लखनऊ के रहने वाले युवा लेखक स्कन्द शुक्ल पेशे से डॉक्टर हैं। स्कन्द शुक्ल की रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके साथ ही दो उपन्यास ‘परमारथ के कारने’ और ‘अधूरी औरत’ भी छप चुकी हैं। ये सोशल मीडिया पर अनेकानेक वैज्ञानिक और स्वास्थ्य-समाज सम्बन्धी लेखों-जानकारियों के माध्यम से काफ़ी सक्रिय हैं।
इकारस कभी सूरज के बहुत करीब चला गया और उसके मोम से जुड़े पंख पिघल गए। हाल ही में हबल ने सबसे ऊँचे तारे को ढूँढ़ लिया है और नाम दे दिया इकारस। संसार फूलता जा रहा है और हमारी दृष्टि भी। इसी फूलते जा रहे ग़ुब्बारे को स्कंद का इकारस फोड़ देना चाहता है। — अमृत रंजन
ज़रूरी था कि हम दोनों तवाफ़-ए-आरज़ू करते,
मगर फिर आरज़ूओं का बिखरना भी ज़रूरी था।
वह गयी। और चूँकि वह गयी, इसलिए वह भी गया। ऐसा हो नहीं सकता कि एक जाए, तो दूसरा न जा पाए। बढ़ती दूरी में विच्छेद का अनूठा गुण ( या दुर्गुण ) है : वह दोनों की संस्तुति नहीं माँगती। एक हट चले, दूसरा अपने-आप दूर होता जाएगा।
लोग आसमानी पिण्डों-से हैं। ब्रह्माण्ड में हैं, तो ब्रह्माण्ड-से क्यों न होंगे! वे एक-दूसरे से हर पल दूर जा रहे हैं। लेकिन एक और अशुभ सत्य यह भी है कि वे पहले जितनी तीव्रता से एक-दूसरे से परे हट रहे हैं, पहले नहीं हटते थे। यह हटान तेज़ हुई है, यह दुराव रफ़्तार पकड़ गया है। उम्मीद थी कि गुरुत्व उन्हें परस्पर बाँध रखेगा। जैसे वह सेब को मिट्टी से रखता है। जैसे वह चन्द्रमा को धरती से रखता है। जैसे वह धरती को सूर्य से रखता है। लेकिन श्यामल ऊर्जा के आगे वह बहुत बौना सिद्ध हुआ।
“मैं जा रही हूँ।” जाते हुए वह गमन-घोषणा करती है।
“बावजूद इसके कि जाना हिन्दी की ही नहीं, सभी भाषाओं की सबसे खतरनाक क्रिया है?”
“जानती हूँ। कहने वाले केदार बाबा भी तो गये।”
“और ठण्डी भी। दूरी ऊष्मा में कमी लाती है।”
“प्रकाश में भी।”
“आता रहेगा तुमसे ?”
वह हाँ करती है। ऐसी हाँ जिसमें नकार अपना प्रभाव स्पष्ट दिखा रहा है।
” नहीं, तुम नहीं जा रहीं। न मैं जा रहा रहा हूँ। हम हट रहे हैं परस्पर। समय और दूरी का यह जाल फैल रहा है।” वह मद्धिम स्वर में उत्तर देता है।
वह उसे अनवरत देख रही है। उसका कहा, उस संग जिया सब-कुछ पुराना समेटते हुए। ज्यों कोई अतीत के रुपहले जाले बटोरता है। वे रेशे जो उस तक कभी पहले चले थे। दूरी फैल जाती है, समय भी। लेकिन अतीत की स्मृति-जालिकाएँ संग रह जाती हैं।
“हम सब अतीत को देखते हैं।” वह कहता था।
वह प्रश्नचिह्नों-सी पुतलियाँ फैला देती, ज्यों आलोक बटोर रही हो।
“आकाश देखो। हर ओर से ज्योति आ रही है हम तक। सारी पुरानी है। आज की तरोताज़ा नहीं। जो जितना दूर है हमसे, वह उतना पुराना प्रकाश हम तक ला रहा है।”
“और दूर तो सभी हैं। सिवाय स्वयं के।” वह कहती। “मैं भी न ?”
“तुम भी सेकेण्ड के करोड़वें हिस्से पुरानी दिखती हो, जब भी दिखती हो। प्रकाश तुम पर पड़ता है, फिर मुझ तक आता है। मेरी आँखें तुमसे आया प्रकाश देखती हैं। अब इतना होने में जितना समय लग रहा है, उतनी पुरानी तुम हो।”
“यानी वर्त्तमान केवल भुलावा-भर है?”
“वर्त्तमान केवल एक सोच है। स्वयं को लेकर उपजी सोच। बाक़ी आसपास सब कुछ पुराना है। आसमान में। धरती पर। सभी कुछ।”
वे दोनों घण्टों आसमान की कालिख़ आँखों से खुरचते। ज्यों कोयले के अम्बार में हीरे ढूँढ़ रहे हों। तरह-तरह के तारे। तरह-तरह की जगमग। तरह-तरह की आकृतियाँ।
“मनुष्य को कम-से-कम सौ तारे तो पहचानने आने ही चाहिए।” वह कहता। “ऐसा भी क्या छद्म मान कि आसमान का चित्र पढ़ न सके अनपढ़।”
“न।” वह सिर हिलाती और सितारे टिमटिम के साथ संस्तुति देते।”कम-से-कम सौ तारे मनुष्य को पहचानने लगें, कुछ ऐसा होना चाहिए।”
और वे घण्टों अपनी आँखों द्वारा तारों से बातें करते। मान के साथ नहीं, मौन के साथ। चित्र स्वयमेव स्पष्ट होता चला जाता। अपना-अपना अतीत प्रस्तुत करती ज्योतियाँ। सवा सेकेण्ड पुराना चाँद। आठ मिनट पुराना सूरज। चार सौ से कुछ अधिक प्रकाश-वर्ष पुराना ध्रुव। कोई तारा हज़ार वर्ष तो कोई लाख वर्ष पुराना। कोई करोड़, तो कोई अरब की संख्याओं से साथ प्रस्तुत। न जाने कितने ऐसे जिनका प्रकाश हम तक आज तक आ ही न सका! दूरी उनकी इतनी कि आज तक ज्योति तय न कर सकी! वह अभी रास्ते में है! वह पहुँचेगी! न जाने कब! न जाने कितनी देर में!
“जानती हो ब्रह्माण्ड फैल रहा है।” वह कहता।
“जैसे तुम्हारी कमर। ब्रह्माण्ड से कहना होगा कि डायटिंग करे और वर्जिश भी।” वह उसकी बेल्ट के ऊपर हलके से तर्जनी धँसाती।
“न। उसके फैलाव में एक ऊर्जा का हाथ है।”
” कैसी ऊर्जा? और जो सबको चिपकाने पर आतुर इस गुरुत्व से बड़ी ऊर्जा कौन सी आ गयी यह!”
“गुरुत्व की उस श्यामल ऊर्जा के आगे नहीं चलती। वह डार्क एनर्जी है। वह ब्रह्माण्ड को अवन में रखे किसी केक-सा फुला रही है। और उस पर लगी चेरियाँ-किशमिशें एक दूसरे से दूर हट रही हैं।”
” ओहो, तो इसमें भी विदेशी ताक़तों का हाथ है! ” वह हँस देती। “तब तो ब्रह्माण्ड बेचारा स्लिम-ट्रिम होने से रहा।”
उनकी बातें ब्रह्माण्ड की सरहदों की होतीं, तो टेलिस्कोप का ज़िक्र आता। वह उससे टेलिस्कोप खरीद लेने को कहती। ताकि तारों का अतीत दोनों बेहतर पढ़ सकें। कालिख में गुम वह अतीत भी देख सकें, जो नंगी आँखों से नहीं नज़र आता।
“जानते हो, सरहदें जानना बहुत ज़रूरी है आदमी के लिए।”
“क्यों ?”
“कि कहाँ तक हम हैं।”
“तो जहाँ तक देख पाते हैं, वहीं तक हम हैं तुम्हारे अनुसार ? और जहाँ से आँखें कुछ नहीं पा रही हैं और न सबसे शक्तिशाली दूरदर्शी, वहाँ हम नहीं हैं ?”
“सबसे शक्तिशाली दूरदर्शी कहाँ है? किसने बनायी?”
“आसमान में है। हबल नाम है उसका। एक वैज्ञानिक के नाम पर।”
“वैज्ञानिक ने उसे बनाया?”
“नहीं। मशीन ने उस आदमी का नाम पाया। क्योंकि वह आदमी बहुत बड़ा काम कर गया। बहुत बड़े आदमियों के नाम पर हम अपने बच्चों के नाम रखते हैं और मशीनों के भी। कहीं आगे ऐसा न हो कि बच्चों के नाम रखने की प्रथा जाती रहे और केवल मशीनों का ही नामकरण-संस्कार फले-फूले …”
“और फिर कहीं ऐसा दिन न आये जहाँ मशीनों के नाम उलटे आदमियों को रखने पड़ें। स्वेच्छा से या फिर जबरन।”
” ख़ैर। इस आदमी का नाम मशीन ने आख़िरकार पाया। आदमी आसमान की दूरी के बारे में यह बता गया कि हम-ही-हम नहीं। हमारी ही एकमात्र गैलेक्सी नहीं। आकाशगंगा से इतर भी जहाँ हैं। वहाँ।” वह आकाश की ओर लक्ष्यहीन इशारा करता।
“जानते हो, ऐसा लगता है कि दिन के आसमान की सरहदें सिकुड़ जाती हैं।”
“यह सूरज का असर है। जब सरपरस्ती मज़बूत हो, तो आदमी यह भूल जाता है कि वह कायनात में यतीम है। बारह घण्टों का पीला आश्वासन। फिर कालिमा और लोग घरों में लुक जाते हैं।”
“सभी कहाँ लुकते हैं। तुम्हारे वैज्ञानिक हबल कहाँ लुके ?”
“नहीं लुके, तभी तो उन्हें धड़कते हुए तारे दिखे। सेफीड वेरीयेबल नाम था उन तारों का। “
“धड़कते हुए तारे? तारे भी धड़कते हैं दिलों की तरह?”
“स्पन्दनशील तारों के पास रक्त नहीं है, प्रकाश है। वे आकार में घटते-बढ़ते हैं, उसकी ज्योतिर्मय आभा भी। इन तारों ने हबल की बड़ी मदद की खोज में।”
“कौन सी खोज ?”
“कि हमारी आकाशगंगा ही ब्रह्माण्ड नहीं है। उसके आगे, उसके परे भी गैलेक्सियाँ हैं। हमारा आत्मकेन्द्रीकरण जिसका चटकना कोपरनिकस के ज़माने से शुरू हुआ था, वह टूट कर एकदम बिखर गया जब हमने एण्ड्रोमीडा और उस जैसी अरबों गैलेक्सियों को खोज निकाला।”
वह उस पहले दिन को याद करती, जब वे मिले थे। वह सार्वजनिक स्थान पर झड़प थी। क्या न था उसमें बिग बैंग-सरीखा! उसे लगा वह उसे अनधिकृत छूने की चेष्टा कर रहा है और दुविधा में उसने एक चाँटा रसीद दिया था …
मगर उस विस्फोट में जितनी तर्जना थी, उससे कहीं अधिक सर्जना थी। उस घटना के फलस्वरूप उनका समय-चक्र चल पड़ा। वे एक-दूसरे के होते-होते होने लगे। ऊर्जाओं से पदार्थ जन्मे और पदार्थों के सम्मेल से नये पदार्थ। लेकिन ज्योति की जगमगाहट इतनी सरलता से कहाँ उपज लेती है ! उसके लिए सम्बन्ध में गुरुत्व ज़रूरी जो है। सो वे धूल ही रहे बड़े दिनों तक और धूल-सा ही रिश्ता निभाते रहे। आँखों में जगमगाती तो कभी उन्हीं में गड़ती। वह दिन-दिन गुम्फित होती रही और आकार वृहद् से वृहत्तर होता रहा। और फिर वह दिन शीघ्र ही आ गया, तब प्रेम किसी नाभिकीय ऊर्जा से भरपूर तारे-सा जगमगा उठा! सबको उनके प्यार का पता चल गया था! सम्बन्ध के आलोक की बधाई!
किन्तु आलोक का उत्सव आज-कल खुलकर नहीं मनाया जाता। लोग सूर्य को उस श्रद्धा से अर्घ्य नहीं देते, जैसे हज़ार साल पहले देते थे। लोग चन्द्रमा को खीर का भोग वैसे नहीं लगाते, जैसे हज़ार साल पहले लगाते थे। सूर्य और चन्द्रमा के प्रति एकनिष्ठता से समाज आगे आ गया है। कारण कि उसके हाथ में दूरदर्शी हैं। एक-से-बढ़कर एक। जो सूर्य से छिटका कर व्यक्ति को तारों का प्रकार-प्रारूप दिखाते हैं। जो चन्द्रमा से विलग उसे बेहतर और उपग्रहों पर जीवन की उम्मीद के लिए आसरा बँधाते हैं।
सो विस्फोट के बाद प्रेम का ब्रह्माण्ड-सा विस्तार हुआ और उस विस्तार में उन्होंने एक-दूसरे को भलीभाँति समझा। पहले-पहले परस्पर प्रकाश को तारों का नाम दिया। फिर और गहराई से निहारा, तो संज्ञाएँ बदलकर नीहारिका कर दी। फिर जबसे दूरदर्शीय दृष्टि का विकास किया तो जाना कि वे दोनों तो विस्तृत-विशाल आकाशगंगाएँ हैं। अपनी अलग संरचना, ढेरों तारों-विचारों और ग्रहों-संग्रहों से भरे-पूरे।
फिर जब दोनों के एक-दूसरे से इतर और झाँका-टटोला, तो उनका अजीब रहस्यों से सामना भी होने लगा। रहस्य जो आकर्षक हैं, लेकिन भयजनक भी। जीवन के अन्तिम चरम पर सब कुछ जी धधक-फफक कर लेने वाले सुपरनोवा। असीमित गुरुता वाले ब्लैकहोल जिनकी जकड़ से कोई भी ज्योति नहीं छूटती। और फिर वह भी दिखी जो दिखते-दिखते दिखी। डार्क एनर्जी। वह जो उन्हें हर पल खींच कर अलग कर रही थी। वह जो उनके इतने साथ थी कि दूरदर्शिता के कारण उन्होंने उसे सबसे अन्त में पहचाना।
दूरदृष्टि अपने साथ निकट की दृष्टिहीनता कई बार लाती है। एक तो वह यह उम्मीद जगाने का अनवरत काम करती है कि कोई और है, जो हम-सा है और हमारा हो सकता है। इसी आसरे के साथ मनुष्य पूरी उम्र मरीचियों के बीच मृग का भटकता घूमता रहता है। युग का प्रवाह ऐसा है कि व्यक्ति पृथ्वी, चन्द्रमा और सूर्य को समझने से पहले दूरदर्शिता पा जाता है। यन्त्र उसके हाथ आने से रात के आसमान की आवारगी बढ़ जाती है। नतीजन दूरगामिता अपने प्रभाव पैदा करती है और बहुत से पिण्ड उनके सम्मुख दैनन्दिन गति करने लगते हैं। नतीजन सौरमंडल की गाहे-बगाहे सैर, धूमकेतुओं से नैन-मटक्का और फिर खगोलीय यायावरी जीवन-भर।
विस्फोट से कण, कण से पदार्थ और पदार्थ से खगोलीय पिण्ड होने की ये यात्रा उन्हें फिर वहाँ ले आयी जहाँ से आज वे दूर जा रहे हैं। बल्कि वे नहीं जा रहे, उनके बीच का स्पेस फैल रहा है। स्पेस, जो आज के समय में सबको अपने लिए विस्तृत चाहिए। सो अन्तराल बढ़ता है और काल भी उसके साथ गुँथकर बढ़ता जाता है। दो लोग जो रिश्ते में पहले क़रीब थे, अब दूर, और दूर और फिर बहुत दूर जाने लगते हैं। उनके बीच का गुरुत्व भी उन्हें रोक नहीं पाता, उसका प्रयास अपर्याप्त सिद्ध होता है। काल-अन्तराल का फैलाव करती श्यामल ऊर्जा है ही कुछ ऐसी। संसार का हर आलोकित खगोलीय नाता-रिश्ता उसके कारण दूरस्थ होते-होते मिट जाना है।
“गुब्बारे पर स्थित दो बिन्दुओं-से हम दूर हट रहे हैं। इस दुराव को महसूस कर रहे हो तुम ?” वह कह रही थी।
“मुझे एक सुई चाहिए। जी करता है यह गुब्बारा फोड़ दूँ ।”
“ऐसा गज़ब करके क्या मिलेगा तुमको ?”
“बस। सुकून। जब हम संग नहीं, तो ब्रह्माण्ड क्यों हो!”
“यह तो ध्वंसक सोच है।”
“दूरी को रोकने का कोई और विकल्प भी तो नहीं।”
वह चुपचाप निस्तेज हो रही है।
“फिर मिलोगी?”
“फैलता ब्रह्माण्ड कभी सिकुड़ता है?”
“सिकुड़ भी सकता है। फिर से सब कुछ किसी बिग क्रंच में। जैसा आरम्भ हुआ था, वैसा ही अन्त।”
“और जो न सिकुड़ा कभी और फैलता ही चला गया तो।”
“तो अलविदा।”
“जाना यक़ीनन ब्रह्माण्ड की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है।”
इस लेख के अन्त में कुछ बातों पर सपाट चर्चा ज़रूरी है। कारण कि इसके पात्र परस्पर वार्त्तालाप में खगोलीय घटनाओं और पिण्डों की चर्चा छेड़े हुए हैं। ‘बिग बैंग’ जिसे लगभग हर विज्ञानी और सामान्य जन जानने लगा है , वस्तुतः विस्फोट जैसी कोई घटना न थी कि काले आसमान में कोई बिन्दु-सा फटा और उसका चूरा हर कहीं बिखर गया, जिससे तारों-ग्रहों-उपग्रहों-नीहारिकाओं-आकाशगंगाओं का जन्म हुआ। दरअसल बिग बैंग केवल एक नामकरण है। यह नाम खगोलशास्त्री फ़्रेड होयल ने 1949 में दिया और यह चल निकला। ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि होयल बिग बैंग के आलोचकों में से एक थे। लेकिन विडम्बना देखिए कि उन्हीं के दिये नाम से इस स्थापित सिद्धान्त को आज जाना जाता है।
बिग बैंग किसी समय में नहीं हुआ , न किसी स्थान में हुआ। बल्कि उसके होने के साथ ही समय और स्थान , दोनों की शुरुआत हुई। काल और अन्तराल का वह आरम्भ बिन्दु था। लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि बिग बैंग को किसने शुरू किया और उसके पहले क्या था। इस बाबत विज्ञान में कई धारणाएँ हैं, मतभेद हैं। यह क्षेत्र अभी सैद्धान्तिक भौतिकी के अन्तर्गत आता है , जहाँ गणित की इबारतों से अतीत के उस प्रथम बिन्दु (या उससे भी पहले !) पहुँचने का हम प्रयास करते हैं।
विज्ञान से कला का पूरा तादात्म्य न हो सकता है, न होना चाहिए। दोनों अगर एकदम एक हैं, तो वे दो क्यों हैं। इसलिए विज्ञान का आलम्ब लेकर इस लेख को रचा गया है। आधी हक़ीक़त, आधे फ़साने की तरह इसे पढ़ा जाना चाहिए। पूरी हक़ीक़त की परतें रोज़ खुल रही हैं और उसके लिए एक दूसरे नित्य परिष्कृत होते लेख की आवश्यकता पड़ती रहेगी।
–स्कन्द शुक्ल
बहुत ही जबरदस्त कलमकार है, लगता है साहित्य में कोई धोनी आ गया है, “लेखन शैली में लाजवाब और धैर्य में जवाबला” जैसी शख्सियत है साहब की, हम प्रेम से इन्हें गुरु जी कहते है। मज़ा तब आता है जब आप किसी नई जगह पर खड़ें हो और लोग स्कन्द सर के फेसबुक पोस्ट पर चर्चा कर रहे हों, अलग सा सुकून मिलता है। आप जैसे लोग नित नए विचारों से लोगों को अवगत कराते रहते है। मेडिकल सांइस जैसे विषय को भी अच्छी और सरल भाषा के साथ समझाया जा सकता है आपसे सीखा है।