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बहुत याद आएंगे जीनियस सुशील सिद्धार्थ    

सुशील सिद्धार्थ को याद करते हुए बहुवचन के संपादक अशोक मिश्र ने बहुत अच्छा लिखा है. पढियेगा- मॉडरेटर

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सुशील सिद्धार्थ के अचानक निधन की पहली खबर मुझे कहानीकार मनोज कुमार पांडे से शनिवार 17 मार्च को सुबह साढ़े दस बजे मिली उस समय बैंक से कुछ काम निपटाकर कैंपस स्थित घर की ओर लौट रहा था । अपने प्रिय मित्र के निधन की खबर से एकाएक बहुत पीड़ा का अनुभव हुआ । सुशील की यह कोई उम्र नहीं थी जाने की लेकिन जिंदगी में जब वह प्रतिष्ठा की ओर अग्रसर थे ऐसे में मृत्यु का दबे पांव आना विधि की बिडंबना ही है । सुशील सिद्धार्थ आजीवन साहित्य, पत्रकारिता के गलियारे में ही घूमते- फिरते लिख-पढ़कर जीविकोपार्जन करते रहे थे । वे एक बेहद मेधावी व्यंग्यकार, आलोचक और संपादक थे । लेखन के शुरुआती काल में वे अवधी भाषा में कविताएं लिखते थे और `बिरवा` नाम की पत्रिका निकालते थे । उन्होंने कुछेक कहानियां भी लिखीं और उनका एक उपन्यास जो कि लिखा जा रहा था शायद पूरा नहीं हो सका ।  यह उनकी नियति थी या कि भाग्य कि उनके जैसे अव्वल दर्जे के जीनियस व्यक्ति को हिंदी की दुनिया में गोरख पांडेय, शैलेश मटियानी या फिर मुद्राराक्षस की भांति जीवन गुजारना पड़ा ।

यहां प्रश्न है कि आखिर सुशील कौन थे और जीवन में क्या बनना चाहते थे और इस समाज, व्यवस्था ने उनको क्या बनाया। जाहिर है कि ताउम्र फ्रीलांसर बनकर जीने और एक से दूसरी फिर तीसरी जगह भटकने को मजबूर कर दिया था । उनका पूरा नाम सुशील अग्निहोत्री था जिसे जातिसूचक संबोधन हटाकर वे सुशील सिद्धार्थ के नाम से ही लेखन करते मशहूर हुए । सुशील ने लखनऊ विवि से पी.एच.डी. की थी लेकिन विवि में उनकी नियुक्ति क्यों नहीं हुई यह बहुत बड़ा यक्षप्रश्न है । यह अकादमिक भ्रष्ट्राचार या लेन- देन का मामला था उस पर सुशील ने कभी चर्चा नहीं की। यहीं से उनकी जिंदगी की गाड़ी पटरी से उतर गयी जिसके बाद उनका भटकाव ताउम्र चलता ही रहा । यह कोई उनके जाने की उम्र नहीं थी। वे साहित्य के मोर्चे पर बड़ी मजबूती के साथ डटे थे। उनका जन्म 2 जुलाई 1958 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के एक गांव भीरां में एक हिंदी अध्यापक के परिवार में हुआ था। साहित्य की यात्रा का आरम्भ उन्होंने लखनऊ विवि के छात्र जीवन से ही कर दिया था । लखनऊ विश्वविद्यालय के अपने मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने एक हस्तलिखित पत्रिका की भी शुरुआत की थी। यह नौवां दशक रहा होगा। कहानी, आलोचना, व्यंग्य, संपादन आदि के क्षेत्र में किए उनके अवदान को कतई भुलाया नहीं जा सकता। श्रीलाल शुक्ल संचयिता ,चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा : रचना संचयन सहित लगभग दर्जन भर पुस्तकों का संपादन किया। खास बात कि उनके दोनों शुरुआती दो काव्य संग्रह अवधी कविताओं के हैं। साहित्यिक कार्यक्रमों के संचालन का उनमें जो कौशल था, उसके हम सब कायल रहे हैं। लखनऊ में आयोजित ‘कथाक्रम’ समारोह वे अकसर वे एक दो सत्रों का संचालन इस अंदाज में करते कि बहस को वैचारिक शिखर पर पहुंचा देते थे । वे तदभव और कथाक्रम के सहयोगी संपादक भी रहे । कई पत्रिकाओं में वे कॉलम लिख रहे थे। वे कुछ समय तक कमलेश्वर के साथ संवाद लेखन का काम मुंबई में करते रहे लेकिन वहां भी अधिक समय तक नहीं रह पाए । लखनऊ में रहते हुए अखबारों, आकाशवाणी, दूरदर्शन, उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के कुछ फुटकर काम और विभाग की पत्रिका ‘उत्तर प्रदेश’ में कालम लिखना यही उनकी दिनचर्या थी । वे जिंदगी की दुश्वारियों का रोना नहीं रोते थे । वे समझ चुके थे अब जीवन ऐसे ही गुजारना है किस्मत में यही लिखा है सो उसका कुछ होने वाला नहीं है ।

सुशील से उनकी मौत से ठीक पांच दिन पहले 12 मार्च को चैट और मोबाइल पर बात हुई थी । वे बहुवचन के कहानी अंक के लिए एक व्यंग्य कहानी लिखना चाहते थे हालांकि वे हां करने के बाद भी संस्मरण अंक के लिए श्रीलाल शुक्ल पर नहीं लिख पाए थे । वे एक बार वर्धा आने के भी इच्छुक थे, कुछ समय मन बदलाव या घूमने के लिए । सुशीलजी ने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कुछ समय अतिथि शिक्षक के रूप में जनसंचार विभाग के छात्रों को पढ़ाया भी था । सुशील सिद्धार्थ से लखनऊ में एक प्रकाशनाधीन साप्ताहिक अखबार के दफ्तर में पहली मुलाकात उनके सहपाठी रामबहादुर मिश्र के माध्यम से 1990 में हुई थी, जिसके बाद यह मित्रता और बातचीत चलती ही रही । औसत कद गठीला शरीर, चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी, हमेशा हल्की सी मुस्कान, और अपनेपन के साथ वे किसी से भी मिलते थे और यही बात दूसरों का उनसे जोड़ देती थी ।

यह वर्ष 2007 की बात है कि एक दिन इंडिया न्यूज साप्ताहिक के कार्यालय में था कि मोबाइल पर सुशीलजी ने खबर दी कि वे दिल्ली आ चुके हैं और भारतीय ज्ञानपीठ ज्वाइन कर चुके हैं उनकी आवाज में खुशी झलक रही थी। वे चाह रहे थे कि अब मुलाकात होना चाहिए अभी दिलशाद गार्डन एक मित्र के घर पर ठहरा हूं । पहली बार उनसे कवि भारतेंदु मिश्र के घर पर भेंट हुई । हम कुछ मित्र जिसमें युवा कवि कुमार अनुपम भी शामिल है प्यार से सुशील को दादा या आचार्य कहते थे जिस पर वे मुस्कुरा भर देते । इसके बाद तो मुलाकातें और फोन पर बातें यह सिलसिला अनवरत चलता, थमता ही नहीं था । वे पूर्वी दिल्ली स्थित मदर डेरी के ठीक पीछे ध्रुव अपार्टमेंट के एक छोटे से कमरे में रहकर गुजर- बसर करते और भारतीय ज्ञानपीठ की मामूली छोटी सी नौकरी जो कि उनकी प्रतिभा और ज्ञान के बिलकुल अनुकूल नहीं थी खुद को उसके सांचे में ढालने की कोशिश कर रहे थे । रवीन्द्र कालिया उनको भारतीय ज्ञानपीठ में संपादक बनाकर लाए थे लेकिन कुछ ऐसे कारण रहे कि सुशीलजी ने भारतीय ज्ञानपीठ छोड़ दिया । उनके व्यक्तित्व में एक बात जो कि सबसे बड़ी बाधक थी वह थी कि वे आज के चरण वंदना भरे युग में चापलूसी नहीं कर पाते थे या फिर दिन को दिन या रात नहीं कहते थे जिसका खामियाजा वे पूरी उम्र उठाते रहे । एक और महत्वपूर्ण बात यह भी थी कि किसी भी व्यक्ति से उनका रिश्ता बहुत दिनों तक निभता नहीं था उसके कारण चाहे जो भी हों । दिल्ली आने से पहले अधिकांश लेखक उनको कथाक्रम के कथा केंद्रित वार्षिक संवाद में संचालक की भूमिका में देखते ही थे । दिल्ली आने पर शुरुआत में उनका दायरा कुमार अनुपम, प्रांजल धर और मुझ तक सीमित था । धीरे- धीरे  दिल्ली के साहित्यिक समाज के सदस्यों चाहे वह यूके. एस. चौहान हों या दिनेश कुमार शुक्ल, प्रेम भारद्वाज, सुधीर सक्सेना, विवेक मिश्र, सतेंद्र प्रकाश सहित बहुतों से मुलाकात और दोस्ती हो रही थी । सुशीलजी  की एक खासियत थी कि एक बार उनसे जो मिल लेता उनका मुरीद हो जाता था उनका बेलौस, फक्कड़ अंदाज चेहरे पर हल्की सी मुस्कान और साहित्य की शानदार समझ लोगों को उनका मुरीद बना देती थी । उनके पास खिल खिल करती भाषा, शैली, सधा वाक्य विन्यास, विशेषण, उपमाएं, खिलंदड़ापन था । पुस्तक समीक्षा तो वे पलक झपकते लिख डालते थे । साहित्य की  विभिन्न विधाओं कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना में उनका वृहद अध्ययन था । किसी किताब का फ्लैप मैटर वे ऐसा लिखते थे कि एक शब्द इधर से उधर करने की जरूरत नहीं होती थी । उनकी लिखावट बहुत ही साफ सुथरी थी । सुशील के चुम्बकीय व्यक्तित्व ने कवि, कहानीकार, व्यंग्यकारों, आलोचकों, मीडियाकर्मियों सहित सभी को अपनी ओर आकर्षित किया और साहित्यिक समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती ही गयी। यहां एक और बात यह हुई कि दिल्ली के बहुत सारे फेसबुकिया लेखक भी लपको अंदाज में उनके आसपास जमा हो गए । नामवर सिंह की एक कविता है कि – ‘पारदर्शी नील में सिहरते शैवाल / चांद था, हम थे, हिला दिया तुमने भर ताल’. कुछ ऐेसा ही सुशील ने कर दिखाया था ।

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि की नौकरी में आने से ठीक पहले तक वे लगातार मयूर विहार फेज तीन स्थित मेरे घर या प्रेम भारदाज के घर पर आते और एकाध दो घंटे की साहित्यिक चर्चा के बाद अपने डेरे पर लौट जाते । हफ्ता दस दिन या पंद्रह दिन बीतते- बीतते वे कहते ‘अरे यार कब मिलिहो बहुत दिन होय गा’ फिर मेरी उनसे ज्ञानपीठ के कार्यालय या उनके घर पर मुलाकात हो ही जाती । इसी समय उनकी बातचीत `हंस` पत्रिका के कार्यकारी संपादक के लिए हुई लेकिन शायद कम पैसों या राजेंद्रजी से बात न बन पाने के कारण वे ‘हंस’ नहीं जा पाए जबकि इसकी लखनऊ में घोषणा भी वे कर चुके थे । मार्च 2012 में जब मेरी नियुक्ति जब वर्धा के लिए बहुवचन के संपादक पद पर हुई तो वे मेरे दिल्ली छोड़कर वर्धा प्रस्थान को लेकर खासे असहमत थे और आदत के मुताबिक गुस्से में भरकर बोले जरिए मेरा साथ छोड़कर वहीं जाकर मरिए । उनका आशय था कि जब दिल्ली में अपना फ्लैट है और लिखने पढ़ने वाले व्यक्ति के रूप में पहचान है तो यहीं रहकर काम करो । वर्धा आने के बाद उनसे कभी- कभार दिल्ली जाने पर ही भेंट होती या फोन पर बात होती । कई बार फेसबुक चैट पर हम दोनों ही लोग बातचीत कर लेते थे । वे बहुवचन के लिए लिखने को कहते लेकिन फिर लिख न पाते कुछ ऐसा ही हो रहा था ।

दिल्ली जैसे जिसे बेदिल शहर के साहित्यिक समाज और सक्रिय समूहों के बीच उन्होंने खासी जगह बनाई । वे प्रबंधन के भी गुरू थे लेकिन छोटे-छोटे प्रबंधन करने ही आते थे वे किसी से भी बड़ा लाभ कभी नहीं ले नहीं पाए ।  एक और खासियत थी कि उन्होंने कभी किसी के सामने अपनी दुश्वारियों का रोना नहीं रोया, किसी को अपमानित नहीं किया, किसी को ठगा भी नहीं बल्कि वे खुद ही ताउम्र दूसरों की ठगी का सामना करते रहे ।

नई दिल्ली स्थित भारतीय ज्ञानपीठ में आने के बाद उनको दिल्ली के साहित्यिक समाज में पर्याप्त रूप से चीन्ह लिया गया । अखबारों में उन्होंने बड़ी संख्या में बहुत अच्छी समीक्षाएं लिखीं । नया ज्ञानोदय में कुछ समय उनका कालम ‘लिखते-पढ़ते’ खूब सराहा गया । यहां भी वे रवीन्द्र कालिया से संबंधों में खटास के चलते इस्तीफा देकर बाहर आ गए । इसके बाद वे राजकमल प्रकाशन गए लेकिन वहां भी उनकी निभी नहीं । राजकमल प्रकाशन में क्या हुआ कम ही लोग जानते हैं । एक बार फिर वे बेरोजगार थे । ऐसा नहीं कि उनकी योग्यता में कोई कमी थी बल्कि संस्थानों के मालिकों का बौनापन उन्हें झेल नहीं पाता था।  2014 में सुशीलजी ने दिल्ली छोड़ दिया और लखनऊ चले गए। कुछ ही दिन बीते थे कि वे एक बार फिर 2015  की जनवरी में किताबघर प्रकाशन की मासिक पत्रिका समकालीन साहित्य समाचार के संपादक बनकर आए । किताबघर प्रकाशन के स्वामी सत्यव्रत शर्मा ने उनको प्रतिभा के अनुकूल सम्मान दिया । लखनऊ से कथाकार शैलेन्द्र सागर के संपादन में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका कथाक्रम के व्यंग्य कालम राग लंतरानी से उनको खासी प्रसिद्धि मिली थी । वे व्यंग्य में खुद को श्रीलाल शुक्ल को गुरू मानते थे । एक बार बातचीत में उन्होंने कहा कि व्यंग्य में उनको हरिशंकर परसाई सबसे बड़े लेखक लगते हैं । कुछ समय उन्होंने पाखी (संपादक प्रेम भारद्वाज) पत्रिका में ‘शातिरदास की डायरी’ शीर्षक से कालम लिखा चूंकि कालम काफी तल्ख हुआ करता था जिससे कई लोग नाराज हुए फिर वह बंद हो गया । अब कई पत्रिकाओं में संपादक मांगकर उनके व्यंग्य प्रकाशित कर रहे थे । ‘नारद की चिंता’ संग्रह प्रकाशित होने पर जब इंडिया न्यूज में छपी तो वे हंसे बोले –‘अशोक तुमही हमका समझ सकत हव हम दोनों एकय इलाका और छोटी जगह से आईके दिल्ली मा जगह बनायन हय।‘ कभी- कभी वे कहते ‘यार अशोक हम लोग किस्मत सेठा की कलम से लिखाय के आए हन ।‘ जीवन में बहुत सारी विफलताओं, धोखों के बावजूद वे सदैव खिलखिलाते रहते यह सुशील जैसा नीलकंठी व्यक्ति ही कर सकता था । वे मौका मिलने पर खूब हंसी मजाक करते और ठहाका लगाते । जब मैं अपना कहानी संग्रह दीनानाथ की चक्की देने दिल्ली स्थित किताबघर प्रकाशन गया था तभी उन्होंने ‘मालिश महापुराण’ की प्रति भेंट की । इसके बाद ‘मो सम कौन’ एवं ‘प्रीति न करियो कोय’ भी प्रकाशित हुए । कभी- कभार रौ में आने के बाद वे कई महान लोगों के व्यक्तित्व की कलई खोलकर रख देते । वे ज्ञान चतुर्वेदी को अपना व्यंग्य गुरु मानते थे जबकि वे लेखन के शुरुआती दौर में श्रीलाल शुक्ल के काफी करीब रहे । व्यंग्य लेखन में उन्होंने भाषा का जबर्दस्त कौशल दिखाया, घिसे-पिटे विषयों को छोड़कर मौलिक विषय और विविधता की दृष्टि से वे लगातार व्यंग्य विधा में प्रतिष्ठा हासिल कर रहे थे । अपने व्यंग्य लेखन पर भी जीवन के अंतिम समय में ध्यान दे पाए पहले दे देते तो उनकी लिखी बहुत सारी कृतियां हमारे बीच होतीं । फेसबुक पर उनके प्रशंसकों की संख्या हजारों में थी।  एक ओर यह सब चल रहा था तो दूसरी ओर उनका स्वास्थ्य अत्यधिक कार्य, महानगरीय जिंदगी के तनाव आदि उन पर भारी पड़ रहे थे । परिवार और पत्नी के लखनऊ में होने के कारण उनकी आवाजाही दिल्ली से लखनऊ लगातार चलती रहती । परिवार साथ न होने से उनका खानपान ठीक-ठाक नहीं रह गया था। हिंदी के परचूनिया प्रकाशन संस्थानों की कम पैसों की नौकरी ने उनको प्रूफ रीडर कम संपादक बनाकर खूब निचोड़ा । कामकाज से संबंधित कभी कोई बड़ा आफर न मिलने से उन्हें जैसी भी नौकरी और पैसा मिलता रहा उसको स्वीकारते रहे । हम कह सकते हैं कि एक गीत है – ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया ।‘ वे यही करते रहे । करीब तीन साल पहले उन्हें ह्रदयरोग ने चपेटे में ले लिया और फिर एंजियोप्लास्टी भी हुई । वे स्वस्थ तो हुए लेकिन काम करने का उनका जूनून पहले से बहुत ज्यादा हो गया था जिसे वे खराब स्वास्थ्य के बावजूद करते रहे । सुशील ने अंतिम तीन-चार सालों में जितनी तेजी से लेखन और संपादन का काम किया उतना काम अधिकांश लोग दस साल में शायद ही कर पाएं । वे एक लेखक के रूप में ही जीना और मरना चाहते थे और उसे पूरी ईमानदारी और गरिमा के साथ कर दिखाया यह उनके जीवन की बहुत बड़ी सार्थकता रही लेकिन यह सब उन्होंने स्वास्थ्य की अवहेलना करके किया यह दुखद है । उनका न होना उनके परिवार, मित्रों और साहित्यिक समाज के लिए बहुत बड़ा नुकसान है । उनके जाने से सब कुछ खत्म हो गया है। अब तो जैसे बस उनकी स्मृतियां और रचा गया साहित्य ही बचा है। उनकी स्मृति को नमन करते और श्रद्धांजलि देते हुए इतना ही कहूंगा कि बहुत याद आएंगे सुशील सिद्धार्थ ।

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वर्तमान पता संपादक बहुवचन 

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, पोस्टगांधी हिल्स, वर्धा442001 (महाराष्ट्र)  ईमेलamishrafaiz@gmail.com  मोबाइल09422386554/7888048765

 
      

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8 comments

  1. अशोक दादा ने बहुत अच्छा लिखा है और हम लोग बता ही नहीं सकते हैं कि हमारे अन्दर कितनी बड़ी रिक्ति हो गई है सुशील सिद्धार्थ जी के जाने के बाद। अशोक दादा ने बहुत अच्छा लिखा है कि शुरूआत में तो बस हम ही चार थे – अशोक दादा, सुशील सिद्धार्थ जी, कुमार अनुपम जी और मैं। पर बाद में फेसबुकिया लोगों ने उन्हें “लपको अन्दाज” में घेरा, और ऐसा घेरा कि क्या कहूँ। घेरा क्या, उनको निचोड़ा।
    बहुत मार्मिक।
    सादर, प्रांजल धर

    • रमेश तिवारी

      सबकुछ तो खत्म नहीं हुआ, पर हां, बहुत कुछ खत्म हुआ। खत्म हुआ संघर्षशील एक व्यक्तित्व जिसके होने न होने का हाल उन युवा व्यंग्यकारों से पूछिए जो रातों-रात अनाथ हो गए हैं। वे संघर्ष से गुजरे थे, इसलिए संघर्ष शील व्यक्तियों को अपना बनाने और उनका बन जाने की कला जानते थे। दफ्तर से घर लौटते वक्त अंबेडकर स्टेडियम, दिल्ली के सामने वाले बस स्टॉप पर एक शाम एक बुजुर्ग ने उनसे दस रुपए मांगे। उसे दस रुपए दिए उन्होंने। और यह भी कहा कि कल से रोज इसी वक्त मुझसे दस रुपए ले लेना। बाद में दो-तीन दिन वह नहीं मिला। ये परेशान रहे, फिर तीसरे दिन उसे ढूंढ कर पता लगाया और तीन दिन का बकाया दिया। पूछा कि कहां रहे ? तो पता चला कि बीमार थे, इसलिए न आ सके। मैं अक्सर उनसे मिलने जाता तो मुझसे ऐसी बातें बताते और खूब ठहाके लगाते। अभी बहुत कुछ छोड़ गए हैं सुशील जी अपनी यादों में। वह यूं ही नहीं निकलेगा। धीरे-धीरे कई बरस लगेंगे और यादों में बहुत दूर तक साथ चलना है उन्हें। आपने अच्छा लिखा, और अच्छा लिख सकते थे। ऐसा मुझे लगता है। सुशील जी की स्मृतियों को नमन।

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