जम्मू के पहाड़ी क़स्बे पटनीटॉप के कला शिविर की यात्रा हम उपन्यासकार-कथाकार गीताश्री के लगभग काव्यात्मक रपटों के माध्यम से कर रहे. यह समापन क़िस्त है- मॉडरेटर
====================================
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब …
पक्षी आकाश में कहीं खो चुके हैं, आखिरी बादल भी उड़ा
चला जा रहा है, हम दोनों अकेले ही बैठे हैं- पर्वत और मैं.
और आखिर में तो पर्वत ही बचेगा.
-ली बाई , चीनी कवि
यहाँ से चलाचली की बेला है.
घाटी आज के बाद कुछ शांत हो जाएगी. टूरिस्ट आएंगे, जाएंगे. हरी टीन वाली छतें कुछ ज्यादा धुंआ उगलेंगी. बादल उसी तरह आएंगे, छाएँगे और हरी टीन की छतों पर बजती रहेंगी.
पर हम न नज़र आएंगे. पिछले कुछ दिनों से घाटी कहकहों और रंगों से गुलज़ार थी. पहाड़ हलचल से भर गया था.
स्थानीय लोग कौतूहल से देखते रहे, बच्चों और कलाकारों की संगति और रुक रुक कर सुनते रहे उनकी बतकहियां. होटल अल्पाइन की दीवारों से सटा कर रखी गई पेंटिग्स. चलते चलते कला शिविर में बनाई गई सारी पेंटिंग्स बाहर प्रदर्शन के लिए रखी गई है. बच्चे अपने घर से ड्राइंग बना कर लाए थे और चित्रकारों के निर्देशन में रेखांकन में रंग भरने में जुट गए.
आज उनके वर्कशॉप का आखिरी दिन है. सब लौट जाएंगे अपने घरों की तरफ. सब मुसाफिर हैं.., पटनी टॉप की पहाड़ियाँ जान गई हैं कि मुसाफ़िरों ने उन्हें रंग और आकार दिया है. बकरवाल समुदाय का जीवन कैनवस से झाँक रहा है. अमूर्तन शैली में भी उन्हें ढूँढा और पहचाना जा सकता है.
चलते चलते चित्रकारों की टोली खूब हंस लेना चाहती है, अगले कला शिविर तक के लिए. इनकी बतकहियों को ग़ौर से सुने तो साहित्य जगत के लोगो को यकीन नहीं आएगा. यहाँ सब एक दूसरे की पीठ थपथपा रहे हैं. अपने अपने मोबाइल से पुरानी पेंटिंग्स की फोटो निकाल कर एक दूसरे को दिखा रहे हैं. एक दूसरे को सराह रहे हैं. युवा और बुज़ुर्ग चित्रकारों की मंडलियाँ अलग अलग हैं. पीढ़ियों की फाँके यहाँ भी दिखाई दे रही हैं.
युवा टोली , बुज़ुर्ग चित्रकारों के काम को संदेह से देखते हैं. असम से आए चित्रकार संजीव गोगोई माफी के साथ बोल रहे हैं- युवा पीढी के पास ज्यादा वेराइटी, रेंज है, वे ज्यादा वैचारिक हैं. सीनियर आर्टिस्ट अब वहीं ठिठक गए हैं.
संजीव के चेहरे पर गहरा आत्मविश्वास है.
बातचीत का रुख़ बाज़ार की तरफ मुड़ गया है. संजीव बाज़ार पर प्रहार करते हुए बताते हैं कि जब कोई ख़रीदार मेरे पास सौदेबाज़ी करने आता है तो मैं साफ कर देता हूँ कि अगर तुम डिक्टेट करोगे, अपनी मर्जी की पेंटिंग बनवाओगे तो मैं मुंहमांगा दाम लूँगा और अगर जो मेरी मर्जी से लोगे तो क़ीमत तुम्हारे हिसाब से तय हो सकती है.
संजीव एवं अन्य कई कलाकार फ्रीलासिंग की मुसीबतों से टकरा रहे हैं. कभी बाग़ों में बहार आती है झूम झूम के तो कभी सन्नाटा गूँजता है.
पेंटिंग के बाज़ार से चर्चा घूम कर फिर से अपनी अपनी शैली पर आकर टिक जाती है. इन दिनों इंटरनेशनल कला बाज़ार में धूम मचाने वाली चितेरी पूनम, रेणुका, चंद्रिका त्यागी बेहद मुखर हैं अपनी पेंटिंग में कंटेंट को लेकर. पूनम को फ़ीमेल बॉडी बहुत आकर्षित करती है और ज़्यादातर उनकी फ़ीमेल “ न्यूड” दिखती है. पूनम को चिढ है कि कोई “ न्यूड” कहे. वे ललकारने के अंदाज में कहती हैं-“ मेरी पेंटिंग्स की स्त्रियां न्यूड नहीं हैं. मैं किसी को इसे “न्यूड “ कहने की इजाज़त नहीं देती. ये प्योर फ़ॉर्म है फ़ीमेल का. जिसे दृष्टि दोष है तो इलाज करवाए.
हालाँकि पूनम इस बात से इनकार नहीं करती कि उन पर अश्लील पेंटिंग बनाने के आरोप लगे हैं. वे स्पष्ट करती हैं कि मैं पेंटिंग में स्त्री को कपड़े नहीं पहनाती , मैं उसकी बॉडी लैंग्वेज को इस्तेमाल करती हूँ. मैं स्त्री इसलिए चुनती कि वह प्रकृति की सबसे रहस्यमयी रचना है. मेरी स्त्रियाँ किसी भी काल और समय से परे जाकर संवाद कर सकती हैं.” रेणुका भी सहमत है इस बात से.
कला शिविर में अधिकतर कलाकारों ने अपनी परिचित शैली से हटकर चित्र बनाए , इसलिए भी सब आपस में अपनी शैली और कंटेंट पर लंबी चर्चा कर रहे हैं और एक दूसरे को आई पैड और मोबाइल में अपलोड तस्वीरें दिखा रहे हैं. पूरे शिविर में चुपचाप रहने वाले, दिल्ली के चित्रकार आनंद सिंह अपनी कला के बजाय मुंबई के युवा कलाकार नीलेश वेडे के चित्रों पर रीझते हुए बोले- आप नीलेश का ओरिजिनल काम देखिए ..शिविर में तो नहीं दिखेगा, इतने कम समय में और थीम के दबाव में ओरिजिनल काम नहीं होता.
नीलेश अपना आई पैड ऑन करते हुए बताते हैं कि कला शिविरों में समय पर पेंटिंग पूरा करके देने की बाध्यता रहती है , अपने स्टूडियो में तो मैं कैनवस के सामने तीन तीन दिन बैठा रहता हूँ… कुछ सूझता नहीं..
मेरे मुँह से निकला- बिल्कुल हमारी तरह… लैपटॉप खोल कर हम घंटों सोच विचार में गुज़ार देते हैं… एक शब्द भी नहीं लिख पाते…!”
नीलेश तब तक अपनी पेंटिंग्स का अलबम निकाल चुके हैं, एकदम अलग शिल्प की पेंटिंग्स. शिविर के लिए बनाई गई पेंटिंग्स से बिल्कुल अलग. चुलबुले स्वभाव का युवा चित्रकार अपनी कला में बहुत गंभीर और जटिल है. रचना का स्वभाव से कोई लेना देना होता है या नहीं? चुलबुले लोग गंभीर काम कर सकते हैं और गंभीर लोग अपनी कला को कैलेंडर कला में बदल सकते हैं. एकाध पेंटिंग कैलेंडर कला का नमूना दिखी, ख़ासकर शिविर के दौरान जबरन गांभीर्य ओढ़ने वाले कलाकारों के काम थे ऐसे. मेरी सख्त टिप्पणी पर कुछ चित्रकार उनके बचाव में आए. हालाँकि उनके ओढ़े गए गांभीर्य से सबको समस्या थी. कला पर दो तीन चित्रकार बचाव पर उतर आए- “अरे नहीं, वो दबाव में ऐसा काम कर गए, बहुत अच्छा काम करते हैं. फीगरेटिव काम के मास्टर हैं… ये भी बुरी नहीं है… बस रंग लाउड हो गए हैं… “
हमारे लेखन में तो ऐसी रचना को औसत या औसत से नीचे कह कर उसकी हत्या कर दी गई होती. एक अवांतर प्रसंग मगर कहना जरुरी है. अभी नहीं तो कभी नहीं कह पाऊंगी.
एक घटना याद आई- ! एक नवोदित लेखिका ने अपनी थोड़ी सीनियर , पोपुलर लेखिका को अपना पहला उपन्यास भेजा. आग्रह के साथ कि “कृपया पढ के बताइएगा, आपका मार्गदर्शन चाहिए.”
नामचीन वरिष्ठ लेखिका ने उपन्यास को पढा या बिना पढे नवोदित लेखिका को लिख भेजा-ऐसा सतही उपन्यास लिखने से बेहतर है कि तुम लिखो ही मत.”
नवोदित लेखिका का दिल कितना टूटा होगा! कल्पना कर सकते हैं. यह हत्यारी प्रतिक्रियाएँ जानलेवा होती हैं. अक्सर गंभीरता के आवरण में लिपटे और आत्म मुग्ध लोग ऐसी “सुपारी “ लेते हैं.
अब आते हैं पुरानी बात पर-
गंभीरता कितनी लाउड और सतही हो सकती है, रचना इसका पोल खोलती है.
मगर चित्रकारों के मुख से एक बार निगेटिव शब्द न निकले.
स्कूली बच्चों की पेंटिंग की तरफ बातचीत का रुख़ मुड़ता है. वरिष्ठ चित्रकार रघुवीर अकेला कहते हैं कि इन बच्चों ने बाहरी दुनिया देखी नहीं. इनके अनुभव संसार में सिर्फ कुछ चीज़ें हैं.. पहाड़, नदी, पेड, फूल, जंगल और चिड़ियाएँ. और सबसे ज्यादा घर !
सब बच्चो ने काग़ज़ पर एक घर जरुर बनाया था. इन्सान की तीन जरुरतों में से एक मकान कितना जरुरी होता है, ये बचपन से हम जान जाते हैं. एक घर के लिए सारी क्रियाएँ होती हैं.
चित्रकारों ने बच्चों से कहा कि वे अपने अनुभव संसार को बड़ा करें, ताकि उनके चित्रों में और ऑब्जेक्टस आएं.
कुछ बच्चों ने गांधी और अंबेडकर के पोर्ट्रेट बनाए थे. स्कूल की दीवारों पर जरुर सजी होगी इनकी तस्वीरें.
अंतिम दिन चर्चा सत्र के बाद कला शिविर की आयोजक अनुराधा ऋषि ने घोषणा की कि इनमे से कुछ प्रतिभावान छात्रों को चुन कर उनका ट्रस्ट कला का फ़ेलोशिप देगा ताकि वे आगे कला की पढाई जारी रख सकें.
इस घोषणा के तुरंत बाद डोगरी गीत संगीत का जो दौर चला, उसने छात्रों और चित्रकारों को झूमा दिया.
सब लौट रहे हैं…
रह जाएगा यादों का धुंआ …गाते गाते रंगसाज अपनी अदृश्य रुपाकृतियों के साथ विदा ले रहे हैं. और अंत में केवल पर्वत बचेगा.