
जैसे सवालों में हम डूबे तो हमें अचानक पता चला
सरकार के नुमाइंदों ने जो माल पिया है वो सबसे उच्च कोटि का है
हम भी उसकी खोज कर रहे हैं
आप सरकार से अपनी समस्याएं न बताएं
सरकार की रुचि न पानी में है न प्यास में है
सरकार अच्छे माल की तलाश में है
**
कुछ साल पहले तक अपनी दिनचर्या पर कोफ्त होती थी
सिर्फ अपनी ही दुनिया में खोए रहने पर मलाल
 देश दुनिया में उठ रहे थे ज्वलंत सवाल
लेकिन हम उनकी परवाह किस तरह करते
जब दोस्तों तक में कोई न बचा था हमारा पुरसाहाल
अधिकारों और कर्तव्यों की बात करने वाला देश
धीरे-धीरे बलात्कारियों के देश में बदल रहा था
अपराधियों का समूह नव-अविष्कृत हथियार तिरंगे की ओट में चल रहा था
देश किसका है कौन असली देशभक्त है
ये बातें मरी हुई देह की तरह उठायी जा रही थीं
रक्त की शुद्धता और तलवार पर अधिकार जैसी बातों के बीच
असली बातें क्रूरता से दबायी जा रही थीं
हमारे देखते-देखते देश विकृति की प्रयोगशाला बन रहा था
हमें एक धर्म दिया गया था
जिसपे हमें गर्व करना था
हम या तो शर्म करते हुए बाहर निकल आते सड़कों पर
या फिर गर्व से कहीं मर जाते
अच्छा हुआ हम गंजेड़ी हुए
जहाँ जाते
चुपचाप एक कोने में पसर जाते
**
गंजेड़ियों की बातों को ध्यान से सुनना चाहिए
अब बिना मतलब की बातों में ही अर्थ निकलने की संभावना है
ये बात अपने नॉन-गंजेड़ी मित्रों से हंस कर कही हमने
और नशे में वहीं सो गए
हमारी बातों को गलत सन्दर्भ में लेने के आदी
मित्रों ने लगाए समाचार चैनल
और चीखते पत्रकारों की भंगिमाओं में खो गए
नींदों में हमने सपने देखे
कभी हमने लुकारा लगा दिया संसार में
सबके साथ ख़ुद भी उस आग में झुलस गये, जल गये
कभी हम भीड़ से जनता बने
एक हाथ में वोटर आईडी कार्ड और दूसरी में काग़ज़ की एक पर्ची लिये
प्राथमिक विद्यालय की तरफ़ निकल गये
 
      

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13 comments

  1. शानदार कविता है। जब कवि का आत्मालाप, दूसरों को अपना आत्मालाप भी लगे तब वह निश्चित बड़ी कविता होती है…

  2. विमल चंद्र जी को पढ़ना हमेशा से एक सौगात से लगा है ।
    आज ट्रेन के सफर में सुकून से पढ़ सका तो और भी अच्छा लगा आप की इस कविता को पढ़ना । पर आप के शब्दों में सुकून कहाँ , कहीं न कहीं हमारी पीड़ा को आवाज़ देते आप के शब्द , किसी न किसी को चुभते भी बहुत होंगे ।
    बहुत बहुत बधाई ।

  3. मनोज कुमार पांडेय

    बेहतरीन कविता। यह इसी दारुण समय की दास्तान जिसे जो भी कहे गँजेड़ी समझा जाय उसे। इस बात से भी पूरी सहमति कि – गंजेड़ियों की बातों को ध्यान से सुनना चाहिए – मनोज पांडेय

  4. i read your article sir, very nice your article

  5. माल वाक़ई उच्च कोटि का है.. विमल जी को साधुवाद!
    जैसा कि प्रभात जी ने कहा, दर्द से दर्द के धागे खिंच जाते हैं .. और ख़ुद की कहानियों की गूँज सुनाई देती है…

  6. शानदार कविता,

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