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पत्रकारों की सुरक्षा की चिंता किसे है?

ईयू-एशिया न्यूज़ के नई दिल्ली संपादक पुष्प रंजन जी को पढना बहुत ज्ञानवर्धक होता है. हिंदी अखबारों में ऐसे लेख कम ही पढने को मिलते हैं. पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल आज कितने अख़बार और पत्रकार उठा रहे हैं? इस लेख में कई देशों के आंकड़े हैं और उन आंकड़ों से दिल दहल जाता है. ‘दैनिक ट्रिब्यून’ से साभार- मॉडरेटर

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एक वक्त था, जब अफग़ानिस्तान में ढूंढे से पत्रकार नहीं मिलते थे। 9/11 के बाद खबरों को हासिल करने की होड़ बढ़ गई थी। खुसूसन नाटो फोर्स के अफग़ानिस्तान में जाने की वजह से यूरोपीय मीडिया के लिए इस इलाक़े से ख़बरें निकालने को लेकर ज़बरदस्त प्रतिस्पर्धा का दौर था। जर्मनी में डायचेवेले के वास्ते हमलोग चमन में बैठे पत्रकारों से हिंदी में ख़बरें बुलवा लेते, तो लगता कि बड़ी उपलब्धि हासिल हो गई। सत्रह साल में सूरते हाल पूरी तरह बदल गया। आज अफग़ानिस्तान में कम से कम 70 रेडियो स्टेशन हैं, 30 से ज़्यादा टीवी प्रोग्राम अकेले राजधानी काबुल से प्रसारित होते हैं, और प्रिंट मीडिया के लिए 500 पब्लिकेशंस रजिस्टर्ड हैं। मगर, इसका मतलब यह नहीं हुआ कि अफग़ानिस्तान में पत्रकार महफूज़ हैं। सोमवार को काम के दौरान कम से कम दस पत्रकारों की हत्या हुई है। नौ क़ाबुल में, और एक खोस्त में।

मकसद क्या हो सकता है? पत्रकार डरें, और दहशत के बूते जो लोग सियासत कर रहे हैं, उनके मुताबिक रिपोर्टिंग करें? पहले यह डर तालिबान का था, अब आइसिस ने दहशतगर्दी की कमान संभाल ली है। आइसिस ने ही इस कांड की ज़िम्मेदारी ली है, जिससे लगता है कि ये दहशतगर्द विश्व मीडिया को बताना चाह रहे हों कि सीरिया से शिफ्ट कर हम अफग़ानिस्तान में पैर जमा चुके। ‘कन्फिलिक्ट ज़ोन’ में रिपोर्टिंग करते समय यह हिदायत होती है कि ब्लास्ट जहां हो, जबतक सुरक्षा क्लिरेंस न मिले, पत्रकार विस्फोट वाली जगह से खु़द को दूर रखें। इराक में रिपोर्टिंग के दौरान हमें ऐसे निर्देशों का पालन करना होता था। लेकिन अति उत्साह और ब्रेकिंग स्टोरी देने की होड़ में पत्रकार ऐसे निर्देशों की परवाह नहीं करते, ऐसा बाज़ दफा हम देखते हैं।

मगर, काबुल कांड एक नये क़िस्म का आतंकी हमला है, जहां पहले विस्फोट का ज़ायज़ा लेने पहुंचे नौ पत्रकार दूसरे विस्फोट के शिकार होते हैं। ‘शास दराक’ कहा जाने वाला काबुल का अतिसुरक्षित इलाक़ा ‘ग्रीन ज़ोन‘ बताया जाता है, जहां अमेरिकी दूतावास और नाटो का क्षेत्रीय मुख्यालय है। जिस आत्मधाती ने विस्फोट किया वह प्रेस फोटोग्राफर के वेश में वहां पहुंचा और पहले वाले विस्फोट में घायलों को उठा रहे सहायताकर्मियों और वहां पहुंचे पत्रकारों के बीच उसने ख़ुद को उड़ा लिया। ऐसा भी हो सकता है, यह किसी ने सोचा न था।

अफग़ान फेडरेशन आॅफ जर्नलिस्ट ने सवाल उठाया कि ग्रीन ज़ोन कहे जाने वाले इस इलाके़ में पत्रकार के वेश में मानवबम घुसा कैसे? यह सुरक्षा लापरवाही का नमूना है, जिसकी जांच अफग़ान पत्रकार संगठन ने संयुक्त राष्ट्र से कराने की मांग की है। हमलावर कैमरा लेकर पत्रकार बनने की एक्टिंग करते हुए वहां प्रवेश करता है, और खुद को उड़ा देता है। तालिबान के समय अफगानिस्तान में कितने पत्रकार मरे, उन आंकड़ों पर हम नहीं जा रहे। मगर, 2016 से आइसिस और तालिबाल दहशतगर्दों के हमलों में अबतक 34 पत्रकार मारे गये हैं।

एएफपी के चीफ फोटोग्राफर शाह माराई काबुल में मारे गये नौ पत्रकारों में से एक थे। युद्ध जैसे हालात वाले इलाके में एक पत्रकार किस मनःस्थिति से गुज़रता है, यह कुछ हफ्ते पहले माराई के ब्लाॅग को पढ़ने से समझ में आ जाता है। उसने अपने ब्लाॅग में लिखा था, ‘हर सुबह जब मैं दफ्तर जाता हूं, और हर शाम जब मैं घर लौटता हूं, यही सोचता हूं किसी कार में विस्फोट हो जाएगा, या फिर भीड़ में कोई आत्मघाती ख़ुद को उड़ा देगा। ‘ और आखि़रकार फोटो पत्रकार माराई उसी क्रूर कल्पना के शिकार हो गये।

भारत में न तो आइसिस का राज चल रहा है, न तालिबान का फिर भी मई 2014 से अबतक अफग़ानिस्तान के मुकाबले आधे पत्रकार मारे जाते हैं, तो सिस्टम पर सवाल तो उठता है। क्या इसे महज इत्तेफाक कहें कि बिहार के भोजपुर में मोटरसाइकिल से जा रहे पत्रकार नवीन निश्चल उसके साथी विजय सिंह को एसयूवी से कुचलकर मार दिया जाता है, और ठीक उसी तरीके से मध्यप्रदेश के भिंड में टीवी पत्रकार संदीप शर्मा की जान एक ट्रक से कुचलकर ली जाती है। यह आर्गेनाइज्ड क्राइम का एक हिस्सा है, जिसका मकसद मीडिया को डराकर रखना है। भारत में स्थिति दिन ब दिन बदतर होती जा रही है। मीडिया वाचडाॅग द हूट ने जानकारी दी कि 2017 में 46 पत्रकारों पर जानलेवा हमले किये गये। मगर, इन ख़बरों का शासन पर कोई असर नहीं दिखता। हम सिर्फ 180 देशों के विश्व प्रेस सूचकांक को हर वर्ष देखकर संतोष कर लेते हैं कि 2017 में भारत 136वें स्थान पर है, और तुर्की 157वें नंबर पर है।

इस समय इसपर बहस होनी चाहिए कि बदली हुई बहुकोणीय परिस्थितियों में मीडियाकर्मी किस भूमिका में रहे? एक तरफ आतंकी हैं, तो दूसरी ओर राजनीतिक माफिया। भ्रष्टाचार ने पहले से पैर पसार रखा है। सोशल मीडिया द्वारा पत्रकारों पर निजी हमले, सही को ग़लत और ग़लत को सही का द्वंद्व अलग से जारी है। सरकार को जो पसंद वो सही, शेष फेक न्यूज़। ऐसे दौर में निष्पक्ष पत्रकारिता कितनी चुनौतीपूर्ण, नौकरी खाने वाली और जानलेवा है? इसपर केंद्रित बहस नहीं हो पा रही है। कई बार हमें अपने हमपेशेवर से अधिक ख़तरा महसूस होता है, जिसे सत्ता प्रतिष्ठान ने अपने तरीक़े से आरती उतारो का कार्यक्रम में लगा रखा है। जो संस्थाएं मीडिया की निगरानी के लिए बनायीं गई, वो भी बिना दांत की हो चली हैं।

चरमराती सुरक्षा व्यवस्था सिर्फ़ अफग़ानिस्तान तक सीमित नहीं है, उसका विस्तार भारत तक है, जहां सबसे सस्ता नून, खून, और क़ानून है। प्रेस पर हमलों की चर्चा होती है, तो हम यह मान कर चलते हैं कि विकसित देशों में पत्रकार सम्मानित और सुरक्षित हैं। यकीन मानिये, ऐसा है नहीं। ‘रिपोटर्स विदाउट बार्डर‘ ने जानकारी दी कि जर्मनी जैसा देश 15वें स्थान पर है, और माल्टा 65वें स्थान पर। जुलाई 2017 में जी-20 शिखर बैठक के दौरान हेम्बर्ग में पत्रकारों पर 16 हिंसक हमले हुए। ‘फेक जनलिस्ट’ का जुमला ट्रंप ने ही शुरू किया था। ट्रंप के कार्यकाल में पत्रकारों पर गुंडई बढ़ी, और अमेरिका इस सूचकांक में 45वें स्थान पर है। तुर्की तो पत्रकारों के लिए सबसे बड़ी जेल है। जनवरी 2018 तक 245 पत्रकार वहां की जेलों में कै़द हैं, और 140 के विरूद्ध गिरफ्तारी के वारंट हैं। तुर्की के बाद चीन और मिस्र हैं, जहां बात-बात पर पत्रकारों को जेल भेज देने और उनके दमन का दस्तूर है। ये तीनों ऐसे कुख्यात देश हैं, जहां से रिपोर्टिंग सबसे बड़ी चुनौती है। ऐसे हालात कहीं भारत में न हो जाए, इसका डर बना रहता है!

 
      

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